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– प्रशांत सिन्हा
2020 बिहार विधान सभा का चुनाव का बिगुल बज चुका है और सभी राजनीतिक दल के सुरमा अपने अपने हथियार के साथ चुनावी मैदान में कूदने को तैयार हैं। बिहार में वैसे भी राजनीतिक तापमान दूसरे राज्यों के अपेक्षा ज्यादा होता है। हालांकि बिहार चुनाव में लालू यादव के जेल में होने के कारण उनकी अनुपस्थिति, बाढ़, एवं करोना महामारी के कारण वैसा दिलचस्प नहीं लग रहा है लेकिन एक कारण से दिलचस्प है और वह है लालू परिवार के पंद्रह साल बनाम नीतीश के पंद्रह साल। जनता को तय करना है किसका पंद्रह साल बेहतर रहा। क्या इनके अलावा और भी विकल्प है बिहार में? पिछले दिनों पुष्पम प्रिया चौधरी के बड़े बड़े विज्ञापन आ रहे थे। आम आदमी पार्टी ने अपने पत्ते अभी तक नहीं खोले हैं। बिहार में एक नई पार्टी बनी है ” न्यू भारत मिशन ” जिसमें ज्यादातर जय प्रकाश नारायण के अनुयाई लोग है और पिछले चालीस सालों से गांव और जंगलों में काम कर रहे हैं। देखना यह होगा ये सभी बिहार की जनता को कितना प्रभावित करते हैं।
वैसे तो पूरे देश में जाति पर आधारित राजनीति होती है लेकिन बिहार में इसकी जड़ें काफी गहरी हैं। बिहार में जाति पर आधारित है राजनीति। बिहार में 150 जातियां हैं लेकिन 4 जातियां ही बिहार के 243 सीटों पर आधे से अधिक जीतते हैं वे है यादव, राजपूत, भूमिहार एवं मुसलमान। इनमे से यादवों एवं मुसलमानों की भागीदारी ज्यादा है। लालू इसी मुस्लिम यादव समीकरण के सहारे सत्ता पर काबिज थे। इसके अलावा लालू यादव ने पिछड़ों एवं अति पिछड़ों के कंधे पर बंदूक रखकर राजनीति की। बाद में नीतीश कुमार ने दलित – महादलित के कंधे पर बंदूक रखकर राजनीति की । लेकिन 15 + 15 साल में न तो इनका विकास हुआ और न राज्य में कोई विकास हो पाया। ऐसा बिहार कि जनता समझती है।
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वर्ष 2015 के बिहार विधान सभा चुनाव में भाजपा और नरेंद्र मोदी की विजय रथ को रोकने के लिए सत्ताधारी जनता दल यूनाइटेड (जदयू) ने राष्ट्रीय जनता दल (राजद) और कांग्रेस के साथ मिलकर गठबंधन किया और सफल रहा। लेकिन बिहार में पांच साल के दौरान काफी कुछ बदल गया है। नीतीश कुमार फिर से भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) के साथ मिलकर नेशनल डेमोक्रेटिक अलायन्स (एनडीए) में शामिल हो गए हैं और महागठबंधन के बिखरने के बाद चुनावी समीकरण बदल गए हैं। कई नेता दल बदल रहे हैं और मौके की तलाश कर रहे हैं। रघुवंश प्रसाद सिंह की मृत्यु हो चुकी है किन्तु मृत्यु के दो चार दिन पहले उनका राजद छोड़ना चुनाव को प्रभावित कर सकता है। बदलते राजनीति समीकरण और सामाजिक आर्थिक स्थितियों के कारण 2015 की तुलना में राज्य में ज्यादा दल बदल के मामले देखने को मिलेंगे।
बिहार में भाजपा मानती है कि नीतीश के खिलाफ एंटी इंकम्बेंसी फैक्टर है और भाजपा को छोड़ने और राजद के साथ जाने फिर राजद को छोड़ कर भाजपा के साथ आने के नीतीश कुमार के फैसले के बाद नीतीश की विश्वसनीयता पर लोग संदेह करने लगे है। फिर भी बिहार में एनडीए में दूसरे दर्जे की दल बनी रहने के लिए भाजपा अभिशप्त है। इसका कारण शायद कुछ महीने पहले बिहार के सियासी गलियारे में हुई हलचल से हो। नीतीश और प्रतिपक्ष के नेता तेजस्वी यादव के बीच नजदीकियां बढ़ने और राष्ट्रीय नागरिक रजिस्टर के खिलाफ विधान सभा में प्रस्तावित विधेयक पारित होने से भाजपा सकते में आ गई थी। फिर नीतीश कहीं पाला न बदल लें भाजपा को नीतीश को बड़े भाई की दर्जा देने पर विवश होना पड़ा। भाजपा अभी भी बिहार में खुद की बदौलत सरकार बनाने के लिए खुद को योग्य नहीं मानती। कारण है कई सालों तक उप मुख्य मंत्री रहने के बावजूद सुशील मोदी नेता नहीं बन पाए। केंद्रीय नेतृत्व भी बिहार में अपने किसी नेता को आगे नहीं बढ़ाया।
एनडीए के एक और घटक लोजपा के चिराग पासवान ने 143 सीटों पर चुनाव लडने की मंशा जाहिर कर जदयू से निर्णायक लड़ाई लड़ रही है। इसके लिए उनके पिता राम विकास पासवान का खुला समर्थन है। चिराग बिहार विधान सभा में अपनी सीटें बढ़ाना चाहते हैं। उन्होंने याचना के बजाए संघर्ष का रास्ता अख्तियार कर लिया है। मांझी का दल भी कुछ असर डाल सकता है।
राजद, कांग्रेस, कुशवाहा की पार्टी आरएलएसपी ने जो महागठबंधन बनाया है उसमे राजद बड़े भाई की भूमिका में है। लालू की अनुपस्थिति से कार्यकर्ता में जोश की कमी दिख रहा है। रघुवंश प्रसाद सिंह की मृत्यु एवं उनकी मृत्यु के दो चार दिन पहले ही उनके द्वारा त्यागपत्र देना राजद में स्वर्ण जाति एवं जनता को प्रभावित कर सकता है। कांग्रेस का कितना योगदान रहता है ये तो समय बताएगा। राजद और उनके सहयोगी दल नीतीश को मुद्दों पर घेरने में असफल दिख रहे हैं। पप्पू यादव की जन अधिकार पार्टी ज्यादा आक्रामक दिख रही है।
काफी दिनों से सूबे की राजनीति से बाहर हो चुके लालू यादव को मुस्लिम यादव समीकरण पर अभी भी भरोसा है लेकिन पंद्रह साल सुशासन बाबू के बिहार में मुख्य मंत्री के रूप में नीतीश कुमार का विकल्प किसी दल के पास नहीं दिखता। राजद के परंपरागत मतदाता ” यादव और मुसलमान ” बड़ी दुविधा में हैं। इन्हें समझ में नहीं है आ रहा है करें ती क्या करें। जनता भी दुविधा में है। सड़क एवं बिजली कि समुचित व्यवस्था को विकसित करने की दिशा में नीतीश भले ही पूर्ण रूप से सफल नहीं हो सके लेकिन पंद्रह साल के राजद शासन से बेहतर व्यवस्था देने में कारगर साबित हुए। नीतीश जनता को लालू के पंद्रह साल के अव्यवस्था को याद दिलाकर डराते हैं । भाजपा इस चुनाव में अपने दो एजेंडा को लेकर जाना चाहेगी वो हैं नई शिक्षा नीति और आत्मनिर्भर भारत।
तेजस्वी को मुख्य मंत्री बनाने को लेकर महागठबंधन में संशय हो सकता है। नेता कौन होगा और नेतृत्व को जनता स्वीकार करेगी या नहीं की गुत्थी सुलझाने में शायद गठबंधन खुद को संतुष्ट नहीं कर पा रहे हैं।
नीतीश कुमार के 3 टर्म में यह साबित हो चुका है कि यह भी सुशासन लाने में सफल नहीं है।क्या यह चुनाव बिहार के लिए कोई दिशा निर्धारित कर पायेगी। फिलहाल तो पासा जनता के हाथ में है।
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