दो टूक
– ज्ञानेन्द्र रावत*
सैयद अली शाह गिलानी कश्मीर के ऐसे अलगाववादी नेता थे जो आतंकियों को शहीद का दर्जा दिया करते थे। इसमें वह गर्व महसूस करते थे। जम्मू कश्मीर विधान सभा के लिए वह सोपोर से 1972, 1977 और 1987 में तीन बार विधायक चुने गये। पहले वह जमाते इस्लामी के सदस्य रहे लेकिन बाद में उन्होंने तहरीके हुर्रियत के नाम से अपनी अलग पार्टी बनायी लेकिन अनुच्छेद 370 हटने के बाद उन्होंने उस पार्टी के प्रमुख पद से इस्तीफा दे दिया था।
जीवन के अंतिम समय में वह अपने हैदरपुरा स्थित घर में नजरबंद थे जहां 92 साल की उम्र में 1 सितम्बर 2021 को उन्होंने आखिरी सांस ली। इनकी खासियत यह रही कि इन महाशय ने कश्मीर की नौजवान पीढ़ी को दशकों तक कश्मीर की आजादी के नाम पर बरगलाया । यही नहीं इनको कश्मीर की समस्या का हल पाकिस्तान में या फिर आजाद कश्मीर नाम के झुनझुने में नजर आता था। सबसे बडी़ बात यह कि इनको यह भली भांति मालूम था कि 1965, 1971 और फिर कारगिल की लडा़ई के बाद भी पाकिस्तान को कुछ हासिल नहीं हुआ और मौजूदा हाल में पाकिस्तान में अपने ही खाने के लाले पडे़ हुए हैं, वह किसी और को क्या खिलाएगा। पूर्वी पाकिस्तान अब बांग्लादेश बन चुका है। बलूचिस्तान में आजादी पाने के लिए तड़प रहा है लेकिन इनका कश्मीर की आजादी का राग खत्म नहीं हुआ।
यह शख्स कश्मीरी नौजवानों को अपने जज़बाती भड़काऊ भाषणों के जरिये हिन्दुस्तान के खिलाफ जहर उगलता रहा और सीधे-साधे घाटी में रहने-बसने वाले कश्मीरियों को आतंकवाद की राह पर धकेलता रहा और उनकी जिंदगियों को नरक बनाता रहा।
सैयद शाह गिलानी पाकिस्तान परस्त नेता थे । भारत के खिलाफ तो वह हमेशा जहर ही उगलते रहे। उन्होंने 2015 में कहा था कि मैं जन्मजात भारतीय नहीं हूं। खुद को भारतीय बताना मेरी मजबूरी है। यह बात तो उन्होंने जब कही थी जब वह 2015 में अपनी बीमार बेटी से मिलने सऊदी अरब जाने के लिए अधिकारियों के सामने दिल्ली में पेश हुए थे।
*वरिष्ठ पत्रकार एवं चर्चित पर्यावरणविद। प्रस्तुत लेख उनके निजी विचार हैं।