
चाहे औद्योगिक प्रदूषण हो, वाहनों का प्रदूषण हो, जीवनदायी नदियों का प्रदूषण हो, मृदा प्रदूषण हो, ओजोन प्रदूषण हो, ध्वनि प्रदूषण हो, मानवीय, प्लास्टिक प्रदूषण का हो, या डिजीटल प्रदूषण हो, नित्य नए कीर्तिमान बना रहे हैं जल, ज़मीन और आकाश में प्रदूषण के स्तर।
2014 में राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन सरकार के सत्तासीन होने पर दावा किया गया था कि पुण्यदायिनी गंगा-यमुना सहित देश की 463 छोटी नदियां प्रदूषण मुक्त की जायेंगीं। गंगा-यमुना तो हजारों करोड़ खर्च करने के बाद भी आज अपनी दुर्दशा पर रो रही हैं। वे आज भी अपने ताड़नहार की बाट जोह रही हैं। दावे कुछ भी किए जायें हकीकत यह है कि वे आज पहले से भी बीस गुणा ज्यादा प्रदूषित हैं। जब गंगा-यमुना की यह हालत है तो देश की 461 नदियों की मुक्ति की आशा ही बेमानी है। ऐसा लगता है इस बाबत सरकारों पर सुप्रीम कोर्ट और नेशनल ग्रीन ट्रिब्यूनल (एनजीटी) भी दबाव बनाने में नाकाम रही हैं। प्राकृतिक, मानव जनित और रासायनिक रूपांतरण से सिंधु-गंगा का मैदानी इलाका प्रदूषण का केन्द्र बन गया है। असलियत यह है कि पंजाब से लेकर पश्चिम बंगाल तक के सात राज्यों की करीब 47 करोड़ आबादी एयरोसोल की परत जिसमें धूल, कोहरा, सल्फ़ेट, कालिख और ब्लैक कार्बन के कण शामिल हैं, के चलते खतरे में है।
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वायु प्रदूषण भी इंसान का सबसे बड़ा दुश्मन साबित हो रहा है। देश की राजधानी दिल्ली ने तो इसमें कीर्तिमान बनाया है। इस वजह से से जलती आंखों और चढ़ती सांसों से क्या बच्चे और क्या बूढ़े सभी बेहाल दिखे। वे घरों के अंदर बंद रहने को मजबूर दिखे। इससे बच्चों व गर्भवती महिलाओं में आटिज्म के खतरे के 64 फीसदी बढ़ने की संभावना बढ़ जाती है। दिल में सूजन, छाती में जकड़न, खांसी, दमा, ब्रोंकाइटिस व त्वचा रोगियों की भरमार बनी रहती है। वायु प्रदूषण में यहां कचरे के पहाडो़ं का योगदान सबसे ज्यादा खतरनाक है जिसका निष्पादन करने में सरकार की नाकामी जगजाहिर है। इसकी भयावहता का परिचय इसी बात से लग जाता है कि डाक्टर दिल्ली को रहने लायक शहर नहीं बताते और वे पहाडो़ं पर जाकर बसने की सलाह देते हैं। इसमें वाहनों की बढ़ती तादाद पर अंकुश न लगना भी अहम कारण है। पर्यावरण में घुले प्लास्टिक के सूक्ष्मकण भोजन या पेय पदार्थों के जरिये त्वचा के माध्यम से मानव शरीर में प्रवेश कर स्वास्थ्य को गंभीर नुकसान पहुंचा रहे हैं।
पारिस्थितिकी संतुलन और पर्यावरणीय स्थिरता के लिए पेड़-पौधों का पर्याप्त मात्रा में होना अति आवश्यक है। लेकिन खेद है कि मानवीय स्वार्थ के चलते इस दिशा में सार्थक प्रयास नहीं किए जा रहे हैं। वृक्षारोपण अभियान मात्र आंकड़ों की बाजीगरी के अलावा और कुछ नहीं है। यह भी कम दुखदायी नहीं है कि उर्वरकों की अधिकता ने हमारी जमीन की उर्वरा शक्ति को खत्म करने में अहम भूमिका निबाही है और जलवायु परिवर्तन के चलते सालाना दस करोड़ जमीन बंजर हो रही है।
संयुक्त राष्ट्र की सतत विकास लक्ष्य की रिपोर्ट के अनुसार यदि जैव विविधता की हो रही क्षति और जलवायु खतरों से निपटने के ठोस उपाय नहीं किये गये तो 2030 तक दुनिया में 1.5 अरब हैक्टेयर जमीन बंजर हो जायेगी।
यह सब पर्यावरण विनाश के प्रतीक तो हैं ही, ज्वलंत प्रमाण भी हैं। क्लाइमेट एनालिटिक्स का एक नया अध्ययन आशा की एक नयी किरण दिखा रहा है। उसके अनुसार यदि 2030 तक हर साल 1.5 टेरावाट सौर और पवन ऊर्जा का उत्पादन किया जाये तो इससे सदी के अंततक तापमान बढ़ोतरी को डेढ़ डिग्री तक सीमित रखने में मदद मिल सकती है।
यह तभी संभव है जबकि सौर और पवन उर्जा के उत्पादन की दर में मौजूदा दर में पांच गुना तेजी से इजाफा किया जाये। हां इतना संतोष जरूर है कि इस बाबत प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी का यह दावा कि विकास और प्रकृति का एक साथ कदमताल संभव है, पर्यावरण प्रत्येक व्यक्ति की सामूहिक जिम्मेदारी है और पर्यावरण संरक्षण भारत की प्रतिबद्धता है, कम से कम पर्यावरण के प्रति उनके सकारात्मक रुझान को दर्शाता तो है। उनके द्वारा बंजर भूमि को फिर हरा-भरा करने और कोयला आधारित ऊर्जा के स्थान पर सौर व पवन ऊर्जा को प्रोत्साहन देने हेतु किये जा रहे प्रयास से ग्लोबल वार्मिंग में कमी आयेगी क्या?
चाहे जल का सवाल हो, वायु का हो, उपवनों के संरक्षण का सवाल हो, निष्कर्ष यह है कि अगर हमें यह सुनिश्चित करना है कि यह प्रकृति एक संसाधन के रूप में, स्रोत के रूप में, मित्र के रूप में हमारी आने वाली पीढि़यों को उपलब्ध रहे, तो हमें अपनी संतति और आने वाली पीढि़यों के लिए अपनी जिम्मेदारी का अहसास करते हुए प्रकृति से मेलजोल और प्यार करना सीखना होगा।
*वरिष्ठ पत्रकार एवं पर्यावरणविद।