जल चिंतन – 6
– डॉ. राजेंद्र सिंह*
जलाधिकार सुरक्षित करने हेतु विज्ञान एवं शिक्षा की भूमिका पर वैटिकन, रोम में पोप के सामने बोलते हुऐ मैंने कहा ’’आज की शिक्षा मानव को लालची बनाती है’’। तकनीकी एवं इंजीनियरिंग में प्रकृति की अधिकतम शोषण विधियां पढ़ाई एवं सिखाई जाती हैं। विज्ञान की मद्द से ही इंजीनियरिंग व तकनीक आज प्राकृतिक शोषण करने में जुटी है। ’’प्रबंधन की शिक्षा मानवीय एवं प्राकृतिक दोनों को ही नियंत्रण करना प्रबंधन पढ़ाती है।’’ आज सभी कुछ नियंत्रण करने का दौर है। पहले नियंत्रण करो फिर उसका भोग-उपयोग जो भी कुछ करना है, करो। प्रबंधन प्रशिक्षण का अर्थ है। नियंत्रण के गुण सीखना। नियंत्रण से ही कुछ ही लोग पुरी दुनिया के नियंत्रक बनते है। आज सभी लोकतांत्रिक सरकारें ऐसा ही करने में जुटी हैं। औद्योगिक घराने ही लोकतांत्रिक सरकारों के लिए प्रबंधन कर रहे हैं। इन्हें चला रहे हैं। आज का लोकतंत्र ठेकेदारों, औद्योगिक घरानों के द्वारा संचालित है। सामाजिक विज्ञान की पढ़ाई भी समाज को श्रम मुक्त जीवन जीने की शिक्षा दे रहा है। श्रमनिष्ठ समाज को पिछड़ा, दलित, महादलित कहकर उसका अपमान ही करता है। या फिर कमजोर की कमान से भिड़ा देता है। कमजोर कमान से लड़कर हार ही जाता है। हार कर टूट जाता है। इस वास्ते वर्तमान शिक्षा उसके अधिकार सुरक्षित नहीं कर पाती है। बस लड़कर अधिकार लेकर कुत्ते की तरह लालची ही बना रहा है।
90 वर्ष पूर्व से आज की शिक्षा को मानवाधिकार दिलाने वाली शिक्षा कहा गया था। शिक्षित ही अपने अधिकार हेतु लड़ता और जीतता है। वर्तमान में यह सर्वसिद्ध नही है। कहीं-कहीं उक्त हुआ है। वह सभी कुछ शिक्षा से नही मिला। परिस्थिति बस मिल गई हैं। परिस्थिति वर्तमान शिक्षा ने नही पैदा की है, बल्कि जन दबाव या सामुदायिक जिम्मेदारी ने प्राप्त किया है। जैसे अरवरी नदी की संसद ने अपने संरक्षित जल का शोषण कोका कोला-पेप्सी विवन्डी स्वैज आदि बहुराष्ट्रीय कम्पनियों को नहीं करने दिया। इस क्षेत्र में ऐसा इसलिए संभव हुआ क्योंकि यहां मैकाले की शिक्षा अधिक नही थी। इनका अपना मूल परंपरागत शिक्षण यहाँ बचा था। इसीलिए इन्हें अपने दायित्व और अधिकार का अहसास हुआ। उसे समझकर वर्षा जल संरक्षण किया फिर अनुशासित होकर उसका उपयोग करने की दक्षता बढ़ाई। इसलिए इनकी नदी में वर्षाजल शुद्ध, सदानीर बनकर बहने लगे। फिर उसकी मछली और नदी का जीनपूल जैवविविधता बचाने हेतु जल बचाओ सत्याग्रह शुरु हुआ। सरकारी ठेके रद्द हुए। इस नदी पर समुदायों का अपना जल अधिकार सुनिश्चित हुआ। समुदाय अपना मानवीय एवं प्राकृतिक जलाधिकार प्राप्त कर सकें। यह उनके मूल शिक्षण व रचनात्मक संघर्ष से ही संभव हो सका है।
मानवीय अधिकार दिलाने हेतु विज्ञान एवं शिक्षा की बहुत महत्वपूर्ण भूमिका है, लेकिन बहुशिक्षा और विज्ञान लोकानुकूल व प्रकृति अनुकूल समतामूलक होनी चाहिए। समाज को जब भी सम्मान जनक शिक्षा एवं विज्ञान का सरल सहज सम्भव सहारा मिलता है, तो समाज स्वयं खड़ा होकर लड़ता है। अपने अधिकार प्राप्त कर लेता है। शिक्षा और विज्ञान की जटिलताओं में वह खो जाता है। अपनी हकदारी और जिम्मेदारी को भूल जाता है। इनके अंतर की पहचान भी नही कर पाता है।
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वर्तमान शिक्षा पद्धति की अपनी सीमाएं और मर्यादाएं व कमियां है। यह लाभ पाने का विचार देती एवं सिखाती है। शुभ का विचार भुलाती है। लाभ केवल निजी काम करने हेतु प्रेरित करता है। शुभ साझे कामों की पुण्य प्रेरणा बनता है। अतः निजीता की ओर ले जाने वाली शिक्षा जल मानवाधिकार सुनिश्चित कराने का कार्य नही कर सकती है। अतः जल की जिम्मेदारी और हकदारी सिखाने वाली शिक्षा ही मानवीय जलाधिकार सुनिश्चित कराने में सफलता दिला सकती है। जल का निजीकरण आधुनिक शिक्षा का ही परिणाम है।
महाराष्ट्र सरकार ने जलाधिकार पाने वाली मानवाधिकार की जल-साक्षरता का एक केन्द्र स्थापित किया है। यह केन्द्र जल के लिए मानवीय जिम्मेदारी पहले सिखायेगी बाद में मानवाधिकार का अहसास करायेगा। ऐसे उद्देश्यपूर्ण पूरी दुनिया में एक ’जल साक्षरता’ अभियान चलाने हेतु अप्रैल 2014 को साउथ कोरिया के ज्ञानजू शहर में आयोजित विश्वजल मंच 2014’’ में एक विश्वजल शांति यात्रा आरम्भ की। इस यात्रा का उद्देश्य स्पष्ठ है। बेपानी, बिगड़ा पानी के कारण होते लाचार, बेकार, व बीमार लोगों का पलायन रुके। मजबूरी में होने वाले जल-पलायन पर रोक लगाने हेतु सामुदायिक विकेन्द्रित जल प्रबंधन की शुरुआत हों।
जहां भी दुनिया में सामुदायिक विकेन्द्रित जल संरक्षण हुआ है। वहां-वहां वापसी पुनर्वास हुआ है। राजस्थान इसका सबसे बड़ा उदाहरण है। अलवर जिले की थानागाजी तहसील के गोपालपुरा गांव से शुरू हुआ यह कार्य 1200 गांवों में हुआ है। इन सभी में वापसी पुनर्वास हुआ है। वापसी पुनर्वास ही विश्वजल शांति कायम कर सकता है। इस हेतु समाज को आभास कराने वाली शिक्षा से, चेतना से संगठन बनाकर सामुदायिक जल संरक्षण के कार्य कराना जरूरी है। जब समाज अपनी जिम्मेदारी जल संरक्षण एवं अनुशासित उपयोग में समझेगा, तभी तो अपने अधिकार को पाने का अहसास और आभास बना सकेगा।
आज समाज को जल संरक्षण प्रबंधन हेतु सामुदायिक अहसास कराना है। समाज संगठित बनकर अपने जलाधिकार प्राप्त करने का आभास प्राप्त कर सकेगा। यह शिक्षा तो श्रमनिष्ठ है। समाज को प्रकृति का प्यार-सम्मान सिखाने वाली है। जितना प्रकृति से लिया है उतना ही प्रकृति को वापस भुगतान करना सिखेगा। वही समाज सफल और सिद्ध होगा, जिसके जीवन में प्रकृति का प्यार, सम्मान का व्यवहार और संस्कार होगा। यही संस्कार और व्यवहार सामाजिक और पर्यावरणीय अन्याय का प्रतिकार करने हेतु तैयार करेगा। मानव जलाधिकार पर्यावरणीय सामाजिक अन्याय के विरुध लड़ाई है। इसी लड़ाई को हमें लड़कर जीतना जरूरी है।
यही शिक्षा और प्रक्रिया जल मानवाधिकार पाने वाली है। ऐसी शिक्षा कक्षा (कमरे) में बैठकर पढ़ाने वाले विश्वविद्यालयों में नही दी जा सकती है। इसके लिए चलता-फिरता विश्वविद्यालय चाहिए। जो बाढ़-सुखाड़ क्षेत्र आदि जल उपयोग करने वाले समाज तथा जल कार्य के कारण प्यास से मरने वाले समाज के बीच समाधान हेतु पहुँचना होगा।
मैं गत तीन वर्षों से यही कर रहा हूँ। कोसी में आई बाढ़ के समय मैं कोसी में ही था। सतना, रीवा, मुम्बई और चैन्नई की बाढ़ के समय मौके पर जाकर काम किया। बाढ़ सहवरण की शिक्षा देकर भावी बाढ़ मुक्ति सिखाई। उत्तर प्रदेश और मध्य प्रदेश के बुन्देलखण्ड, राजस्थान, कर्नाटक, महाराष्ट्र के दुष्काल में उन्हीं क्षेत्रों में जाकर वहां के समाज के साथ दुष्काल मुक्ति हेतु प्रत्यक्ष काम किया। वर्षाजल व मिट्टी संरक्षण सिखाया। स्वयं भी काम किया। बहुत से युवा और महिलाओं को ऐसा काम करना सिखाया।
बेमौसम वर्षा, बादल फटना, धरती को बुखार और मौसम के मिजाज बिगड़ने से होता है। यही जल शिक्षण सभी को कराने की है। यह बात मुझे अनपढ़ किसानों ने सिखाई है। जब वायु में कार्बन की अधिकता होती है, तो तापक्रम बढ़ता है। जब वायु मिट्टी में जमा होती है या हरियाली में रहती है तब वायुमण्डल में प्राणवायु O2 बढ़ जाती है, तो वातावरण में तापक्रम संतुलित हो जाता है। यही प्रक्रिया जलवायु परिवर्तन में अनुकूलन निर्माण करती है। अब इसे ही समाज को सिखाना होगा। जब समाज यह सब जानता है, तभी वह साझे भविष्य सुधार में संक्रिय होता है। हमारे क्षेत्र के किसानों ने कम पानी खर्च करके कौन फसले उगा सकते है। वही आरम्भ किया क्योंकि पहले उनमें समझ पैदा हुई फिर काम करने की ललक जागी है। समाज को स्वयं की जिम्मेदारी का अहसास ही हकदारी दिलाता है। आज जिम्मेदारी हकदारी का संबंध जोड़ने वाला शिक्षण देने की अत्यंत आवश्यकता है।
सूखते झरने, मरती नदियां, गन्दगी से बीमार गंगा को पुनः स्वास्थ्य करने हेतु, नारे नही, अच्छा वैद्य, चिकित्सक चाहिए। अच्छा सदगुणी, ईमानदार कर्तव्यपूर्ण बेटा ही मां की चिकित्सा कर कराता है। झूँठ बोलकर दिखावा करने वाला बेटा कभी मां की सेवा भी नही करता है, और चिकित्सा भी नही करता है। इसीलिए हम नदियों को माँ कहने वाले बेटे तभी तक गंगा को मां कहते हैं जब वह वोट दिलाती है। जब वह वोट नही दिलाती है, तो हमें उसका स्मरण भी नही आता है।
लोकसभा चुनाव 2014 में गंगा माँ ने वोट दिलाये थे। उनकी सेवा नहीं हुई। उन्हें स्वास्थ्य बनाने का काम भी नहीं किया, तो गंगा का नाम लेने से वोट करने वाले थे। इसलिए उसका नाम ही उ.प्र. चुनाव 2017, लोकसभा 2019 में गंगा को स्मरण ही नही किया गया। गंगा मुद्दा ही नही बना। इन राजनैतिक बातों का शिक्षण भी जल साक्षरता में जरूरी है।जल-साक्षरता जल का सामाजिक, आर्थिक व पर्यावरणीय पहलुओं को समझाना ही है। कम जल खर्च करके अधिक पैदावार कैसे बढ़ाएं ? फसलचक्र और वर्षाचक्र का क्या संबंध है ? नदियों के प्रदूषण, भू-जल शोषण, जल पर अतिक्रमण से हमारी सामाजिक, आर्थिक, राजनैतिक व पर्यावरणीय हानि है। इससे कैसे बचें? हम जल संरचनाओं को अतिक्रमण मुक्त कराने हेतु क्या करें? भू-जल शोषण कैसे रोके? ये मूल सवाल आज पूरी दुनिया के सामने है।
मध्य एशिया और अफ्रीका उक्त तीनों सवालों के कारण बेपानी बनकर उजड़ रहा है। इन्हें पुनर्वास जल का सामुदायिक विकेन्द्रित, प्रबंधन ही कर सकता है। अतः इस दिशा में दुनिया को आज आगे बढ़ने की जरूरत है। विकास के कारण जन्मे अतिक्रमण, प्रदूषण शोषण की चुनौतियां हमारे सामने हैं। इनसे मुक्ति की हमें शिक्षा चाहिए। यह शिक्षा जल साक्षरता आरम्भ होकर ही दुनिया में जलवायु परिवर्तन की चुनौतियों को साकार करके उसका मिटिगेशन और एडेपटेशन कर सकती है।
जलवायु परिवर्तन से बाढ़-सुखाड़ जैसे अनेक संकटों को स्वीकार करके जल साक्षरता से जलवायु परिवर्तन मिटिगेशन और ऐडपटेशन शिक्षण व्यवहार, काम संघर्ष और सत्याग्रह करने की आवश्यकता है। इस दिशा में दुनिया भर की बहुत सी संस्थाएं और समुदाय सक्रीय है। अधिकारोन्मुखी संघर्षशील संस्थाएं है। फेथ में लगी चर्च फेडरेशन है। सभी अलग-अलग टूकड़ों में काम करने वाले दुनियाभर के विश्वविद्यालय है। सभी को मिलकर समग्रता से बदलाव हेतु काम शुरू करना चाहिए। जैसे भारत ने ’जल-जन जोड़ो अभियान’ जन आन्दोलन का राष्ट्रीय समन्वय एकता परिषद जैसे बहुत से लोग मिलकर काम कर रहे हैं। इन्हें एक साथ आकर सामाजिक व पर्यावरणीय न्याय की लड़ाई जलवायु परिवर्तन के दुष्परिणाम से मुक्ति की लड़ाई लड़नी जरूरी है। इसी का शिक्षण आज की सबसे पहली जरूरत है।
पिछले तीन वर्षों में मैंने दुनिया भर में देखा है, कि पर्यावरणीय अन्याय बढ़ रहा है। परिणाम स्वरूप एशिया से पलायन होकर यूरोप के कुछ देश जर्मनी, स्वीडन, फ्रांस, बेल्जियम, नीदरलैण्ड, इटली, यू.के. आदि देशों में एवं टर्की के शिखरों मे शरणार्थी का जीवन जी रहे हैं। यह चलन बहुत तेजी से बढ़ रहा है। इसे नही रोका गया तो तीसरा विश्वयुद्ध होगा। इससे दुनिया को बचाना अब असम्भव तो नही है, लेकिन कठिन जरूर है। दुनिया भर की सरकारें और संगठनों को इस दिशा में लगना चाहिए। मराठवाड़ा, बुन्देलखण्ड, पूर्वांचल, नेपाल, पश्चिम बंगाल के छोटे-छोटे कामों को मैं इसी दृष्टि से देखता हूँ। ये काम पिछड़ों को आगे लायेंगे। अकाल और बाढ़ से लड़ना सिखायेंगे। यही काम जलवायु परिवर्तन मुक्ति और अनुकूलन का भी काम है। इन कामों के प्रत्यक्ष प्रभाव देर से दिखाई देते हैं। केवल भौतिक और आर्थिक प्रभाव तो पहली वर्षा के बाद ही दिखने लगते हैं, लेकिन पर्यावरणीय प्रभाव तो दो-तीन वर्षों में दिखाई देने लगते है।
*लेखक स्टॉकहोल्म वाटर प्राइज से सम्मानित और जलपुरुष के नाम से प्रख्यात पर्यावरणविद हैं। यहां प्रकाशित आलेख उनके निजी विचार हैं।