जल चिंतन – 4
– डॉ. राजेंद्र सिंह*
गत वर्षों के भयंकर अकाल ने एक बार फिर तालाबों की याद दिलाई है। इस पर जगह-जगह कुछ लोगों ने अध्ययन किये हैं। इन अध्ययन-कर्ताओं में श्री वान ओप्पन तथा सुब्बाराव का मानना है कि तालाबों से सिंचित जमीन असिंचित भूमि की अपेक्षा तीन गुनी अधिक उपज देती है। सूखे इलाकों में खास तौर से तालाब की सिंचाई काफी लाभदायक सिद्ध हुई है। इसी प्रकार अब देश के कोने-कोने में तालाबों के महत्व को समझने वाले अनेकों स्वैच्छिक समूह प्रकाश में आये है जो इस ओर काफी चिन्तित हैं, और कुछ न कुछ कर रहे हैं। ये राजस्थान, महाराष्ट्र व कर्नाटक में अब पुनः तालाब निर्माण का कार्य कर रही है।
कुल मिलाकर हमने गत वर्षों में छोटे-बड़े लगभग ग्यारह हजार से ऊपर तालाब जोहड़, छोटे बांध राजस्थान में बनायें या मरम्मत कराये हैं। इनमें कुल दस करोड़ रुपया लगा हैं, लेकिन इनके लाभ देखें जायें तो हमें स्वयं को आश्चर्य होता है। उदाहरण के लिए, वर्ष 1986 में गोपालपुरा गांव के सिंचाई के तथा पीने के पानी वाले कुएं सूख गये थे। गांव के जवान लोग मजदूरी के लिए दिल्ली तथा अहमदाबाद चले गये थे। जमीन में कुछ पैदा नहीं हो रहा था, तभी इस गांव में तालाब के निर्माण का कार्य जारी किया गया और सन् 1987 के जून तक गोपालपुरा गांव में तीन बड़े तालाब बनाये। गांव वाले इन्हें बांध कहते है तथा एक छोटा तालाब बनकर तैयार हो चुके थे। इनके निर्माण कार्य में दस हजार रुपये की कीमत का गेहूं दिया गया। जुलाई 1987 में इस क्षेत्र के अन्दर कुल 13 सेंटीमीटर वर्षा हुई। यह सारी वर्षा एक साथ ही 48 घंटे के अंदर हो चुकी थी। इनके पानी से जमीन ‘‘रिचार्ज’’ यानि पुनः सजल हो गई, और गांव के आस-पास के 20 कुओं में जलस्तर ऊपर आ गया। बेकार-बंजर जमीन पर 100 एकड़ खेती होने लगी।वर्षा का पानी जो तालाबों में इकठ्ठा हुआ था, वह अपने साथ जंगल व पहाड़ियों से पत्ते, गोबर आदि भी बहाकर ले आया था, जो तालाबों की तली में बैठ गया। बड़े तालाब खेतों की जमीन पर बने हुए थे। इसलिए नवम्बर तक पहुंचते-पहुंचते तालाबों का पानी तो नीचे की जमीन की सिंचाई करने के काम में ले लिया गया और तालाब के पेटे की जमीन में गेहूं की फसल बो दी। एक फसल में केवल इन तालाबों की जमीन से ही 300 (तीन सौ क्विंटल अनाज पैदा हुआ जिसकी कीमत बाजार भाव से करीब पौन लाख होती है। इसके अलावा तालाब में पूरे वर्ष पानी भरा रहा। इसे पशुओं के पीने के पानी के लिए बनाया गया था। इस प्रकार गांव के पशुओं को पूरे वर्ष पीने का पानी सहज उपलब्ध होता रहा। गांव का पीने का पानी वाला कुआं जो सूख गया था वह अब पानी भरा रहता है। कुओं का जल स्तर अब 90 फीट नीचे से उठकर 20 फीट तक पहुंच गया है।
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तालाबों के चारों तरफ हरी घास उगने लगी है। पेड़ हरे-भरे होकर तेजी से बढ़ने लगे है। तालाबों का पानी जंगली पशुओं तथा पक्षियों को अपनी तरफ आकर्षित करता है, जिसमें एक उजड़े हुए गांव का वातावरण सुहावना बन गया है। पक्षियों द्वारा फसल को नुकसान पहुंचाने वाले कीड़े खाये जाने तथा पक्षियों की बीट से जमीन के पानी के उपयोग की व्यवस्था फिर से सामुदायिक भावना और परस्पर सहयोग का वातावरण बन रहा है। पीने का पानी लेने के लिए पहले दूर जाना पड़ता था, जिसमें गांव की महिलाओं की बहुत सी समय शक्ति नष्ट होती थी। यह परेशानी अब खत्म हुई है। इसी तरह हर वर्ष गांव से मजदूरी करने लोगों को बाहर जाना पड़ता था, पर अब इन्हें गांव में ही काफी काम मिलने लगा है। नीमी जैसे कई गांव जिनमें पहले मजदूरी करने जयपुर जाते थे। अब ये जयपुर के सेठों को रोजगार देने वाले बन गये है। शेठों के ट्रक इन गांवों की सब्जियां शहरों में ढोने का काम करते है। इस प्रकार इन तालाबों के कारण अनेक लाभ हुए हैं।
यह क्षेत्र पहाड़ की तलहटी में और ढालू होने के कारण तेज वर्षा के पानी जमीन को काटकर बहां ले जाता था। जमीन का उपजाऊपन वर्षा के पानी के साथ बाहर चला जाता था, इसलिए जमीन में नमी की कमी रहती थी, तथा फसल का बीज ही क्या घास तक नहीं उगती थी। वहां वर्षा कम होती है, और जो होती है, वह भी एक साथ और तेज होती है, फिर पूरा साल सूखा पड़ता रहता है। इसलिए इस क्षेत्र में तालाब अत्यन्त आवश्यक एवं खास तौर से उपयोगी है। तालाबों से अब भूमि का कटाव भी रूक गया है।
इसी प्रकार किशोरी गांव में एक ‘‘चेक डैम’’ बना है, जिसे बड़ा तालाब कह सकते है। यह भी जुलाई 1987 में पूरा तैयार हो चुका था। इसके निर्माण में कुल लागत पचास हजार रुपये) आई, जिसमें आधी लागत ग्राम के श्रमदान से जुटाई गई। इस तालाब के भराव क्षेत्र में ही 250 क्विंटल अनाज पैदा हुआ। यह तालाब एक ऐसी तेज धारा को रोकता है, जिसने गत वर्षों में एक सौ एकड़ से अधिक भूमि को बंजर (खेती के आयोग्य) बना दिया था। जमीन में बड़े-बड़े नाले व खड्डे हो गये थे। वह जमीन स्वतः ही समतल होने लगी है। अब वह खेती योग्य हो गई है। कहा जा सकता है कि इस तालाब ने पूरी एक सौ बीघा जमीन खेती के योग्य बना दी है। कुओं का जलस्तर ऊपर आ गया है। इस तालाब में रूकने वाला पानी जो पहले नीचे जाता जिस सैकड़ों बीघा भूमि को बिगाड़ता था, वह बिगाडा भी अब रूक गया है। तालाबों से एक लाख की लागत से एक हैक्टयर भूमि पर सुक्षक खेती हो सकती है। बड़े बांध द्वारा सम्भव नहीं है। यह खर्च भी गरीबों को नहीं मिलता। बड़ी कम्पनियां ही इस धन को डकारती हैं। किसानी और सिंचाई का सारा पैसा किसानों का बजट बड़ी कम्पनियां खाती हैं।
चम्बल का प्रत्यक्ष अनुभव
चम्बल के गांवों में जो साथी बन्दूक लेकर फिरते थे। अब इन्होंने बन्दूक छोड़कर फावड़े से तालाब बनाने शुरू किये, तो इनके काम से करौली जिले की सपोटरा तहसील के गांवों के जीवन में सुख समृद्धि शांति आ गई। डकैत कहलाने वाले भाई सज्जन-किसान और देवता बन गये। अब इनकी महेश्वरा नदी शुद्ध-सदानीरा बनकर बहने लगी। खिजुरा गांव बहुतों को दूध-अनाज देने वाला बना गया है। इन्होंने हजारों को अपने गांव में बुलाकर कुंभ किया। बेपानी से पानीदार बन गये। अब तक 10853 वर्ग किमी क्षेत्रफल में बारह सौ गांवों ने अपने हाथों से ग्यारह हजार से ज्यादा तालाब बनाकर राजस्थान में छोटी-छोटी नदी अरवरी, सरसा, रूपारेल, भगाणी, जहाजवाली, साबी, सैरनी, महेश्वरा व महाराष्ट्र में महाकाली व अग्रणी नदियां पुनर्जीवित हो गई। अब भूजल का स्तर ऊपर आकर नदियों को सदानीरा बना रहा है। बढ़ते ताप और बिगड़ते मौसम के मिजाज को भी तालाबों की नमी हरियाली ठीक करती है। वातावरण के कार्बन को पेड़ अपने पत्तों, तनों और जड़ों में जमाकर लेते है। अतः तालाब जैसा छोटा स्थानीय काम वैश्विक समस्या बिगड़ते मौसम के मिजाज और धधकते ब्रहामाण्ड को सन्तुलित करने का उपचार तालाब है।
आर्थिक लाभ के साथ-साथ आनन्दानुभूति
हमने अब तक जो ग्यारह हजार तालाब बनाये है, उनके अनुभव पर से हम पूरे अधिकार के साथ कह सकते है कि किसी भी तालाब के निर्माण में जितनी रकम खर्च होती है, उसकी पूर्ति, यदि सामान्य वर्षा हो जाये, तो एक वर्ष में हो जाती है। हम आंकडो की भाषा नहीं जानते, लेकिन इस काम में लगे श्रम से अधिक आर्थिक लाभ के साथ-साथ गांव की एकता का सुखी आनन्दमय वातावरण तथा बे-सहारा पशु-पक्षियों को तालाब पर किलोलें करते देखकर मन बाग-बाग हो जाता है। इस आनन्दानुभूति के कारण आगे से और हजारों से लाखों तालाबों के निर्माण की शक्ति हममें आ गई है। अमेरिका के साथी पैट्रिक मेकौली ने हमारे तालाबों का अध्ययन करके लिखा है तालाब में हजार लीटर पानी पकड़ने में तीन रुपये खर्च हुआ है। बड़े बांधों में इस पानी को पकड़कर उपयोग कर्ता तक पहुंचाने मे तीन सौ से अधिक खर्च होता है। अतः तालाबों में पानी पकड़कर उपयोग करना ही सबसे सस्ता और स्थाई सनातन उपाय है।तालाब व्यवस्था आज के अभिजात वर्ग की आंख में किरकरी!
इस भौतिक और भावनात्मक लाभ के साथ-साथ इस काम ने आज की शोषणकारी और विकृत व्यवस्था का नंगा चित्र भी सामने ला दिया है। दरअसल राजनेताओं को गांववासियों की बन रही शक्ति पता नहीं क्यां नहीं सुहाती है ? प्रशासनिक अधिकारियों तथा तकनीकी लोगों को तो गांव वासियों की शक्ति और परम्परागत स्वावलम्बन की पद्धति अखरती ही रही है। जब ये तालाब बनने आरम्भ हुए थे, तो एक बार राजस्थान सरकार के सिंचाई विभाग के अधीक्षक अभियन्ता से इन्हें अवैध कहकर तोड़ने का नोटिस दिया था। जिलाधीश ने भी इस बात की पैरवी की थी। इन्हें तोड़ने के लिए राज्य-सचिवालय में काफी सरगर्मी रही, पर गांव वालों के डटे रहने के कारण फिर जांच हुई और छः माह बाद विकास आयुक्त का पत्र आया कि यह अच्छा कार्य है, इसमें सरकार को सहयोग करना चाहिए। उपमुख्यमंत्री, सिंचाई ने कहा राजेन्द्र सिंह ने राजस्थान सरकार का पानी रोका है। यह हमारी जेल में रहेगा। मुझे जेल तो नहीं भेज सके।
देखने और समझने में आया है कि जब सरकार को मजबूरी हो जाती है, तो जिस काम को पहले बुरा, अहितकर, यहां तक की कभी-कभी ‘देशद्रोही’ बतलाया गया हो वह भी उपयोगी बन जाता है। ठीक यही इस तालाब-प्रकरण में हुआ। जब मुख्यमंत्री को यह बात मालूम हुई कि तालाब लोगों ने मिलकर बनाये हैं और तालाब तोड़े गये तो तालाब टूटने से पहले वहां के लोग मरने को तैयार हैं, तो ये ‘अवैध’ तालाब वैध होने के साथ-साथ बहुत अच्छे हो गये। इस अच्छे कार्य में सरकार का सहयोग प्राप्त करने की सलाह भी हमें साथ में मिली। संयुक्त राष्ट्रसंघ जिन जोहड़ों को नारू रोग का जनक मानकर जोहड़ों को पूरा करने की सलाह दे चूका था उन्हें ही जोहड़ नाम से ‘बेस्ट प्रैक्टिस ’ कहना शुरू किया है। सवाल यह उठता है, कि आज हर अच्छे रचनात्मक काम के लिए पहले संघर्ष क्यों करना पड़ता है? अच्छा करने हेतु हमेशा शिक्षण, रचना, संघठन और सत्याग्रह क्योंकरना पड़ता है ?
क्या हम आशा करें?
बड़े बांध और नहरों से होने वाली सिंचाई का खर्च चालीस हजार रुपये प्रति हेक्टेयर पहुंच गया है। इसके अलावा तवा, नर्मदा, भांखडा आदि से निकलने वाली नहरों का दुष्परिणाम भी लोगों ने देख लिया है। इसे समझकर जगह-जगह इन बांधों का विरोध भी हो रहा है। विरोध करने वाले छोटे बांध या सिंचाई के तालाबों की बात भी सुझा रहे हैं। आशा है जब हमारे योजनाकार ही इस बात को मान जायेंगे और तालाब बनाने को अच्छा काम कहेंगे, तथा जो पैसा अभी बड़े बांधों पर खर्च हो रहा है उससे बहुत कम खर्च में तालाबों के जरिए उतना ही काम करने की संस्तुति करेंगे। लेकिन वह दिन तभी आयेगा जबकि हम सरकार की कोई मजबूरी बनेंगे। अब हमें बड़े बांधों पर रोक लगाने के लिए सरकार की मजबूरी ही खोजनी पड़ेगी। तभी तालाबों को भी संरक्षण मिलेगा। महाराष्ट्र के मुख्यमंत्री ने बड़े बांधों का काम रोककर जलयुक्त शिवार शुरू किया है। लेकिन इसमें भी ठेकेदार पहुंचकर बिगाड़ कर रहे हैं। अन्यथा यह सर्वोत्तम योजना थी। अभी सरकार पुनः अच्छी कोशिश शुरू कर रही है। यहां की सरकार ने जल साक्षरता आरम्भ करके जलयुद्ध को शांति में बदलने का प्रयास है।
तेन व्यक्तेन भुञजीथाः
‘यह सारी सृष्टि मेरे लिए बनी है, मैं जितना और जिस प्रकार चाहूं उसके उपयोग का मेरा अधिकार है’ – यह गलत धारणा ही आज की कई आर्थिक समस्याओं की जड़ में है। वास्तव में सृष्टि मनुष्य के लिए नहीं है, सृष्टि का अपना स्वतंत्र प्रयोजन है। मनुष्य उसका एक अंग है, अतः सृष्टि का आदर करके जीना है।
कुल मिलाकर सारी सृष्टि एक है, उसके विभिन्न अंश परस्पर संबंधित ही नहीं परस्पर अवलम्बित है। सृष्टि ‘मेरे लिये’ नहीं है। वास्तव में वह ‘किसी के लिये’ नहीं है। सब मिलकर सबके लिए है। इसलिए मनुष्य को प्रकृति से उतना ही लेना चाहिए जितना उसकी जीवन-धारणा के लिए आवश्यक हो। और ‘जो लिया जाये वह भी सेवा करके, त्याग करके, बदले में अपनी ओर से कुछ न कुछ करके अर्थात यज्ञ करके भारत में प्रकृति को यज्ञ द्वारा देकर ही लेने की परम्परा थी। यह उपनिषद में निम्नवत कहा गया है:
ईशावास्यमिद्म सर्वभ् यत्किच जगत्यां जगत।
तेन व्यक्तेन भुञजीथाः मागुधः कस्यस्विद्धनम्।।
जितना हम अपने जीवन में जल उपयोग करे उतना ही हम अपने श्रम से पसीना बहाकर, तालाब बनाकर, प्रकृति के कार्य में सहयोग देवें। जितना लें उतना ही, वैसा ही प्रकृति को तालाब बनाकर हम लौटाते है। इसलिए तालाबों की परंपरा समयसिद्ध और आज भी खरी है। जहां समाज लगता है। तालाब बनाकर अपने को पानीदार बना लेता है। तालाब तोड़ने वालों का सामना करके भी अपने तालाब बचा लेता है।
हमारे तालाब दुनिया के सबसे बड़े बांध है। आज से बने बड़े बांधों से हज़ारों-लाखों बेघर होते है। हजारों तालाब बेघरों को घर-बार, पेड़-पौधें, रोटी-पानी देकर आबाद बनाते है। बाढ-सुखाड़ रोकते है। मौसम का मिजाज सुधारते है। ब्रह्माण्ड का ताप सन्तुलित बनाते है।
भारत का किसान जब तक खेती को संस्कृति मानकर जल व मिट्टी का संरक्षण करता रहा तभी तक उसकी स्थायी यह समृद्धि बिना धरती को बिगाड़े स्थायी समृद्धि के रास्ते पर आगे बढ़ता रहा था। तभी तक भारत का किसान दुनिया को सिखाने वाला प्राकृतिक उत्पादन कर्ता था। आज किसान को अपने उस मूल ज्ञान की तरफ पुनः देखने व दिशा में काम करने की जरूरत है।
किसानी का सम्मान नहीं है। इसलिए किसानी, पानी जवानी सभी अपनी जगह छोड़कर पलायन कर रहे है। लाचारी, बेकारी, बीमारी का पलायन रोकने वाली जल साक्षरता और प्राकृतिक प्रेम और सम्मान को बढ़ानेवाली दृष्टि और दर्शन की जरूरत है। यह हमें विश्व शांति हेतु करना है। यही रास्ता जलवायु परिवर्तन अनुकूलन कहलाता है।
राजस्थान के जल संरक्षण व वर्षा-चक्र को फसल-चक्र के साथ जोड़ दिया। गांवों से उजड़े लोग पुनः आकर खेती करने लगे। हरियाली बढ़ी, वर्षा-चक्र बदला, कम जल खपत वाली खेती बढ़ी। कम जल में अधिक पैदा का चलन बढ़ा। आय बढ़ी। समझ भी बढ़ी। प्रकृति प्रेम विश्वास बढ़ने से शांति कायम हुई। यही भारतीयता है। यह सनातन और स्थाई समृद्धि है। अब हमें इसी रास्ते पर चलना है।
*लेखक स्टॉकहोल्म वाटर प्राइज से सम्मानित और जलपुरुष के नाम से प्रख्यात पर्यावरणविद हैं। यहां प्रकाशित आलेख उनके निजी विचार हैं।