– डॉ. राजेन्द्र सिंह*
सरकारें सभी जगह जल संरक्षण में जन भागीदारी की बातें करती रहती हैं। जल बचाने में समाज श्रम करें। सरकार अपनी जलसत्ता चलाएँ, सरकारी अधिकारी, राज नेता सभी राज्यों में निरापद रूप से जल कार्यों में जन भागीदारी का आवाहृन करते हैं। उनके बुलावे पर लोग पहुंच भी जाते हैं। अधिकारी, व्यापारी , नेता और इंजीनियर सभी मिलकर अपने निर्णय समाज पर थोपते ही रहते हैं। जहाँ समाज इन्हें झेलता हुआ दिखता है, वहाँ कहने को सरकारी भागीदारी हो जाती है।
समाज का मतलब क्या निकला? यह सरकार भी भूल जाती है। समाज भी जानता है कि नेता को वोट, अधिकारी को नोट, व्यापारी को व्यापार, समाज को पानी की जरूरत है। इसलिए आज सभी को जल उपलब्धि के नाम पर जो भी योजनाएं पारित होकर धरती तक पहुँचती हैं, तब तक सब ही पक्ष अपना हिस्सा तय कर लेते हैं। जिनको पानी मिलता है, वे सब बेखबर ही रहते हैं, इसलिए आज पानी के विवाद जन्म ले रहे हैं। जल विवाद ने गांव से लोगों को विस्थापित कर दिया है। गांवों का जल शहरों के लिए और बेपानी गांव उजड़कर शहर जाने लगे हैं।
बेखबर समाज जहाँ कहीं अपनी समझ-शक्ति और निर्णय से अपनी जरूरत पूरी करने लगता है, तो उस पर नेता, अधिकारी और व्यापारी का त्रिगुट हमला बोल देता है।
मैं पिछले कई वर्षों से इन्हीं हमलों को झेलता आ रहा हूँ। मेवात क्षेत्र में सबसे पहले न्याणा गांववासियों ने अपना जल सहेजा तो यहाँ जो नेता और अधिकारियों ने मिलकर उन्हें फँसाने की कोशिश की थी। वह बहुत ही दुखद है। फिर भी ग्रामीण समाज ने संगठित होकर अपने न्याणागांव को पानीदार बना दिया। इसी प्रकार सरकारी बाधाओं को पार करके बारह सौ गांवों को असरकारी प्रयास से पानीदार बन गए। सरकार तो जन भागीदारी की बस दुहाई ही देती रही है।
1986 गोपालपुरा में पहला जोहड़ बनकर तैयार हुआ, सिंचाई विभाग ने सिंचाई व निकासी अधिनियम 1954 के तहत केस बनाया। जोहड़ को तोड़ने का नोटिस दिया। अदालती कार्यवाही शुरू कर दी। 1988 में भी इसी गाँव के गोचर की नंगी गैर-मुमकिन पहाड़ियों पर समाज ने मिलकर वृक्षारोपण कर दिया, तो राजस्व विभाग से 5,960 रुपए का दंड तरूण भारत संघ पर थोप दिया। जल-जंगल बचाने का काम तो इस डर से हमनें तो नहीं रोका। गाँव में तनाव पैदा हुआ। समाज के जल संरक्षण वाले काम में बहुत सी रूकावटें आईं। लेकिन सतत् प्रयास से बढ़ते चले गए। आज समाज ने तरूण भारत संघ की मदद से 11800 से अधिक जोहड़, चैक-डैम, तालाब आदि बनाएँ है। अभी सतत् काम जारी है। सरिस्का के जंगल में भी बहुत सी जल संरक्षण संरचनाओं का निर्माण हुआ। इसका जंगली जीवों, जंगल और जंगल वासियों को बहुत लाभ हुआ। इसी जंगल के किनारे लावा का बास प्यासा गाँव था।
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सरिस्का के जंगली जीव भी जंगल से निकलकर थानागाजी व लावा का बास गाँव तक प्यासे पहुँचते थे। लावा का बास ग्रामीणों ने अपनी प्यास मिटाने वास्ते लावा का बास का जोहड़ बनाया। इसे शुरू कराने में नेता-अधिकारी सब शामिल करके देखें। तहसीलदार ने इसकी शुरुआत की थी। विधायक भी मौजूद रहे। सिंचाई विभाग के अधिकारी बुलाए लेकिन यहाँ सिंचाई विभाग से कोई नहीं आया। सिंचाई विभाग ने यहाँ अलग तरह से लड़ाई शुरू करवाई। और कहा कि ‘‘यह बाँध रूपारेल नदी को रोकता है।’’ मेरे खिलाफ सिचाईं जल निकासी अधिनियम 1954 के तहत धारा 55 व 58 लगाकर मुकदमा दायर किया गया था।
लावा का बास को पानी की जरूरत थी। उनके खेतों पर बरसने वाले पानी को रोकने हेतु उन्होंने जोहड़ बनाने की जगह तय करके जोहड़ बनाना शुरू कर दिया। इसे सिचाईं विभाग ने बीच में ही रोक दिया। वर्ष 2003 में सिंचाई विभाग ने इसके ऊपर की तरफ और बहुत से जोहड़, बांध बना दिए। अतिवृष्टि में सरकार के उक्त सभी जोहड़ टूटकर एकदम से इसमें उनका पानी आया और उससे लावा का बास जोहड़ भी टूट गया। फिर एक-दूसरे विधायक ने मेरे विरूद्ध एफआईआर दायर करने की अपील अखबार में छपवाई।अखबारों ने भी विधायक और सिंचाई विभाग की बातें पहले पेज पर छापकर जितनी बदनामी कर सकते थे, वह सब बदनामी कर दी। बांध सरकार के टूटे, बदनामी समाज और किसी दूसरे की। यह सब सरकारी इंजीनियर, अधिकारी, नेताओं की मंशा समझ में आती हैं।
सिंचाई विभाग और सरकार तो केवल लोगों को डराकर नाममात्र जन सहभागिता चाहती है। समुदाय केवल नामी सहभागिता नहीं, वास्तविक सहभागिता करानेवाले हैं। उन्हीं को सरकार सजा देती हैं। समाज को अपना काम स्वयं कराके उनका आत्मविश्वास और आत्मगौरव बढ़ानेवालों को दबाना ही आज के नेताओं ने अपना लक्ष्य बना लिया है। बुनियादी काम समाज को खड़ा करता हैं। और सरकारी परियोजनाओं वाले काम समाज को दबाते हैं। कामचोर बनाते हैं। इनका अंतर सबको दिखता है।
*लेखक जलपुरुष के नाम से विख्यात पर्यावरणविद हैं। प्रस्तुत लेख उनके निजी विचार हैं।