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रविवार पर विशेष
रमेश चंद शर्मा*
बचपन में पंजाब (हरियाणा) का गांव। सड़क नहीं, बिजली नहीं, अखबार नहीं, डाकघर नहीं, स्कूल का भवन नहीं, नल नहीं, बाजार नहीं, अस्पताल नहीं, पुलिस थाना नहीं, फोन नहीं, टीवी नहीं, रेडियो नहीं, मोटर वाहन नहीं, ट्रक नहीं, ट्रक्टर नहीं, मोटरसाइकिल नहीं।
गीने चुनें पक्के मकान, बहुत कम सींचित जमीन, बरसाती खेती, पशुधन घर घर में, कपड़े, चप्पल-जूते, बढ़ई का काम, दर्जी, अलग-अलग तरह के कारीगर, हस्तकला गांव में, मिट्टी के बर्तन पड़ोसी गांव में। बाजार, डॉक्टर, अस्पताल, डाकघर, थाना, फोन, रेल, सड़क, सिनेमा हॉल, बिजली, अखबार पांच कोश दूर जाने पर नजर आते, जो शहर कहलाता है।
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गांव से बाहर गए लोगों के समाचार के लिए डाकिया का इंतजार। कुछ नया समाचार जानने के लिए शहर से आने वाले का इंतजार। समाचार एक से दूसरे के द्वारा फैलता। समाचार बताने, जानने की उत्कृष्टता दोनों ओर रहती।
भूले बिसरे कभी कोई फेरी वाला आता। गांव में रौनक सी हो जाती। बारह मन की धोबन बाईस्कोप भी आता था। अनाज देकर देखना होता। लेन-देन अधिकतरअनाज से ही होता। माली, सब्जी वाला, चूड़ियों वाला, बर्फ वाला, चुस्की वाला, नट, सपेरा, जादूगर, सींगी लगाने वाला, हींग मसाले वाला, मीठी-मीठी गोलियां बेचने वाला ऐसे कभी कभी कोई भूला भटका फेरी वाले की आवाज सुनाई देती।
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शादी विवाह, दावत आदि की तैयारी कई माह, दिन पहले शुरू हो जाती। यह पूरे मौहल्ले के लिए हलचल, उत्सव का माहौल रहता। सभी का सहयोग, सभी की खुशी, उत्सुकता, जोश देखने लायक रहता। सभी की निगाहें उस परिवार, कुनबे पर टिकी रहती। सामूहिकता के दर्शन कदम कदम पर होते। कहे कि बिना साथ कुछ नहीं होता। फसल काटना हो, सामान लाना हो, कुछ कूटना पीसना हो, साफ करना हो, बनाना हो, मिलकर होता। छोटी-छोटी बातों पर रुठना मनाना, हंसना हंसाना, रोना रुलाना भी चलता रहता। बच्चों के लिए तो हर बात बड़ी होती। बिना बुलाए पहुंच जाना अपना अधिकार मानना। भगाने, दुत्कारने, मना करने पर पर भी वहां छुप छुपा कर पहुंचने का प्रयास। काम में हाथ बटाने की चाहत, जोश या कहे कि हर जगह अपनी उपस्थिति दर्ज कराना, या टांगें फंसाने की कोशिश सहज या मजे मजे में करना। रौनक ही कुछ और होती। हर बात में खुशी उत्साह आनंद की अनुभूति, तलाश।
गांव में कुछ पक्के, कुछ कच्चे-पक्के, कुछ मिट्टी के कच्चे, कुछ झौपड़ी। छोटे-बड़े घर। विद्यालय छोटे गांव की धर्मशाला में चलता। बचपन में जिन्होंने हमें पढ़ाया मास्टर साहब राव श्री बंशी सिंह, जो बाद में ठेकेदार बने और हरियाणा सरकार में मंत्री भी। हमारे समय में गांव में अध्यापक तो कई थे मगर वे पढ़ाने के लिए गांव से बाहर दूर विद्यालयों में तैनात थे। हमारे बचपन में ही गांव में विद्यालय का भवन बना दोनों गांव के मध्य। दो बड़े कमरे, दो छोटे कमरे, बरामदा उसके सामने खाली स्थान जो चार दीवारी से घीरा हुआ। विद्यालय के सामने बड़ा सा मैदान तथा तीन ओर खेत। थोड़ी दूर पर गूनवाला कुआं जहां से विद्यालय की पानी की आवश्यकता पूरी होती। पानी संग्रह के लिए मुख्य द्वार के पास चार दीवारी पर एक टंकी बनी हुई थी। जिसमें नल लगा हुआ था। बरामदे में शिक्षकों के लिए मटके में पानी रहता, जिस पर शीशे का गिलास भी रहता।
ज्यादातर छात्र कुछ गिनी-चुनी छात्रा अपने बैठने के लिए अपना साधन लेकर आते जिसमें टाट की बोरी, कट्टा, कपड़ा आदि। बाद में बैठने के लिए टाट पट्टी की व्यवस्था विद्यालय की ओर से ही हो गई। जो बच्चे पहले पहुंचते वे कक्षा में सबके लिए टाट पट्टी बिछाने, कुएं से पानी लाने, सफाई व्यवस्था को संभालने के काम में लग जाते। छुट्टी होने पर टाट पट्टी व्यवस्थित ढंग से लपेट कर रखना भी बच्चों का काम रहता।
हर बच्चा अपने साथ एक बर्तन लेकर आता दूध पीने के लिए। हर बच्चे को जो विद्यालय आता उसे दूध दिया जाता। कुछ बच्चे दूध में मिलाने के लिए मीठा अपने घर से लेकर आते। यह दूध पाउडर से बनाया जाता था। पाउडर के डिब्बे मुख्याध्यापक की देखरेख में रहते। यह दूध विदेश से आता था।
दूध उबालने, गर्म करने के लिए ईटों से चुल्हा बनाया गया। लोहे की बड़ी कढ़ाई में दूध गर्म करने से पहले बाल्टी में गाढ़ा गाढ़ा हाथ से घोला जाता। ध्यान रखना होता कि पाउडर अच्छी तरह घुल जाए, किनकी ना रहे। दूध पाउडर घोलने के बाद कढ़ाई में गर्म हो रहे पानी में इसे मिला दिया जाता। उबलने पर पंक्तिबद्ध होकर दूध बंटता। हरेक बच्चे का मन करता कि दूध बनाने में उसका नाम आए। इसके लिए एक लोभ यह रहता कि नजर बचाकर थोड़ा सूखा पाउडर चखने का मौका लग जाए। कुछ तेज तर्रार बच्चे मौका पाकर थोड़ा पाउडर छुपाने का प्रयास भी करते। वर्षा होने, जलावन के अभाव में या कोई विशेष कारण हो जाता तो सबको थोड़ा थोड़ा पाउडर ही दे दिया जाता कि घर जाकर बनाकर पी लेना। यह पाउडर खाने में मीठा लगता। कभी फांकी लेने पर मुंह, दांतों में कुछ देर तक चिपक जाता। कुछ चहेते बच्चों को थोड़ा सा ज्यादा पाउडर मिल जाता। यह बांटने वाले पर आधारित रहता।
प्रार्थना-राष्ट्रीय गान के बाद पढ़ाई-लिखाई प्रारंभ होती। हरेक के पास पत्थर की स्लेट, किसी किसी के पास हल्की फुल्की लोहे वाली होती। इस पर लिखने के लिए पेम रहती। साथ ही लकड़ी की तख्ती, स्याही की दवात, कलम तो सबके पास रहती। इसमें भी किसी किसी के पास काली, नीली और लाल स्याही की अलग अलग दवातें होती। दवातों को सुरक्षित रखने के लिए लकड़ी के खांचे जिनके पास होते, उनकी बात ही अलग होती। इसमें कई तरह की कलाकारी, बेल-बूटे इसकी और अधिक शोभा बढ़ाते। कलमदान रखना तो बहुत ही बड़ी बात थी। तख्ती पर लिखने के लिए सरकण्डे की कलम। थैले में कायदा, किताब। कलम की अच्छी नोंक बनाना सबके बस की बात नहीं थी।
अनेक बार चेहरे देखने लायक बन जाते जब शरीर एवं कपड़ों पर स्याही के निशान अपनी छटा बिखेरते नजर आते।
गिनती-पहाड़े सभी छात्रों को एक साथ मिलकर जोर जोर से बोलने पड़ते जिसकी आवाज दूर दूर तक सुनाई देती।
सजा मिलना पढ़ाई-लिखाई का अभिन्न अंग था। डंडे लगना, मुर्गा बनना, एक टांग पर खड़े रहना, हाथ ऊपर करके खड़े रहना, गर्मी में धूप में खड़ा होना, खूंटी पर लटकना, कान ऐंठना, अंगूलियों के बीच में पेंसिल रखकर दबाना, थप्पड़, तमाचे, घूंसा-धौल लगना तो बहुत ही सामान्य सी बात थी। इसे कोई क्या याद रखे।
अपना विद्यालय में पहला दिन गजब का चौंकाने वाला रहा। बड़ी खुशी, जोश, उत्साह, अक्कड़ में अपन बताशे लेकर पहुंचे। गुरुजनों को प्रणाम किया। मगर अपने बाबा का बयान सुनकर अपनी सीट्टी पीट्टी गुम हो गई। सारा उत्साह जोश ठंडा पड़ गया। सोचा कहां फंस गया मुसीबत में। जब बाबा जी ने फ़रमाया कि मास्टरजी इसका नाम लिख लो। इसकी चमड़ी आपकी और हड्डियां हमारी है। बुरे फंसे, अब यहां से भागना भी आसान नहीं। क्या होगा। पीटाई तो अपन ने भी खाई मगर पढ़ाई-लिखाई में कम, शरारतों में ज्यादा। हर तरह की सजा का अनुभव अपने पास है। ऐसा तो संभव ही नहीं था कि पढ़ने गए हो और मार नहीं लगी, सजा नहीं मिली। कम ज्यादा की बात अलग है। किसी न किसी बहाने से सजा तो मिल ही जाती थी। कभी कभी तो करता कोई और सजा किसी और को ही मिल जाती।
शरारतें या बचपना
शरारतें भी तरह तरह की दिमाग में आती थी। शरारतें करने पर अगर सजा भी तरह-तरह की मिलती। विद्यालय और घर में दोनों जगह मुक्त हस्त से।
घर पर बाबा अपनी विशेष ढाल बन जाते। उनके सामने किसी की क्या चलती, परिवार के सबसे बड़े जो ठहरे। उनके पोते पोतियां तो कई थे, अपने से बड़े भी-छोटे भी दोनों, मगर बाबा के रामेश्वर को कोई क्या कह सकता था। अपनी नई नई शरारतें जारी रहती। नाम रमेश सभी रमेशिया कहकर बुलाते लेकिन बाबा के तो अपन रामेश्वर ही रहे अंत तक।
एक शरारत जो बार बार दोहराई गई, जिससे मौहल्ले, आस-पड़ोस के लोग दुःखी रहते। दूध देने वाले पशुओं के बच्चों को दूध पिलाने के लिए अपन कुछ साथी मिलकर उनकी रस्सी, जेवडी या जेवडा खूंटे से खोलकर। उनको दूध पीते देखकर अति आनंदित होते। यह आनंद डांट-डपट, मारपीट, सजा से कहीं ज्यादा सुखदाई लगता। रस्सी खोलते समय सजा का ध्यान ही नहीं रहता। उस समय तो परोपकार का भूत सर पर सवार रहता। दूध पीते बछड़े, बछिया को देख कर मजा आता। कभी कभी दो चार धार अपने मुंह में भी लगा लेते। धारोष्ण दूध का अपना ही आनंद, स्वाद है। बाबा की ढाल ने ऐसी शरारतें रुकने नहीं दी। इनसे मां को सबसे ज्यादा ताने सुनने पड़ते। मां दुःखी होती, नाराज होती, सजा देती, गुस्सा होकर बाबा को संबोधित करते हुए मेरे बारे में कहती कि इसे सर पर चढ़ाकर रखा है, आपके लाड प्यार ने इसे बिगाड़ दिया है। रोज रोज की शरारतें, ताने सुनकर मैं तो दुःखी हो गई हूं। अपन जाकर बाबा की गोद में छुप जाते। बाबा को सीधे शिकायत करने कोई आता नहीं। कई बार खाना बंद होता तो बाबा की छत्र छाया में भोजन-पानी की व्यवस्था पूरी होती। सोना तो ज्यादातर बाबा के पास ही होता। बाबा का विशेष लाड़ला बनने का बड़ा लाभ मिला। सीखने को भी बहुत कुछ मिला।
विद्यालय साक्षरता का ज्ञान करवाता है, पढ़ना लिखना अवश्य सीखाता है। असली शिक्षा, ज्ञान तो गांव की जीवनशैली, आस-पड़ोस, प्रकृति, जल जंगल जमीन से ही प्राप्त होती है।
मिट्टी की सौंधी महक खुशबू, सूरज की तपती धूप, ज्येष्ठ की भंयकर गर्मी में पेड़ों की सुकून देती छांव, जल की बूंदें, सावन भादो की बौछार, वर्षा से नहाती हरियाली, शरद शिशिर का आनंद, कड़कती ठंड में पड़ता पाला, जमता पानी, शरीर को अंदर तक कंपकंपा देने वाली सर्दी, पतझड़, हेमंत, बसंत ऋतु की अंगड़ाई, मदमदाता मौसम, बदलती ऋतुओं का कमाल, आकाशगंगा की अनंत गहराई, खुलापन, नभ में चमकते चांद सितारे, क्षितिज में बदलते रंग, खेत में बिखरते बीज, फूटते अंकुर, बनते पौधे, खिलखिलाती, लहलहाती फसलों पर पड़ते दाने, पकती फसलें, कटती फसलें, किसानों की ऊर्जा, उत्साह, आशा, उल्हास के दृश्य, उत्सवों का जोश, समारोह आयोजन की सामूहिकता, साझापन से उठते कदम, पशु-पक्षियों का साथ, झंगूर की झंकार, पक्षियों का कलरव, नाचते मोर सीखने, समझने-बूझने, जानने के साथ साथ ज्ञान के सही चक्षु खोलते हुए, जीवन का सच्चा सुख प्रदान करते हैं।
यही तो सही, सच्ची, उपयोगी, सार्थक काम आने वाली शिक्षा का सुंदर स्वरुप है। जिसे त्याग कर, भूलाकर, हम सब मैकाले शिक्षा पद्धति के मकड़जाल में फंसते चले गए। पश्चिमी आकर्षण में उलझकर, विकास के नाम पर कहां से कहां पहुंच गए।
*लेखक प्रख्यात गाँधी साधक हैं।
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