रविवार पर विशेष
नारनौल और आस पास
-रमेश चंद शर्मा*
नारनौल में बीरबल का छत्ता है, जो खंडहर बना हुआ है। इसके कारण इसे बीरबल का शहर मानते है। पुरानी मंडी, नई मंडी, बाज़ार, बहादुर सिंह का तालाब, शोभा सागर, एक सूखी नदी जिसमें वर्षा काल में ही कभी पानी नजर आता अन्यथा शहर की गंद ढ़ोने का काम करती, जिसे गूईली नदी के नाम से भी पुकारते। पुराने खंडहर अनेक नजर आते है। थोड़ी दूर पर ढ़ोंसी का पहाड़ है, जिसके बारे में कहा जाता है कि च्यवन ऋषि ने यही पर च्यवनप्राश बनाया था। जिला महेंद्रगढ़ है मगर जिले के ज्यादातर कार्यालय यहाँ स्थित है।
छुट्टियों, तीज त्योहार, कार्यक्रम के समय मामा के यहाँ निवाजनगर जाना होता। बहुत अच्छा लगता। नानाजी, नानीजी, मामाजी, मामीजी का प्यार पाकर तो बार बार जाने को मन करता। मामाजी श्री किशनलाल शर्मा अनुभवी चहेते अध्यापक रहे। नौजवानों से जिनका विशेष लगाव रहा। उनसे पढ़े हुए विद्यार्थी आज भी मिलते है तो उनके सामने नतमस्तक हो जाते है।
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नानाजी सुबह सवेरे एक बड़े बर्तन में जो कांसे का लगता था, उसमें अंगीठी पर चाय बनाते। असम की ओर रहने के कारण उनको चाय की आदत बनी होगी। चाय उस समय तक बहुत आम चीज नहीं थी।
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यहाँ एक छोटा सा बाजार था। सुनार की भी दुकान होती थी। यहाँ भी पुराने खंडहर बहुत थे। मामाजी के परिवार की ही मील चलती थी जिसमें अनाज पिसाई की चक्की, रुई की धुनाई, आरा मशीन आदि का काम होता। यहाँ तेल निकालने के लिए कोल्हू भी चलता था।
एक बड़ा तालाब होता था जो खंडहर बन गया था। यहाँ मीठे और खारे पानी के कुंए भी थे। पीने के लिए मीठा पानी तथा अन्य काम के लिए खारे पानी का प्रयोग किया जाता।
यहाँ सुबह सवेरे सुनते की मस्जिद होकर आ रहा हूँ। पूजा के लिए मस्जिद जा रहा हूँ। जबकि उस समय उस गाँव में ही नहीं आसपास भी मुसलमान नहीं रहते थे। शब्दों में नफरत नहीं थी।
मामा के यहाँ एक बारहमासी कपास का पेड़ था। नानीजी खूब चर्खा चलाती थी। घर घर में चर्खा, चक्की का संगीत गूंजता था, जो रचना, श्रम संस्कार, सक्रियता, उत्पादकता, व्यस्तता का अवसर प्रदान करता। बुजुर्गों को भी अवसर प्रदान करता। कुछ लोग कपड़ा भी बुनते थे।
गाँव में बत्तखें भी पाली जाती थी, जिन्हें देखने, उनके पीछे दौड़ने का खेल अच्छा लगता था। मगर जब वे गर्दन नीची करके हमारी और दौड़ती तो डरकर हम भागते।
मामाजी गाँव में सांस्कृतिक कार्यक्रम आयोजित करवाने में शामिल रहते। नाटक देखने में बड़ा आनंद का अनुभव होता।नानीजी से हम बच्चों को चांदी की चवन्नी, रुपया मिलता।जिससे हम अपने को खूब अमीर मानते। उनमें से कुछ सिक्के आज भी अपने पास है जो विशेष यादगार है।मामाजी ने परिवार के साथ एक फोटो खिंचवाया था, जो आज भी वह एक मीठी यादगार के रूप में अपने पास है।
वे दिन भी क्या दिन थे। आने जाने के लिए ऊंट पर बैठकर जाते। हमारे गाँव से निवाजनगर के मध्य में नारनौल पड़ता है। अनेक बार अपन तो पैदल भी गए। वे यादें, बातें, प्रसंग, दिन कभी भी याद बनकर सामने आ जाते है।
आजकल मामाजी परिवार सहित नारनौल में रहते है। जहाँ भाई डॉ दिनेश, डॉ उषा का पूजा नाम का अस्पताल चलता है। मामाजी आज भी सक्रिय जीवन जी रहे है। हमारी मामीजी का स्वभाव बहुत ही सहज, सरल, प्रेरक रहा। वे भक्ति भाव में लीन रहती। वे बहुत ही मीठी आवाज में बोलती। अपन को तो उनका विशेष प्यार मिलता। उनके प्रेरक शब्द उत्साह बढ़ाते। उनकी विशेष याद, सम्मान मन में बैठा हुआ है। अपने कार्य के बारे में वे कहती यह बहुत ही अच्छा काम कर रहा है।
*लेखक प्रख्यात गाँधी साधक हैं।