टिपण्णी
-ज्ञानेन्द्र रावत*
गत दिवस उत्तराखंड के चमोली जिले में रैणी के पास ग्लेशियर फटने से पानी के भारी दबाव के चलते विष्णु प्रयाग से ऊपर धौली गंगा पर बांध के ढह जाने की घटना निस्संदेह दुखदायी है। इससे जन धन की जो बर्बादी हुई है उसकी भरपायी असंभव है। दर असल इसे मानवीय दखलंदाजी का दुष्परिणाम कहना ज्यादा उपयुक्त होगा। कारण बरसों से दुनिया के पर्यावरणविद इस बात के संकेत दे रहे हैं , विश्व नेतृत्व को चेता रहे हैं कि बांध पर्यावरण के लिए सबसे बड़ा खतरा हैं। उस स्थिति में जबकि अमेरिका, चीन सहित विकसित देश अपने यहां से बांधों को खत्म कर रहे हैं लेकिन विकास के नशे में मदमस्त हमारी सरकार बांधों को बनाने के लिए अड़ी हुई है।
गंगा पर बांध निर्माण की सरकारी योजनाओं के विरुद्ध स्वामी सानंद सहित कई संत अपने प्राणों की आहुति तक दे चुके हैं दुख इस बात का है कि सरकार ने 2013 की केदारनाथ त्रासदी से भी कुछ नहीं सीखा।
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जहां तक ग्लेशियरों का सवाल है, वैज्ञानिक और दुनिया के पर्यावरणविद ग्लोबल वार्मिंग और जलवायु परिर्वतन के दुष्प्रभावों के चलते ग्लेशियरों के पिघलने से हो रहे नुकसान के बारे में बरसों से चेता रहे हैं। अब यह किसी से छिपा नहीं है कि इस सबके लिए मानवीय गतिविधियां जिम्मेवार हैं।
फिर हिमालयी क्षेत्र में पर्यटन को बढ़ावा देने वाली सरकारी नीति भी ऐसी आपदाओं के लिए कम जिम्मेवार नहीं हैं। जबकि सालों पहले डा. मुरली मनोहर जोशी की अध्यक्षता वाली संसदीय समिति इन खतरों से सरकार को चेता चुकी है कि हिमालयी क्षेत्र अति संवेदनशील है, यहां के लिए सरकार को अतिरिक्त पैकेज के तहत ऐसी नीति का निर्धारण करना चाहिए जो इस हिमालयी क्षेत्र के अनुकूल हो जिससे पर्यावरण, जैव विविधता, पारिस्थितिकी पर प्रतिकूल प्रभाव ना पडे़।
विडम्बना है कि हमारी सरकार विकास के नाम पर विनाश को आमंत्रण दे रही है। बांध इसके जीते जागते सबूत हैं। इन हालातों के चलते ऐसी आपदाओं को हम स्वतः निमंत्रण दे रहे हैं। लगता है सरकार को न तो पर्यावरण की चिंता है, न जैव विविधता और न ही पारिस्थतिकी तंत्र की। वह अंधाधुंध विकास के नशे में मदहोश है। ऐसी स्थिति में तो जनता की खुशहाली की आशा करना बेमानी है।
*लेखक वरिष्ठ पत्रकार एवं चर्चित पर्यावरणविद हैं।