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संस्मरण
– रमेश चंद शर्मा*
चीन की लडाई के समय देश ने बड़ा धोखा महसूस किया। कहां हिंदी चीनी भाई भाई का नारा, पंचशील की बातें, चीनी प्रीमियर झोऊ एनलाई का दिल्ली दौरा, दोस्ती के हाथ, तत्कालीन प्रधानमंत्री जवाहर लाल नेहरू का आत्मविश्वास, प्रभाव, दुनिया से संपर्क, संवाद, सोच सब एक ओर धरी रह गई। भारत पर चीन का हमला, सीमाएं असुरक्षित हो गई, हिमालय रक्षक है, उस ओर से कोई खतरा नहीं, यह बात बदल चुकी थीं। भारत जैसे देश पर कोई क्यों हमला करेगा? इन सबके बावजूद युद्ध शुरू हो चुका था। सेना बिना अच्छे हथियारों के हिम्मत, बहादुरी के बल पर मुकाबला करने का प्रयास करती रही। अनेक चौकियों पर चीन ने कब्जा कर लिया। हमारे सैनिकों को पीछे हटना पड़ा। हमारी भूमि का बड़ा हिस्सा चीन ने कब्ज़ा लिया। देश में भंयकर चिंता फ़ैल गई। लोगों के मन में गुस्सा था।
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देश ने लोहे की आवश्यकता की मांग। की जगह जगह लोहा इकठ्ठा होने लगा। छात्र भी इस कार्य में जूट गए। जहाँ भी लोहा देखा कि उसे उठाना और विद्यालय में लाकर रखना। किसी अच्छाई बुराई का ख्याल भी नहीं आता था, गलत कर रहे है या सही। देश प्रेम, देश भक्ति के जूनून में यह सब भी भूल चुके थे। जैसे भी, जहाँ से भी लोहा उठा सकते थे, उठा लेते थे। एक तरह से चोरी भी की गई। दिन रात एक ही धुन लोहा इकठ्ठा करना है, ज्यादा से ज्यादा। बचपन कहें या कुमारपन का जोश, पागलपन, देश के लिए कुछ करने की चाह, जो भी आप आज नाम दे, मगर उस समय तो यह सब खूब किया। लोहा उठाने में ही देशभक्ति नजर आती थी। किसी के तोलने के बाट हो, तराजू हो, मजदूर का लोहे का तसला हो, किसी का लोहे का कितना भी आवश्यक, जरूरी सामान हो, सडक पर लगा खंभा, कोई ग्रिल, लोहे की वस्तु नजर आ गई तो चाहे वह सरकारी, गैर सरकारी, व्यक्तिगत हो, कुछ नहीं देखते थे। उसे उठाकर ही दम लेते थे। इसमें अपनी बड़ी जीत मानते थे। कई बार रात को टोली बनाकर इसी काम पर निकलते। रात को इकठ्ठा किया लोहा कहीं छुपाते। दिन में उसे संग्रह स्थल पहुंचाते। कुछ बडे, वरिष्ठ साथियों का भी इसमें साथ, उत्साह, समर्थन, प्रोत्साहन मिलता तो काम वैसे भी आसन हो जाता।
नारे लगाते हुए स्कुल आना जाना। चंदा एकत्र करना। रात को सायरन बजने पर गली में सीटी बजाकर लोगों को सतर्क, सावधान करना, जहाँ से थोडा भी प्रकाश नजर आए, उसे बंद करवाना। सायरन देर तक बजता तो चिंता बढ़ जाती। फर्स्ट एड, स्काउट, सेंट जॉन एम्बुलेंस, नागरिक सुरक्षा, मोहल्ला सुधार समिति आदि से जुड़े रहने के कारण अपनी भी सक्रियता बनी रहती, मन भी लगता। बड़े लोगों के साथ साथ घूमने फिरने का मौका भी मिलता। दिन में यातायात को संभालने, पुलिस का कुछ काम भी नागरिक ही कर रहे थे। अपन छोटे थे इसलिए इसमें सीधे सीधे कुछ नहीं कर सकते थे। बड़े साथियों के परिचय के कारण उनके साथ खड़े हो जाते। उस समय पढाई लिखाई का आजकल जैसा दबाव नहीं होता था। इसलिए बच्चों को पर्याप्त समय मिलता था। जो रूचि रखते हो उनको अवसर अवश्य मिल जाता।
हवाई हमले के डर से रात को ब्लक आउट रहता। बाहर प्रकाश नहीं आए इसके लिए शीशे की खिडकियों पर काला कागज, गत्ता आदि लगाने की घोषणा हुई। सडक पर छोटी छोटी बत्तियां बल्ब लगाए गए। चीन नाम से ही इतनी नफरत फ़ैल गई थी कि हमारी दिल्ली के फतेहपुरी पर लाला चाईना राम की दुकान पर चाईना राम लिखा था इसलिए हमला करने कुछ लोग इकठ्ठा हो गए। बड़ी मुश्किल से लोगों को समझ आई कि इसका चीन से कोई रिश्ता नाता भी नहीं है। आज भी यह दुकान चलती है। सोच, माहौल, वातावरण, गलतफहमी, अफवाह इंसान को कहां से कहां पहुँचा देती है। अपनों को पल में पराया बना देती है। परस्पर आपसी दूरियां, नफरत, घृणा, हिंसा, अलगाव पैदा कर देती है। यह अनेकों बार देखा गया है। ऐसी स्थिति से बचना बहुत जरूरी है।
पेकिंग शांति यात्रा
चीन युद्ध के बाद विश्व शांति ब्रिगेड ने राजघाट से दिल्ली पेकिंग शांति यात्रा प्रारम्भ की। गाँधी संस्थाओं ने इसमें भागीदारी की। श्री जयप्रकाश नारायण, श्री शंकरराव देव जैसी हस्तियों के मार्गदर्शन में अनेक सर्वोदय कार्यकर्ताओं ने इसमें भाग लिया। शांति, अहिंसा, प्रेम, सहयोग का संदेश जन जन तक पहुंचेI विश्व में शांति का संदेश जाए। देश, विदेश के शांति चाहने वालों की इसमें भागीदारी हुई। यात्रा असम तक पहुंची मगर चीन ने अपने यहाँ आने की स्वीकृति नहीं दी। इसलिए बाबा विनोबा भावे द्वारा नार्थ लखीमपुर, असम में स्थापित मैत्री आश्रम में यात्रा ने डेरा डाला और लंबे समय तक वहीँ रुककर चीन की स्वीकृति का इंतजार किया। जिसमें सफलता नहीं मिली। यात्रा ने शांति, अहिंसा की भूमिका पर बातचीत, पर्चे, फोल्डर, सभा द्वारा अपना संदेश दिया। इस यात्रा में दिल्ली से उत्तर प्रदेश तक अपन ने भी कई बार भाग लिया। धन्यवाद दिल्ली के उन सक्रिय नेताओं को जिनके साथ ऐसे महत्वपूर्ण कार्यक्रम में भाग लेने का मौका मिला।
*लेखक प्रख्यात गाँधी साधक हैं।
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