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विशेष: बिहार की लोकोक्तियाँ
– मृदुला सिन्हा*
लबड़क मौगत माघ महीना
शब्दार्थ – लबड़ा-लबड़ी (उच्छृंखला पुरुष-स्त्री) की मौत माघ महीने की कड़ाके की ठंड में होती है।
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भावार्थ – जब कोई व्यक्ति समाज द्वारा बनाए नियमों पर नहीं चलता, प्रकृति के तकाजों को नहीं समझता, तो उसके व्यवहार को देखकर बड़ों को जुबान पर अनायास यह कहावत थिरक जाती है- ‘‘लबड़क मौगत माघ महीना।’’ इन चार शब्दों में क्रोध, मजाक और सीख प्रगट की जाती है। समझने वाला भाव समझ जाता है। कहावत कहने वाले को विस्तार
करने की भी जरूरत नहीं पड़ती है। चार शब्दों में कितनी बड़ी कथा। बड़ों की सीख मानने वाले की पहचान। माघ मास की ठंड की तासीतर की माप।
प्राकृतिक और सामाजिक मानदंडों को नहीं मानने वाला व्यक्ति सामान्य नहीं होता, इसलिए उसे लबड़ा-लबड़ी कहा जाता है। ऐसे व्यक्तियों को अपनी वाणी और चाल पर भी नियंत्रण नहीं रहता। इनकी बातों पर लोगों को विश्वास नहीं होता। ऐसे व्यक्ति किसी को वादा करके भी समय पर नहीं आते। किसी बात को ठीक से प्रस्तुत नहीं करते। माघ महीने की सर्दी में पूरे कपड़े पहनने चाहिए, ताकि सर्दी से बच सकें। जो इतनी सी बात नहीं समझता, समाज उसे सामान्य नहीं मानता, वह लबड़ा-लबड़ी कहलाता है। अपनी करनी का फल उसे मिलता ही है। समाज द्वारा बनाए नियमों पर चलने वाले व्यक्ति ऐसे ‘‘लबड़ा-लबड़ी’’ से दूरी ही बनाकर रखते हैं। दरअसल ऐसे व्यक्तियों के व्यवहार समाज सम्मत नहीं होते और उन्हें उनकी गलती की सजा भुगतनी पड़ती है।
सीख – बुजुर्गों द्वारा सिखाई गई बातों पर अमल करने वाला व्यक्ति सामान्य होता है। जो सामाजिक निषेधों को नहीं मानता वह उद्दण्ड होता है, उसे प्रकृति द्वारा भी सजा अवश्य मिलती है।
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सास न ननद, घर अपने आनंद, गपकाई
शब्दार्थ – घर में सास-ननद नहीं हैं। अकेले ही आनंदपूर्वक हैं। जो पकाया स्वयं प्रेम से खाया।
अर्थ- हमारे संयुक्त परिवारों में पति, सास, ननद, ससुर, देवर, जेठ और सेवक-सेविकाओं के साथ-साथ रहने की परंपरा रही है। इन सबके साथ चलने के सख्त अनुशासन भी होते थे। नियम से चलना पड़ता था। खाना बनाने वाली घर की स्त्री भी सबको खिलाकर ही खाती थी। लेकिन जब कभी सास, ननद और अन्य रिश्तेदार नहीं हों, तो वह अपने पकाए हुए खाद्य पदार्थों को स्वयं खाती थी। भोज्य पदार्थ के स्वाद बदलने जैसी स्थिति भोगती है। उसका भी एक अपना आनंद होता है। इस कहावत का प्रयोग कोई व्यक्ति तब करता है, जब घर हो या दफ्तर किसी व्यक्ति के ऊपर या नीचे कोई रोक-टोक करने वाला नहीं हो। समझा जाता है कि ऐसे स्थिति में मनुष्य आनंदित होता है। अकेलापन शाप भी है, तो कभी-कभी वरदान भी। व्यक्ति के अकेलेपन के आनंद की तुलना एक महिला के सास-ननद विहीन घर में रहने से की गई है। यूँ तो सास और ननद का घर में रहना उपयोगी भी माना जाता है। वैसी स्थिति में घर की बहू को कई अनुशासनों का पालन करना पड़ता है। उनके दबाव भी सहने पड़ते हैं। कई बार किसी को रोक-टोक करने वाला कोई न हो तो व्यक्ति आनंद मनाता है। ‘वे’ नहीं तो आनंद ही आनंद है। किसी व्यक्ति की स्थिति पर इस कहावत का व्यवहार किए जाते समय वक्ता के अंदर व्यंग्य का भाव होता है। ऐसी स्थिति को समाज में सुखकर नहीं माना जाता।
सीख- ऐसी परिस्थिति नहीं होनी चाहिए, जब किसी का साथ न हो। आनंद भले ही मिल जाए।
राजा के ओढ़ना, धोबी के बिछौना
शब्दार्थ- राजा सोते समय जिस चादर को ओढ़ता है, धोबी के घर जाने पर वह धोबी का बिछौना हो जाता है।
भावार्थ- समाज व्यवस्था में राजा के रंक तक विभिन्न सीढ़ियों पर बैठे हुए न जाने कितने लोग हैं। परिवार से लेकर समाज में पद के अनुकूल विभिन्न स्तर हैं और उसके अनुकूल संबंधों के बीच आचार संहिताएँ और प्रोटोकाॅल है। राजा तो राजा है ही, उसके साथ उसके काम में सहयोग देने वाले, उसकी सेवा करने वाले विभिन्न पद हैं। सेवार्थी हैं। धोबी का
काम समाज में सबकी सफाई करने वाला सहयोगी का माना जाता रहा है। इसलिए उसके हाथ में गंदे कपड़े ही आते हैं। धोबी का स्थान इसलिए भी बड़ा है कि वह गंदगी को धोकर साफ-सुथरा कर देता है।
जीवन और व्यवहार में जब किसी वस्तु को उपयुक्त स्थान से उतारकर निचले स्तर पर उपयोग में लाया जाता है, तो अकसर ग्रामीणों के मुँह से यह कहावत निकल जाती है- राजा के ओढ़ना, धोबी के बिछौना। और बात सटीक बैठती है। सुनने वाले कहावत के कथन की गहराई तक पहुँच जाते हैं। आज समाज में कोई राजा नहीं है और सिर्फ राजा और धोबी
के ऊपर यह कहावत लागू भी नहीं होती थी। प्रोटोकाॅल में किसी वस्तु का इस्तेमाल गलत ढंग या गलत जगह पर हो, तो कहावत कहने और सुनने वाले के लिए अर्थवान हो जाती है।
सीख- किसी वस्तु का इस्तेमाल स्थान की भिन्नता के अनुसार बदल जाता है। बदलने देना चाहिए। वस्तु का महत्त्व नहीं कम हो।
*लेखिका प्रसिद्ध साहित्यकार तथा गोवा की पूर्व राज्यपाल हैं। यह लेख उनकी हाल में प्रकाशित किताब बिहार इंद्रधनुषीय लोकरंग का अंश है। ।
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