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– लता
गुरुग्राम: कभी कभी स्थिति विपरीत होते हुए भी एक अलग ही सुखद अनुभव का आभास करा देती हैं। कुछ ऐसा ही २८ वर्षीय कल्पना भाटी के साथ हुआ। चार साल की उम्र में ही उसका गाँव से नाता टूट गया था जब उसके माता पिता नॉएडा आ कर बस गए थे। कल्पना के पिता ने नोएडा शहर में आ कर अपना रियल इस्टेट का छोटा सा बिजनेस बखूबी से जमा लिया और अपने बच्चो के उज्वल भविष्य की चाह में उन्होंने अपने दोनो बच्चो का दाखिला अंग्रेजी मीडियम स्कूल महर्षि विद्या मंदिर में करा दिया। कल्पना को पढ़ना शुरु से ही बहुत पसंद था नई चीजों को सीखने का उनमें अलग ही उत्साह था हर साल स्कूल में पढ़ाई में प्रथम या द्वितीय स्थान लाकर पिता का सिर गर्व से ऊंचा करती। साथ ही वो और उनके बड़े भाई मनीष अपने पिता के बिजनेस में भी हाथ बटाने लगे। कल्पना अपनी ग्रेजुएशन नोएडा से पूरी कर गुरुग्राम में मैनेजर के तौर पर नौकरी करने लगी और अपने बड़े भाईकी शादी के बाद कल्पना नौकरी करने के लिए गुड़गांव आ गई ताकि वो आत्मनिर्भर और स्वावलंबी बन अपनी जिंदगी जी सके।
उसका गाँव तो कहीं बहुत पीछे छूट चूका था। कभी कबाध ही एकाध घंटे के लिए ही अपने माता पिता के साथ उसका गाँव जाना होता पता था और गाँव नॉएडा से करीब घंटे भर दूर ही होने के कारण उसे वहां रात में रहने का भी सुअवसर नहीं मिल पाता था। और फिर, औरों की तरह ही उसे भी लगता था कि आखिर बड़े शहर में रहने वालों का भला छोटे से गाँव में क्या मन लगेगा ? छोटी उम्र में गांव छोड़ने के बाद वहां के वातावरण के साथ साथ दोस्तो को वहां बिताए हर पल को कल्पना जैसे भूल चुकी थी।
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पर कभी ऐसा भी होता हैं कि आपकी माटी आपको अपने पास खींच लाती है। यही कुछ कल्पना के साथ लॉकडाउन के दौरान हुआ। जनता कर्फ्यू से ठीक एक दिन पहले कल्पना अपनी चचेरी बहन से मिलने ग्रेटर नोएडा के सेक्टर 36 आई थी। वहां आस पड़ोस में कोरोना संक्रमण के मामले आने की वजह से कल्पना और उनकी बहन का परिवार कल्पना के गांव चला गया कुछ दिनों के लिए। परन्तु परिस्थिति कुछ ऐसी हुई कि लॉक डाउन में उन्हें वहां दो महीने रुकना पड़ गया। कहाँ एक बड़े शहर की भागम भाग वाली ज़िन्दगी और कहाँ गाँव का ठहरा हुआ जीवन ! यह कल्पना के लिए बिलकुल नया अनुभव था। उत्तर प्रदेश का उसका गाँव कैमरला हालांकि ग्रेटर नॉएडा से बहुत ज्यादा दूर नहीं है। पर इस दूरी को पाटने में कल्पना को 24 साल लग गए और वह भी संयोगवश। यदि लॉक डाउन नहीं लगा होता तो शायद वह कभी भी अपने गाँव में एक दिन से ज्यादा नहीं रूकती।
अब तो यहाँ बिताये दो महीने उसके लिए अविस्मरणीय बन गए हैं। कैमरला गांव ज्यादा बड़ा नहीं है वह 20 से 25 घर हैं जिनमे आपस में एकता और प्यार है। गांव में सभी लोग खेती बाड़ी का काम करते हैं। लॉकडाउन के दौरान खेतो में गेहूं और ज्वार कि फसल की कटाई शुरू हो गई थी तो सभी किसान पूरा दिन खेतो में कटाई किया करते। हर साल वहाँ किसान कटाई के वक़्त एक दूसरे के खेत में हाथ बटांते थे लेकिन इस साल कुछ अलग हुआ। कोरोना महामारी के चलते सोशल डिस्टेंसइंग का पालन करने के लिए उन्होंने अपने अपने खेत की कटाई की और दूसरो की मदद नहीं की। एक दूसरे कि मदद करने से कटाई जल्दी हो जाती थी पर इस बार कटाई में लगभग डेढ़ महीना लगा। वैसे तो बड़े बूढ़े, औरतें और बच्चे घरों में ही रहते थे लेकिन खेत जाने वाले किसान सावधानी बरतें हुए मास्क पहनकर और सैनिटाइजर लेकर जाते थे। गांव के मुखिया के साथ मिलकर वहां के लोगों ने सभी बाहर आने जाने वाले रास्ते बंद कर दिए थे ताकि कोई बाहर से गांव ना आ सके और ना ही गांव से लाकडाउन के नियम तोड़कर जा सके।
कल्पना के लिए यह एक बिलकुल ही नया अनुभव था। रोज सवेरे चिड़ियों की चचहाहट से उसकी नींद खुलती थी और बारिश आने पर खुले में मोर का नाच देखना एक अलग ही अनुभव था जो वातावरण को आनंदमय बना देता था। बिजली होने की वजह से गाँव में वैसे भी गांव में सारी सुविधाएं शहर जैसी ही थी: ठंडा पानी पीने को फ्रिज था, समाचार और फिल्म देखने के लिए टेलीविजन था। लेकिन वहां का खुला वातावरण और शुद्ध पर्यावरण की बात ही कुछ और थी। पेड़ पौधे और हरे भरे खेत किसी का भी मन मोह सकते थे। प्रदूषण से दूर खुली हवा में सांस लेना और चूल्हे की रोटियां तो मानो सोने पे सुहागा जैसी हो।
कल्पना बताती हैं कि शहर के घर के मुकाबले गांव का घर बहुत बड़ा और खुला था। घर के पीछे सब्जियां, फल और फूल के पेड़ लगाए हुए थे सुबह उनके पास जाकर ठंडी हवा और फूलों की खुशबू संतुष्टि प्रदान करती थी। लॉकडाउन से एक दिन बाद सिर्फ एक दुकान बाज़ार में खुली नजर आयी। उसके बाद गांव में सभी ने अपनी दुकानें बंद कर दी। सभी ने अपने राशन का सामान लॉकडाउन की शुरआत में ही ले लिया था ताकि उन्हें आगे किसी तरह की परेशानी ना हो।
गांव में रहते रहते दो महीने कैसे बीत गए पता ही नहीं चला। वो सुकून भरे दिन वो शांत रातें। गांव में घर पर बने दूध, दही और साग – सब्जी का अपना ही एक अलग मजा था। कल्पना को वहां रहकर एहसास हुआ कि गांव के जीवन में सबसे सुकून कि बात है कि यहां लोगो को एक दूसरे से लगाव है पड़ोसी धर्म निभाने की परम्परा है। जबकि शहर में सब अपने काम से मतलब रखना जानते है। लॉकडाउन के दौरान कल्पना ने गांव के जीवन का खूब आनंद उठाया। उसे अब यह अहसास हो गया कि शायद जिस सुकून की तलाश में शहर में वह दिन रात एक करती थी , वही सुकून तो उसके गाँव के कण कण में वास करती थी। पर शहर में रहना भी एक मजबूरी ही हैं। अनलॉक-1 शुरु होने के साथ कल्पना का काम भी गुरुग्राम में शुरू हो गया हैं और अब वह वापस अपनी पुरानी जिंदगी में मशरूफ हो गई है। पर गाँव में बिताये ये दो महीने उसे जीवन पर्यन्त याद रहेंगे। अब तो उसका कहना है कि वो हर साल कुछ दिन निकाल कर गांव में रहेगी।
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