– डॉ. राजेन्द्र सिंह*
“खेत का पानी खेत में” – फिर लावा का बास जोहड़ के काम पर रोक क्यों लगा दी थी?
हमारे प्रकृति के साथ सौम्य रिश्ते तथा प्रकृति के लेन-देन का संतुलित व्यवहार ही हमें दुनिया में जगद्गुरू के रूप में मान्यता देता रहा है। आज यह प्रकृति से लेन-देन का व्यवहार बिगड़ रहा है। इसे पुनः सुधारना जरूरी है। हम जितना प्रकृति से लें, उतना ही उसे लौटाने का प्रयास करें। पहले हम प्रकृति हेतु त्याग कर ही ग्रहण करते थे। हमारी यही आस्था और विश्वास हमें दुनिया को सिखाने योग्य बनाता था।
आज भी यह दिखा दिया कि समाज पानी के काम को पुण्य कर्म मानता है। इससे वह अपना व्यवहार बदल सकता है, लेकिन सरकार अपना व्यवहार बदले, तभी यह संभव होगा। सरकार आज भी पानी को अपनी सम्पत्ति मानकर समाज को जल प्रबंधन से अलग करना चाहती है। इसीलिए जहाँ समाज खड़ा होकर कुछ जागृति हेतु करने लगा है; वहीं विवाद खड़े हुए हैं लोकतंत्र में भी सब कुछ सरकार के सामने समर्पित हैं, वहाँ कोई विवाद नहीं है।
जल नीति का उन्हीं स्थानों पर केवल विरोध हुआ, जहाँ समाज स्वयं पानी बचाने का काम कर रहा है। ऐसे पानीदार समाज ने ही देश भर में जगह-जगह पर जलनीति के दस्तावेज की होली जलाई। सरकार ने इसे भी केवल अपना विरोध मानकर मौन साध लिया। लेकिन यह सब देखकर भी नीति को लोक जरूरतों के अनुरूप बदला नहीं। इस सरकारी चरित्र में केवल विरोध का भाव नजर आता है। इसे साकारात्मक मानकर सरकार जन-कल्याण का प्रयास बना सकती है।
इस जलनीति से गरीब, जिसके पास खाने के लिए रोटी नहीं, वह भी दूध के भाव पानी खरीदकर पीने के लिए मजबूर हैं। रोटी, कपड़ा सबको देंगे। इस नारे ने पानी भी छीन लिया है। एक गिलास पानी हेतु मोहताज कैसे लड़े सरकार से? इन सब परिस्थितियों को बनाने वाले तो हमारे राजनेता ही हैं। उनके दिए गए नारे हैं। आज नारों के शब्द तो बदले हैं, पर काम उल्टा बाजारू है।
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‘‘सबको देंगे शुद्ध पानी’’, ‘‘हर घर में नल’’, लेकिन नल में जल कहाँ से आयेगा? यह खूब सुनने को मिलता है, लेकिन इस नारे का परिणाम वही है। नेता नारों में दाता बनने की चाह रखते हैं, लेकिन व्यवहार में दाता की जगह ग्राहता बन जाते है। जहाँ समाज यह समझ गया वहाँ वह भी कुछ बोल के जग गया और अपना काम करने लगा है। ऐसे लोगों को ही कथनी-करनी का भेद दुखी करता है। इसी से अब समाज में सत्य का विश्वास भी खत्म हो गया है। हर समय प्राथमिकताओं के बदलने से, कामों के अधूरा रहने से सबको अब नेताओं की तरह के व्यवहार की आदत पड़ गई हैं। नेता केवल उद्घाटन करके, पूरा काम कराने की जरूरत न समझकर, स्थान बदल देता है।
अधिकारियों की सोच भी अब लोकतांत्रिक के स्थान पर आर्थिक तंत्रवाली बन गई है। ये केवल नेताओं को तथा अपने आपको बचाने एवं साफ छवि वाले बनने की चाह में रहते थे। इसीलिए दूसरों की छवि बिगाड़ना इनका जरूरी काम रहता है। अब भारतीय त्रिगुट ने ‘सत्यमेव जयते़ के स्थान पर ‘झूठ मेव जयते’ से ही आगे बढ़ना मान लिया है।
पुरानी परम्परागत जल संरचनाओं को कारगर बनाना, टूटे हुए सभी बांधों – जोहड़ों को दुरुस्त कराना। लावा का बास के जोहड़ को नेता अधिकारी शुरू करने तो आए, शुरू करने के बाद फिर कभी मुड़कर नहीं देखा। अगर इस काम में नेता अपनी घोषणानुसार पूरी मदद कर देते तथा अधिकारी इस काम में साथ जुड़कर समाज की जरूरत व निर्णयानुसार मदद करते तो कोई विवाद नहीं होता। इसी को तोड़नेवाले सरकारी कार्यों पर पुनः आज तक मरम्मत कार्य शुरू नहीं हुआ। लावा का बास के जोहड़ की मरम्मत पानीदार समाज ने स्वयं कर ली। लगता है, गाँववाले ही सब ठीक करेंगे। भारत को स्वाबलंबी और आत्मनिर्भर बनायेंगे।
सरकार जो कह रही है, उसे समाज के साथ मिलकर पूरा करने में जुटने की कोई प्रतिबद्धता नहीं दिखती है। ‘‘खेत का पानी खेत में‘‘ फिर लावा का बास जोहड़ के काम पर रोक क्यों लगा दी थी? समाज मिलकर जहाँ जल संगठन बनाए और जल सहेजने का काम पूरा करेगा, बस वहाँ सरकार विरोध करने पहुँचेगी। यह सब कब तक चलेगा? जब तक यह चलेगा, गरीब और गरीब बनेगा। यह समाज की अपनी आस्था और विश्वास टूटने से होता है। आज भी समाज के मन में डर पैदा करके स्वावलंबी बनने से रोकता है।
भारत को अपना आत्मविश्वास और आस्था पुनः जगानी होगी। अन्याय, अत्याचार, असमानता से लड़ने वाला उसे रोककर हमारी सम्प्रभुता बनाये रखने हेतु न्याय-समानता के अवसर सृजित करने वाला भारत के संविधान को हम भारत के सम्मान सहित पालना करें। इसमें हमारी प्राकृतिक आस्था का संरक्षण मौजूद है। वह हो नहीं रहा है। इसीलिए आज हम जगद्गुरू नहीं है।
*लेखक जलपुरुष के नाम से विख्यात पर्यावरणविद हैं। प्रस्तुत लेख उनके निजी विचार हैं।