– रमेश चंद शर्मा*
भाषा के मामले में भी भारत समृद्ध, विविधता भरा देश रहा है। भिन्न भाषा, भिन्न भेष, भारत फिर भी एक देश। स्थानीय बोलियों, बोल चाल के मामले में भारत में भरपूर खजाना है। एक ही भाषा, बोली में क्षेत्र के अनुसार कहीं शब्द, उच्चारण, भाव, अर्थ भी बदल जाता है। कोस कोस पर बोली बदले, पांच कोस पर पानी।
बोली, जल, हवा, खाना पीना, रहन सहन, बोल चाल, भेष भूषा, पहनावा विविधता भरा हो तभी प्राकृतिक, सुंदर, स्वस्थ, अच्छा वातावरण, माहौल, मौसम, जलवायु बनता है। सब एक जैसा हो, जिसे मोनो कल्चर कहते है, सब विविधता हीन बनता जाए तो समाज, क्षेत्र, देश, दुनिया विकास के स्थान पर विनाश की ओर बढ़ने लगती है। विविधता प्राकृतिक है, सौन्दर्य है, विकास की राह है, जीव जगत, प्रकृति को फलने फूलने, सशक्त, मजबूत, रंग बिरंगा बनने का अवसर प्रदान करती है।
विविधता परम आवश्यक है। आज जैव विविधता की बातें तो खूब चल रही है। कानून भी बनाए जा रहे है। मगर उसको बचाने के प्रयास के स्थान पर जीवन शैली इस प्रकार की अपनाई, फैलाई, प्रचारित की जा रही है, जो जैव विविधता के लिए बड़ा खतरा है। उससे जैव विविधता समाप्त हो रही है। ज्यों ज्यों यह खतरा बढ़ रहा है जीव समाप्ति की ओर अग्रसर हो रहा है। कुछ प्रजातियाँ तो लुप्त हो चुकी है। कुछ लुप्त होने के कगार पर खड़ी है।
भाषा किसी सम्प्रदाय, मजहब, धर्म, वर्ग, जाति विशेष की नहीं होती। वह क्षेत्र विशेष में पलती, बढती, विकसित होकर अपनी क्षमता, स्थिति, माहौल, वातावरण, प्ररिस्थितियों के अनुसार बढती, घटती, फैलती या सिकुड़ती है। यह दुनिया के किसी भी क्षेत्र में, कहीं भी पहुंच सकती है। किसी क्षेत्र विशेष में रहने वालों के अलावा भी। कभी कभी किसी विशेष वर्ग, क्षेत्र तक सीमित रह जाती है। उसका विकास उससे बाहर नहीं हो पाता। बोली, भाषा अपने स्वभाव, लोगों के व्यवहार के कारण भी घटती बढती है। विकसित भाषा अनेक कारणों के परिणाम स्वरूप फैलती, सिकुड़ती भी है। कभी किसी क्षेत्र, वर्ग विशेष तक सीमित भी रह जाती है। उस क्षेत्र में अगर एक संप्रदाय, मजहब, धर्म, वर्ग, जाति के ही लोग रहते हैं तो परिणाम स्वरूप भाषा, बोली उन तक ही सीमित रह सकती है। वे उसे अपना मानते हो और दुसरे को प्रयोग करने पर रोक लगते हो तो वह, बोली या भाषा धीरे धीरे सीमित होकर मरने लगती है। वह बहुत सीमित रह जाती है। उसका विकास रुक जाता है और विनाश शुरू हो जाता है। उपयोग, प्रयोग के कारण भी प्रभाव पड़ता है। बच्चा सबसे पहले और ज्यादा से ज्यादा माँ के संपर्क में रहता है इसलिए उसको माँ की भाषा ही समझ आने लगती है। माता की भाषा के कारण ही मातृ भाषा शब्द बना। स्थानीय भाषा, क्षेत्रीय भाषा, प्रादेशिक भाषा, राष्ट्रभाषा शब्दों का प्रयोग, उपयोग के कारण ही किया गया, यह पूरा सत्य नहीं लगता। इसके लिए अन्य कारण भी रहे है। सत्ता, राज, पहचान, विचार, बहुसंख्या आदि के कारण भी भाषाओं का नामकरण किया गया। इसके लिए प्रचार प्रसार, आन्दोलन भी हुए, जिनके विभिन्न रूप रहे।
भाषा का अपना बहाव, फैलाव होता है। पानी, हवा की तरह भाषा का भी अपना बहाव है। वह क्षेत्र के अनुसार बदलती रहती है। भाषा का प्रचार प्रसार सत्ता, सरकार, राज, समूह, वर्ग के आवागमन, प्रभाव, नीतियों, कानून, रोजगार, व्यापार, साहित्य की संभावनाओं से भी तय होता है। भाषा भाव, विचार, बात, संवाद, साहित्य का माध्यम है। साथ ही लोगों को जोड़ने, अपनेपन का अहसास करवाने, प्रेम, नफरत, हिंसा, युद्ध तक का कारण भी भाषा बनी है। जोड़ने, तोड़ने दोनों तरह के काम भाषा के माध्यम, नाम पर हुए है। भाषा के नाम पर देश बने हैं, बिगड़े हैं, बंटे हैं, टूटे हैं, लड़े हैं। अंग्रेजी भाषा का प्रचार प्रसार व्यापार, सत्ता, राज, रोजगार, काम धंधे, नौकरी पेशे, बोलने वाले के आवागमन के कारण, साहित्य, गरिमा के नाम पर, एकाधिकार बनाने के लिए हुआ। ब्रिटिश, अंग्रेजों के राज के कारण अनेक क्षेत्र अंग्रेजी के प्रभाव क्षेत्र में आ गए। भाषा खुद के कारण नहीं मगर उसके बोलने वालों के कारण मान, सम्मान, नामी बदनामी प्राप्त करती है।
*लेखक प्रख्यात गाँधी साधक हैं।
Definitely the movement is the need of the hour vikas/ prakirty vinash ke sangarsh ko rokana hoga Bhai Ramesh ji ka lekhen ati sunder prerak hai badhai Dr.P.K.Sharma