साम्राज्यवादी इरादों से बचे चीन
कुमार अमिताभ*
चीन में माओवाद की सेंचुरी तो लगी परंतु दुनिया ने बड़े ठंडे पन से इसे लिया। मात्र कुछेक देशों ने बधाई दी, शेष एक सतर्क दूरी बनाये चीनी जश्न को संदिग्ध दृष्टि से देखते रहे। ऊपर से चीनी प्रमुख के हास्यास्पद बयान कि ‘वह किसी देश को छेड़ता नहीं, न ही किसी पर काबिज हुआ है’ पर दुनिया मन ही मन मुस्कुराई। एक बड़ी खाई सी महसूस करते हुए चीनी प्रमुख शी जिन पिंग ने धमकी भी दी कि यदि कोई उलझा तो उसे हम छोड़ेंगे नहीं।
यह सत्य है कि गत 8-10 वर्षों में बड़ी तेजी से चीन दुनिया के सामाजिक रिश्तेदारी से रिक्त हुआ है। बड़े पैमाने पर अन्य देशों के व्यापार को अपने शिकंजे में कसने की कोशिशों, फिर कोरोना महामारी में संदिग्ध भूमिका और उस दौरान हलकान लड़खड़ाते देशों के व्यापार संस्थानो पर दांत गड़ाना ही चीन पर भारी पड़ गया है। इसके अलावा हांगकांग में उसकी हरकतें, ताइवान को निगलने की कसमें, दक्षिण चीन सागर पर आधिपत्य की गतिविधियां और उईघुर मुसलमान नागरिकों के साथ अमानवीय बर्ताव ने बड़ी संख्या में देशों को उसके खिलाफ कर दिया है। ऊपर से भारत के साथ पंगा लेने की पुरानी आदत की हुड़क में मोदी सरकार की समझदार चपत ने उसकी रही सही साख पर ऐसा बट्टा लगाया कि पाकिस्तान जैसा, उसपर निर्भर देश भी भरोसा खो बैठा है।
इस दौरान भारत के साथ अमेरिका, जापान, आस्ट्रेलिया आदि देश भी अपने अपने हितों के मद्देनजर आ जुटे और एक चौगुट्टा (क्वाड) तैयार हो गया। जिसमें विएतनाम, ताईवान, फिलीपींस, फ्रांस व ब्रिटेन आदि भी शामिल होने को तैयार बैठे हैं। बाकायदा सामुद्रिक युद्ध के संयुक्त अभ्यास जारी हैं। सभी देश दक्षिणी चीन सागर में अपने व्यापारिक हितों को लेकर चिंतित व गंभीर हैं। दो तीन सालों में इस क्षेत्र में चल रही चौगुट्टे की गतिविधियों से चीन की छवि बहुत गिरी है।
कुल मिला कर यह कहा जा सकता है कि पश्चिमी देशों के सहयोग से गत तीस चालीस सालों में मिली बेहिसाब आर्थिक उन्नति की चकाचौंध ने चीन की आंखों में दुनिया पर राज करने का जो सपना भर दिया था, वह अब ध्वस्त होता नजर आ रहा है। उसकी इस राह में सबसे बड़ा रोड़ा बनकर भारत उभरा है। दुनिया के अन्य देश जिसमें मजबूत विकसित पश्चिमी देशों ब्रिटेन, फ्रांस, जर्मनी सहित अमेरिका भी शामिल है वो भारत पर आशा भरी निगाहें टिकाये बैठे हैं। भारत की वर्तमान सरकार के निर्णयों ने उनके अंदर उम्मीद जगा दी है कि बेकाबू, उद्दंड, बदमस्त उत्पात मचाने, दुनिया भर में अपना दबदबा कायम करने को बेकरार चीन पर भारत के माध्यम से काबू पाया जा सकता है। हाल के गलवान झड़प व जोर आजमाईश ने यह साबित भी किया।
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एक तरह से कहा जाए तो दुनिया ने भारत के कंधों पर यह भार डाल दिया है। भारत की मौजूदा सरकार भी चुनौतियों का सामना डट कर कर रही है और देखते देखते वह दम पैदा कर दिया है कि दुनिया के बादशाह कहे जानेवाले देश अमेरिका ने भी भारत की खूब पीठ थपथपाई, पूर्ण सहयोग का आश्वासन देते हुए बाकायदा उकसाया की एक दौर युद्ध हो ही जाये। उन सभी को उम्मीद है कि चीन पर भारत ही नकेल डाल सकता है। क्षेत्रीय संतुलन के लिहाज से यह एक नपी तुली कूटनीति का हिस्सा भी है। भारत सरकार ने सधे कूटनीतिक चालों के साथ चीन को समझा भी दिया और प्रमुख देशों का वांछित सहयोग समर्थन लंबी अवधि के लिये हासिल भी कर लिया है बगैर सीधे युद्ध जैसे हानिकारक कदम को उठाए।
चीनी धमक और अनावश्यक दहशत से बाहर निकलना भारत के लिये आवश्यक भी था। हाल हाल तक 2007-8 व 2012-13 में भी चीन ने, तत्कालीन सरकारों के कमजोरियों का फायदा उठाते हुए भारतीय भूभागों पर कब्जा जमाया था। सेना पीछे हटने को तैयार नहीं थी, इसके बावजूद कि सेना पर्याप्त साधन संसाधनों, हथियारों की कमी झेल रही थी मगर कमजोर राजनीतिक नेतृत्व ने उन्हें मन मारकर पीछे हटने को मजबूर किया। परंतु सरकार बदलने के बाद सेना की मजबूती के लिए उठाये गये कदमों और मजबूत राजनीतिक समर्थन पाते ही डोकलाम और गलवान में भारतीय सेना ने वह हाथ दिखाया कि दुनिया दंग रह गई। चीन की इतनी फजीहत हुई कि सारा भौकाल उजड़ गया, रिरियाते जिद्दी उद्दंड बच्चे की तरह वह सैनिकों को सीमा पर टिकाये रहा, हालत यहाँ तक पहुंची कि सिपाही भागने तक लगे थे। अब वह नये सिरे से अपने सिपाहियों को प्रशिक्षण, युद्धाभ्यास में लगा रहा ।
चीनी प्रमुख शी जिनपिंग का सारा भाषण इन विपरीत परिस्थितियों में सैनिकों और जनता के गिरे मनोबल को उठाने पर केंद्रित था। वह दुनिया को नहीं खुद को अपनी जनता को समझा रहे थे कि हम अब भी सबसे बड़ी ताकत हैं और कोई हमसे उलझने की हिम्मत नहीं कर सकता। अपनी जनसंख्या बल को भी हिम्मत बढ़ाने के लिए इस्तेमाल करते हुए उन्होंने कहा कि दुश्मन को डेढ़ अरब आबादी का सामना करना पड़ेगा।
बहरहाल चीन को समझ लेना चाहिए कि माओ के आक्रामक तेवर व अन्य देशों को धमकाने कब्जाने जैसी गतिविधियों का जमाना अब नहीं रहा। सभ्य दायरे में रहकर दुनिया के साथ चलने के लिये उसे साम्राज्यवादी घटिया हरकतों के बारे में सोचना भी बंद करना होगा। वैसे भी लोकतांत्रिक, मानवीय मूल्यों का महत्व प्रखर है, मध्यकालीन तानाशाही मानसिकता से उसे बाहर निकलने की जरुरत है।
*लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं। प्रकाशित लेख उनके निजी विचार हैं।
A good analysis 👌