बिहार चुनाव 2020
– प्रशांत सिन्हा
इस बार बिहार की राजनीति में बुनियादी बदलाव नजर आया है। इस बार नौकरी और विकास का मुद्दा असरदार रहा। जनता बिजली, पानी, और सड़क से आगे जाना चाहती है।लालू यादव के चुनाव में नहीं रहने से जातिवाद का मुद्दा खुल कर सामने नहीं आया। तेजस्वी यादव के दस लाख नौकरी देने का वादा ने बिहार के चुनाव की दिशा बदल दी। यह भी सच है कि बिहार ने उस नब्ज़ को पकड़ा जो पूरे देश को पकड़ना चाहिए था।
इस बार का चुनाव केवल एक वोट देने का, जातीय समीकरण बैठा कर जितने वाला, सियासी तिकड़म वाला चुनाव नहीं था बल्कि यह चुनाव बेरोजगारों द्वारा नौकरी की मांग और किसानों एवं श्रमिकों द्वारा अपनी समस्या का समाधान मांगने वाला चुनाव था।
सामान्यतः बिहार में जाति आधारित चुनाव होते हैं लेकिन इस चुनाव में मुद्दे पर वोट पड़े। विशेषकर युवाओं ने बेरोजगारी और विकास के मुद्दे पर किया। पिछले चुनावों में लालू यादव की राष्ट्रिय जनता दल (राजद) “मुसलमान-यादव (माई) कॉम्बिनेशन” की समीकरण बैठा कर चुनाव लड़ती थी जिसकी तादाद ज्यादा है। लेकिन इस बार युवाओं की तादाद “माई कॉम्बिनेशन” से ज्यादा है। इसी कारण युवाओं के लिए बेरोजगारी का मुद्दा असरदार हो गया। आंकड़ों के हिसाब से हर जिले में 70 हजार के करीब युवा है। उन्होंने जाति धर्म को दरकिनार कर नौकरी को तबज्जों दी।
इस बार तो महंगाई का मुद्दा भी बेरोजगारी एवं विकास के पीछे रहा। अगर सभी एक्जिट पोल की माने तो मोदी फैक्टर भी असरदार दिखती नजर नहीं आई। वैसे भी प्रधान मंत्री नरेंद्र मोदी का प्रभाव राज्यों के विधान सभा चुनावों में वैसा नहीं पड़ता जितना लोक सभा के चुनावों में पड़ता है। इस चुनाव में तेजस्वी ने जो मुद्दे रखे जैसे दस लाख नौकरी, पढ़ाई, दवाई और महंगाई जनता पर असर डालती नजर आ रहा है। चिराग पासवान जदयू को नुकसान करते दिख रहे हैं हालांकि चिराग को अनुमान के अनुसार कोई फायदा होते हुए नहीं दिख रहा है। असदुद्दीन ओवैसी कीऑल इंडिया मजलिस-ए-इत्तेहादुल मुस्लिमीनभी कोई असर डालती नजर नहीं आ रही है। ऐसा प्रतीत होता है कि इधर उधर से वोट लेने वाले वोट कटवा को जनता ने कोई जगह नहीं दी है। पप्पू यादव भी असरदार नहीं दिख रहे।
यह भी पढ़ें :
- बिहार चुनाव में पार्टियों के घोषणा पत्रों में नौकरी का मुद्दा सर्व प्रमुख
- “Bihar is as much casteist as other parts of the country”
मुख्य मंत्री और जनता दल यूनाइटेड अध्यक्ष नीतीश कुमार 15 सालों तक सुशासन देने का काम किया। उन्होंने सड़क, बिजली पानी के अलावा महिला सशक्तिकरण पर बहुत काम किया। लेकिन पिछली सरकारों की तरह बेरोजगारी पर लगाम नहीं लगा पाए। कोविड/ लॉक डाउन के कारण जो देश में आर्थिक हालात पैदा हुए उससे नीतीश को नुकसान होता दिख रहा है। प्रवासी मजदूरों में नीतीश के खिलाफ काफी आक्रोश था। एंटी इंकुंबंसी का असर भी था।
भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) को पिछले चुनाव से ज्यादा सीटें मिलने की संभावना है । जनता को भाजपा से कोई शिकायत नहीं थी। भाजपा के पास संगठनात्मक ढांचा है। कांग्रेस पार्टी की स्थिति थोड़ी सुधरती नजर आ रही है। पार्टी को पहले से ज्यादा सीटें मिलने की संभावना है।
चिराग पासवान की लोक जनशक्ति पार्टी (लोजपा) को फैक्टर माना जा रहा था लेकिन ऐसा नहीं होता नजर आया बल्कि राजद को मदद ही किया। युवा चेहरे के तौर पर तेजस्वी यादव ज़रूर अपने को स्थापित करने में कामयाब होते दिख रहे हैं। इतने कम उम्र में अपने दम पर चुनाव लडना और जीत के नजदीक पहुचना काबिले तारीफ है। नीतीश और भाजपा ने जो जंगल राज, एन आर सी/ सी ए ए का मुद्दा उठाया उनके जवाब नहीं देकर तेजस्वी यादव ने चतुराई दिखाई। अपने पिता लालू यादव की तरह जातिवादी पर कोई बात नहीं की। अपना फोकस केवल युवाओं पर रखा। सभी दलों द्वारा तरह तरह के नैरेटिव बनाए जा रहे थे लेकिन जब तेजस्वी द्वारा नौकरी का मुद्दा बनाया गया तो सभी दलों को इसी मुद्दे पर चर्चा करना पड़ा।
सरकार किसी के बने बिहार में इस बार चुनाव मुद्दे पर लड़े गए। ये एस्पिरेशनल बिहार है जो बिजली पानी सड़क से आगे आया। आगे आने वाले चुनावों में भी मुद्दों पर चुनाव आधारित होगा। राज नेताओं को भी परफॉर्म करना होगा।