–ज्ञानेन्द्र रावत
वर्तमान समय प्रकृति और मानव के विलगाव का है। असलियत यह है कि बीते हजारों सालों में सभी क्षेत्रों में वह चाहे खेती में हो, हरियाली के तौर तरीकों में हों, कंक्रीट और धातुओं से किए जाने वाले निर्माण हों, अनुसंधान हों, रासायनिक बदलाव हों, औद्योगिक क्षेत्र हों या फिर मानवीय जीवन शैली में हुए बदलावों ने काफी कुछ बदल डाला है। इससे समस्याओं का विस्तार स्वाभाविक था। आबादी में बेतहाशा बढ़ोतरी और संसाधनों की दैनंदिन अपर्याप्तता और वातावरण में प्रदूषण ने समस्या गहराने का काम किया। नतीजा यह हुआ कि इसका असर हमारे सामाजिक ढांचे और रहन सहन पर भी पड़े बिना नहीं रह सका।
जाहिर है इसका दुष्प्रभाव हमारी धरती और पर्यावरण पर भी पड़ा। और तो और तथाकथित विकास के चलते हुए बदलावों से धरती पर दिनोंदिन बोझ बढ़ता जा रहा है। इसे आज जानने समझने और सतत प्रयासों से कम करने की बेहद जरूरत है। जलवायु परिवर्तन ने इसमें अहम भूमिका निभाई है। अब यह साबित हो चुका है कि प्राकृतिक संसाधनों के बेतहाशा उपयोग और भौतिक सुख संसाधनों की चाहत में बढ़ोतरी के चलते अंधाधुंध प्रदूषण के कारण जलवायु में बदलाव आने से धरती तप रही है। इसके लिए मानवीय गतिविधियां ही जिम्मेदार हैं और कोई प्राकृतिक कारण नहीं।
जलवायु परिवर्तन और पारिस्थितिकी में आए बदलावों से यह संभावना प्रबल हो रही है कि इस सदी के अंत तक धरती का स्वरूप काफी कुछ बदल जायेगा। ऐसी स्थिति में यह आवश्यक है कि विकास को मात्र आर्थिक लाभ की दृष्टि से न देखा जाये बल्कि पर्यावरण को विकास का आधार बनाया जाये।
दुनिया में हुए अध्ययन-शोधों ने प्रमाणित कर दिया है कि हालात बहुत भयावह हैं। इसलिए अब चुप बैठने का समय नहीं है। अब भी नहीं चलते तो वह दिन दूर नहीं जब मानव अस्तित्व ही खतरे में पड़ जायेगा।
इसलिए समय की मांग है कि बिगड़ते पर्यावरण की रक्षा हेतु हर संभव प्रयास किये जायें। इस दिशा में प्रकृति से जुड़ाव बेहद जरूरी है। प्रकृति की रक्षा से ही मानव सभ्यता की रक्षा संभव है। इसके बिना सारी कवायद बेमानी होगी।