– स्वामिश्रीः अविमुक्तेश्वरानन्दः सरस्वती*
प्रयागराज: सतर्कता में शिथिलता धर्म-कर्म को भी प्रदूषित कर देती है, जो कि आज धर्म के प्रत्येक क्षेत्र में फैलती दिखाई दे रही है। आज हमारा ख़ान-पान ही नहीं, अन्न-जल तक प्रदूषित हो गया है। पूजा की सामग्री प्रदूषित है। मन्त्र-अनुष्ठान प्रदूषित हैं, भाषा-भाव और भङ्गिमा भी प्रदूषित हो रहे हैं।
यत् पिण्डे तद् ब्रह्माण्डे इस सिद्धान्त के अनुसार हमारा शरीर ब्रह्माण्ड का प्रतीक है। यह विश्व विराट् पुरुष का ही विग्रह है और नदियाँ उस विराट् पुरुष के शरीर की नाड़ियाँ हैं। जैसे कोई भी शरीर अन्दर की नसों नाड़ियों के सूख जाने या विकृत हो जाने से विकृत या विकल हो जाता है उसी तरह हमारी नदियों के सूखने या प्रदूषित होने के परिणामस्वरूप विश्व का विकल होना स्वाभाविक है। इसलिए विश्व वैकल्य को बचाने के लिए हमें हमारी नदियों के जीवन और जल को सुरक्षित रखना ही होगा। इसके लिए यथासम्भव नदी-नालों को अलग रखना, धारा को अविरल रखना, तटबन्ध पर विराजे पेड़-पौधों की सुरक्षा करना आवश्यक है।
नदी की भूमि, जल-जन्तु और वनस्पतियों आदि का मालिकाना नदियों का है – आवश्यक है कि हम और हमारी सरकारें उन्हें उनसे न छीनें। वे स्वयं में इतनी समर्थ हैं कि यदि उनकी सम्पत्ति उन्हीं की रहे तो सरकारों को नदियों के लिए बजट नहीं देना होगा, अपितु नदियाँ अपना और अपने किनारे पर बसे बच्चों और बच्चियों का पालन-पोषण स्वयं कर सकेंगी। देश की लगभग १५,००० नदियों में से गंगा-यमुना-सरस्वती; इड़ा, पिङ्गला और सुषुम्णा सरीखी नाड़ियाँ हैं। इनकी नैसर्गिक अविरल-निर्मल धारा विश्व पर्यावरणीय स्वास्थ्य को समीचीन बनाये रखने में समर्थ हैं।
कोई बलवान् किसी निर्बल को ना सताए। कोई बड़ी मछली छोटी मछली को निगल ना जाए, इसी के लिए राज्य शासन और न्याय पीठ की कल्पना की गई है। कोई अत्याचारी अत्याचार करे और उसका प्रतिकार भी पीड़ित पक्ष न कर सके – यह दोहरा अत्याचार है। हमारे धर्मस्थलों पर इतिहास में बर्बर अत्याचार हुए हैं। हम सनातनधर्मियों ने उन्हें कभी स्वीकार नहीं किया है। ये अत्याचार केवल मन्दिरों/मूर्तियों के तोड़ने, कब्जा कर उस पर अन्य धर्मस्थल दर्शाने मात्र के नहीं हैं, अपितु हमारी भूमि, नाम, प्रास्थिति आदि पर भी हमले हुए हैं।
जो लोग यह कह रहे हैं कि हमें यथास्थिति को स्वीकार कर लेना चाहिए, हमारा मानना है कि वे पूर्व में हुआ अत्याचार एक बार फिर दोहरा रहे हैं, जो कि उचित नहीं है। हमारे शास्त्रों का स्पष्ट उद्घोष है कि – सर्वान् बलकृतानर्थान् अकृतान् मनुरब्रवीत्। अर्थात् बलपूर्वक किया गया कोई भी कार्य न किए के बराबर हैं। शास्त्र कहता है – अधर्मेणैधते तावत् ततो भद्राणि पश्यति। ततः सपत्नान् जयति समूलं हि विनश्यति।। यही हाल उन सभी बलपूर्वक अत्याचार करने वालों पर लागू होती है कि उनका समूल विनाश होगा।
नये-नये देवता बनते जा रहे हैं। धर्म-अधर्म से मिश्रित हो रहा है। अभ्युदय अर्थात् लौकिक उन्नति और निःश्रेयस अर्थात् पारलौकिक लक्ष्यों की प्राप्ति करने वाले कर्मसमूह को धर्म के नाम से जाना गया है। यदि अधर्म अपने स्पष्ट रूप में हमारे सामने आए तो बहुत सम्भव है कि हम उससे बच सकें पर जब वह धर्म के रूप में हमारे सामने आता है तो उससे बचना कठिन हो जाता है। भागवत जी में व्यास जी ने अधर्म की उन पाँच शाखाओं का उल्लेख – विधर्म, परधर्म, आभास, उपमा और छल कहकर किया है। यही धार्मिक प्रदूषण है जो अधर्म को धर्म के रूप में प्रस्तुत कर हमें गर्त में ले जा रहा है। विधर्म माने धर्म समझकर करने पर भी जिससे धर्मकार्य में बाधा पड़ती हो। परधर्म माने अन्य के द्वारा अन्य के लिए उपदिष्ट धर्म जैसे ब्रह्मचारी का गृहस्थ को, गृहस्थ का संन्यासी को। आभास स्वेच्छाचार जो धर्म सा लगता है जैसे अनधिकारी का संन्यास। उपमा माने पाखण्ड/दम्भ तथा छल माने शास्त्र वचनों की अपने मन से की गयी व्याख्या या उनमें अपने मनमाना बदलाव कर देना। समस्त सनातनधर्मियों को सतर्क रहकर धर्म के सच्चे स्वरूप को समझते हुए धार्मिक प्रदूषणों से बचकर रहने की आवश्यकता है।
शास्त्र कहते हैं – जहाँ अपूज्य की पूजा होती है और पूज्य की पूजा में व्यतिक्रम होता है वहाँ दुर्भिक्ष,मरण और भय उत्पन्न होता है। हमारे वेदों में एक ही उपास्य देवता बताया गया है। वह हैं – सच्चिदानन्दघन परब्रह्म। उसी के असंख्य रूप हैं। उसी के विनोद-विलास में पाँच कर्म; उत्पत्ति-स्थिति-लय-निग्रहानुग्रह के अनुसार पाँच नाम-रूप-लीला-धाम प्रकट होकर आदित्यं गणनाथञ्च देवीं रुद्रञ्च केशवम्। पञ्चदैवतमित्युक्तं सर्वकर्मसु पूजयेत्।।का निर्देश शास्त्रों ने किया है। यह पूजा – श्रवण,कीर्तन, स्मरण, पादसेवन, अर्चन, वन्दन, दास्य, सख्य, आत्मनिवेदन रूप में नवधा होती है। ३३ कोटि देवता कहने पर भी इन्हीं पाँच कोटि के देवताओं का ग्रहण होता है। १२ आदित्य अर्थात् उत्पादक सूर्य, ८ वसु अर्थात् पोषक विष्णु, ११ रुद्र अर्थात् संहारक शिव, युग्म देवता अश्विनी कुमार अर्थात् निग्रहानुग्रहकर्ता देवता हैं। अतः यही पञ्चदेवता अपने असंख्य नामों, रूपों लीला, धामों में पूज्य होकर हमारी पूजा उस एक उपास्य देव तक पहुँचाते हैं। अतः उसी एक परब्रह्म सच्चिदानन्दघन परमात्मा की उपासना (पृथ्वी-जल-तेज-वायु-आकाश के प्रतिनिधि/अधिष्ठाता देव) गणेश-सूर्य-विष्णु-शिव-शक्ति के रूप में हो सकती है। अचेतन और अयोग्य की पूजा किसी भी दशा में नहीं की जा सकती।इन्हीं पाँचों रूपों में इष्ट देवता को मध्य में विराजमान कर बाकी चार रूपों को चार दिशाओं में विराजमान कर नियमानुसार पञ्चायतन पूजा करनी चाहिए।
‘शरीरमाद्यं खलु धर्मसाधनम्’ कहकर हिन्दु शास्त्रों में शरीर को प्रथम धर्मसाधन माना गया है इसलिए प्रत्येक हिन्दू का कर्तव्य है कि वह अपने शरीर को सुरक्षित रखे। वैसे तो-अपने शरीर को सुरक्षित रखने की चिन्ता विश्व के हर शरीरधारी को स्वभावत: रहती ही है विशेषकर मनुष्यों को,पर अन्यों की अपेक्षा हिन्दु परम धार्मिक को शरीर सुरक्षा के साथ-साथ शरीर की धर्म साधनता बनाए रखने-अर्थात् उसकी पवित्रता को बनाए रखने की भी आवश्यकता होती है।क्योंकि अपवित्र शरीर और अपवित्र मन से धर्मकार्य नहीं हो सकता। इसलिए ऋग्वेद के उपवेद के रूप में स्वीकृत आयुर्वेद शरीर की सुरक्षा, संरक्षा के साथ-साथ उसकी पवित्रता को भी बनाये रखने के लिए आदिकाल से ही प्रवृत्त है। इसे उभयलोक हितैषी कहा जाता है।तस्यायुषो पुण्यतमो वेदो वेदविदां मतः।वक्ष्यते यन्मनुष्याणां लोकयोरुभयोर्हितम् ।। इसलिए आयुर्वेद को हिन्दू चिकित्सा पद्धति के रूप में माना जाता है। आयुर्वेद बीमारी को तो ठीक करता ही है,अगर इसे ठीक से अपनाया जाए तो यह बीमार ही नहीं होने देता और तन,मन,इन्द्रिय,मन को प्रसन्न बनाये रखता है। लौकिक अभ्युदय के साथ ही साथ पारलौकिक निः श्रेयस की भी सिद्धि के लिए सभी हिन्दुओं को अपनी परम्परागत आयुर्वेद चिकित्सा पद्धति को अपनाने का आग्रह रखना चाहिए।
*उत्तराम्नाय ज्योतिष्पीठाधीश्वर जगद्गुरु शङ्कराचार्य
प्रस्तुति: संजय पाण्डेय-मीडिया प्रभारी, ज्योतिष्पीठाधीश्वर जगदगुरु शंकराचार्य।