सैरनी से परिवर्तन-8: अर्रोदा गांव ने तो सैरनी को पुनः जीवित किया है
– डॉ राजेंद्र सिंह*
चम्बल के अर्रोदा गांव सैरनी नदी के तट पर बसा हुआ है। यहां 40 परिवार निवास करते हैं। गांव नदी के किनारे बसे होने के कारण नदी के चरित्र से बहुत अच्छी तरह से वाकिफ हैं। गांव के धूप सिंह कहते हैं कि 2016 से पहले नदी में बरसात के समय जो पानी बरसता था, वो सीधे बहकर नीचे आता था, जो उनके खेतों को काटकर ले जाता था। उनकी फसलें चौपट हो जाती थी। इसलिए गांव में खरीफ की फसल बिल्कुल भी नहीं होती थी।
नदी में दीपावली के आस-पास पानी नहीं रहता था, जिससे अगली फसल भी बहुत कम हो पाती थी। गांव की जवानी व किसानी उजड़ गई थी। लोगों के पास रोजगार के अभाव में खनन कार्य करते थे। यह कार्य बहुत कठिन होता था। इसकी धूल से फेफड़ों को बीमारी हो जाती है। शिक्षा और स्वास्थ्य दोनों में बहुत गिरावट थी। गांव की अधिकतर आबादी उजड़ गई थी। गांव के बुजुर्ग लोग बैठे बैठे हुक्का पीते रहते, जो जवान युवाओं को भी प्रभावित कर रही थी।
आगे गांव के सियाराम जी ने कहा कि गांव के सामने हिंसा, लाचारी, बेकारी, फरारी और बीमारी थी। तरुण भारत संघ ने गांव में बिलागढ़ का ताल, रूंध का ताल, धूप सिंह का एनीकट, परेला की पोखर, मासलपुरिया की पोखर, खोंड की पोखर को बनाने का काम किया। जिससे जल संकट पूरी तरह से मिट गया। “मेरा जहां 5 मन अनाज नहीं होता था, आज वहीं 300 मन गेहूं तथा 100 मन सरसों हुई है। मेरे ही नहीं, इसी प्रकार की पैदावार सारे गांव में बढ़ गई है,” उन्होंने बताया।
मेघराम ने कहा कि जब उनके गांव में पानी नहीं था, तब उन्होंने 400 फीट बोरवेल कराया था, इसने एक-दो वर्ष पीने को पानी दिया, लेकिन वह भी सूख गया था। आज जब नदी पुनर्जीवित हुई तो वही बोरवेल रात दिन पानी दे रहा है। “अब मैं इस से दूसरों को भी पानी देता हूँ,” उन्होंने कहा।
आंखो में पानी भरते हुए मीरा देवी ने अपनी कहानी सुनाई कि गांव में पहले बहुत कम मेहमान आते थे क्योंकि यहां पर कोई मिलता नहीं था, बाहर निकल जाते तथा परिवार में कोई भी अपनी लड़की नहीं देते थे। आज सारा गांव साथ बैठता है। गांव में खूब मेहमान आते हैं। गांव में दो नाले हैं – किलागढ़ का नाला और रूंध का नाला। दोनों पर तालाब-पोखर बनने से आज मई के माह में भी पानी बह रहा है, जो सेरनी नदी को पुनर्जीवित कर रहा है।
“अर्रोदा ने सैरनी को तो पुनः जीवित किया है, हम सभी को भी जीवित बना दिया है,” गांव के ब्रज किशोर ने कहा। उन्होंने बताया कि वह घर पर बिना काम के बैठा रहता था। जब से गांव पानीदार हुआ, तब से उसकी खेती हुई और पशुधन भी बढ़ा है। “अब मैंने 25 बकरियां ली हैं, जिन्हें चराने जाता हूं और अब मेरे दिन चैन से गुजरते है। मैं सभी तरह से सब्र-संतोष से जीता हूँ,” उसने कहा।
अर्रोदा गांव के लोगों ने अपने गांव की कहानी सुनाते हुए कहा कि पहले यह नदी वर्षा के दिनों में ही बहती थी, दीपावली के दिनों में इसमें आंसूओं का पानी भी नहीं मिलता था। आज वही नदी अपनी मंद-मंद मुस्कान के साथ गर्मी में भी बह है। लोग मछली पकड़ते है, नहाते – धोते है। एक बहुत अच्छा वातावरण पैदा हो रहा है। गांव में चारों ओर शांति है। मेहमान प्रतिदिन आते-जाते रहते है। लड़के और लड़कियां स्कूल जाने लगी है।
सैरनी के बहने से सभी को सभी कुछ मिलने लगा है। इस गाँव में आपसी ईर्ष्या-द्वेष अब धीरे-धीरे मिट रहा है। चारों तरफ हरियाली-खुशहाली है। लोग भी मालामाल बनकर चैन से रहते हैं।
*लेखक जलपुरुष के नाम से विश्व विख्यात जल संरक्षक हैं।