सैरनी से परिवर्तन-7: अपनी कहानी कहता गढ़मण्डोरा
– डॉ राजेंद्र सिंह*
करौली जिले की तहसील मासलपुर के ग्राम गढ़मण्डोरा जंगलों के बीचों-बीच बसा हुआ है। यह मासलपुर तहसील मुख्यालय से 15 किलोमीटर उत्तर की ओर है। इस गांव में सभी जातियों के 125 परिवार निवास करते हैं।
पहले गढ़मण्ड़ोरा गाँव में जाने से लोग डरते थे। गाँव में 10 वर्ष पहले अजीविका के संसाधन जंगलों से लकड़ी बेचना, पशुधन तथा बहुत पलायन था। गाँव में जल स्रोत तो थे, लेकिन या तो सूखे थे या फिर बर्बाद पड़े थे। कोई रख-रखाव नहीं था। इस तरह यह गाँव के लोगों का जीवन भी जंग से लड़ रहा है।
गांव के काशीराम ने कहा कि आज जो जंगल हरे-भरे दिख रहे हैं, वह दस वर्ष पूर्व नहीं दिखते क्योंकि इस जंगल से प्रतिदिन हजारों की संख्या में महिलाएँ दूसरे क्षेत्रों की लकड़ी काटकर ले जाती हैं। प्रतिदिन सैंकडों ऊँट लकड़ी लादकर शहर की ओर ले जाते हैं। जंगल तेजी से खत्म हो रहा है।
जब जंगल बर्बाद थे, तो वर्षा बहुत कमजोर होती थी। बादल आते थे लेकिन बरसते नहीं ,चले जाते थे। कभी-कभी तो एक-दो बार ही पानी बरसता था। फसलें नहीं हो पा रही थी। गढ़मण्ड़ोरा निवासी बलवीर सिंह ने कहा कि जब से तरुण भारत संघ के सहयोग से गांव में पानी का प्रबंधन हुआ है, आज वे तीन फसलों को उगा रहे हैं। उनका पशुधन पहले बहुत कम था, वह बढ़ा है। आज एक-एक लाख रूपये तक का दूध बेचते हैं। “मैंने खुद 1.25 लाख रूपये का दूध बेचा, तीन लाख रूपये की सरसों तथा इतना ही गेहूँ। अब हमने पंचायत के जंगलों से लकड़ी का अवसाद बिल्कुल बंद कर दिया है,” उन्होंने कहा। उन्होंने शिकायत की कि अब सरकार वन्य अभ्यारण के लिए जंगल को उनसे छीनना चाहती है। “यह बहुत बड़ा संकट हमारे सामने खड़ा होने जा रहा है। पहले पानी और अब आजीविका का बड़ा संकट पैदा हो रहा है,” उन्होंने कहा।
आज हमने गाँव में 20-25 जल संरचनाओं का निर्माण तरुण भारत संघ के सहयोग से किया है। इससे सैरनी नदी की एक धारा का प्रवाह यहीं से होता है, जिसका नाम भयरो नाथ की खोह का नाला है, जो सैरनी नदी में मिलता है। वहां पर इसको रसतई बोलते हैं। आज बादल आते हैं, बरसते हैं तथा यह धार बारह माह बहती है। यह हमें सींचती है और सैरनी नदी को सहेजती है। यह विरहटा, बरतने का पुरा को भी पानीदार बनाने का काम करती है।
गाँव की मीरा देवी ने कहा कि पहले महिलाओं के जीवन पर बहुत बड़ा संकट था, लोग शराबी व आतंकी थे। घर से निकलना भारी होता था। पानी दूर-दूर से आता तो अकेली महिला पानी नहीं ला सकती थी। शराब पीने वालों व आतंकियों का बहुत बड़ा डर था। जंगल में चारों ओर डकैत रहते थे। महिलाएँ खेत-खलियान व पानी के लिए समूह में जाती थी। इस तरह गांव में भय का माहौल था। आज तो सभी पानी आने से खेती व पशुपालन से जुड़े हैं, गलत कामों के लिए समय ही नहीं मिलता। “अब हम लोग निडर होकर काम करते हैं”, उन्होंने बताया।
रामप्रकाश शर्मा ने कहा कि, जब गांव में पानी नहीं था, तो लोग अपनी जमीन को बेचकर बाहर जाने लगे तथा शहरों के बड़े-बड़े लोग यहाँ जमीन खरीदने लगे जैसा करौली से किसी ने यहाँ 50 बीघा जमीन खरीदकर, क्रेसर का प्लांट लगाया है। किसी और ने सैंकडों बीघा जमीन खरीदी तथा बहुत बड़ा 100 फीट बोरबैल कराया लेकिन पानी नहीं मिला। आज गांव में खेतों में ही लोगों को रोजगार मिल गया है। यहाँ पहले सब जातियाँ एक-दूसरे पर निर्भर थी, वही गाँव आना पुनः आरंभ हुआ है।
इस तरह गांव के बुर्जुग 90 वर्षीय भंवर सिंह ने बताया कि उनके सामने गांव में खुशहाली थी लेकिन लोगों ने जंगल काटा व खनन किया, जिससे वर्षा कम होने लगी, पशुधन कम हुआ तो लोग एक-एक पैसा के लिए मुहताज हो गए। पैसा कमाने का लालच में लोगों ने अवैध शराब बनाना शुरू किया और हिंसात्मक कार्य करने लगे। लेकिन आज जब से तरुण भारत संघ ने सहयोग से पानी को रोका तो लोगों ने हिंसात्मक कार्य छोड़कर,खेती के कार्य करने लगे। आज लोग अच्छे मकान बना रहे हैं, बच्चों को पढ़ा रहे हैं और सब खुश होकर आनंद से जी रहे है।
*लेखक जलपुरुष के नाम से विश्व विख्यात जल संरक्षक हैं।