रविवारीय: उफ़ ये परिक्षाएं
– मनीश वर्मा’मनु’
कुछ दिन पहले ही दसवीं और बारहवीं की परिक्षाएं ख़त्म हुई थीं। पहले जब हम लोगों की परिक्षाएं ख़त्म होती थीं उसके पहले ही हमारा प्लान ‘ए’ और प्लान ‘बी’ तैयार रहता था। मतलब साफ है परिक्षाओं की समाप्ति के बाद हमें क्या क्या करना है यह हम तय करते थे। हाँ यह बात ज़रूर है कि जहां पैसों का मामला होता था तो गेंद हमेशा मां – पिताजी के पाले में ही रहती थी।
खैर! अब क्या स्थिति है किसी से छुपी हुई नहीं है। परिक्षाएं ख़त्म अभी हुई भी नहीं है और अभिभावकों का प्लान ‘ए’ और प्लान ‘बी’ तैयार। रही सही कसर कुछ तथाकथित बड़े और नामी स्कूल वाले ने पूरी कर दी। अभी दसवीं की परिक्षाएं ख़त्म हुई भी नहीं और ग्यारहवीं की पढ़ाई शुरू। ऐसा लगता है बच्चे इंसान न होकर मशीन बन गए हैं। अरे दो चार दिन रूक जाते तो क्या आसमान टूट पड़ता?
अभी अभी परिक्षाओं के परिणाम आए हैं। पूरे शहर में एक गहमागहमी का माहौल है। बच्चे तो खैर अपने रिजल्ट के लिए उत्सुक और आप कह सकते हैं, कुछ हद तक परेशान भी थे। क्या परिणाम आएगा? जो सोचा है वो आ भी पाएगा या नहीं? पर, इन सभी बातों से इतर परिक्षाओं का परिणाम जैसे बच्चों का ना होकर गोया खुद उनके अभिभावकों का हो गया हो। ऐसा पहले भी था पर अब तो कुछ ज्यादा ही हो गया है।
उनकी आकांक्षाएं बच्चों पर कितना दवाब बना रही हैं इस बात से बिल्कुल बेखबर हैं आज के अभिभावक। नंबर जैसे बच्चों का ना होकर खुद उनका हो गया हो। मैं तो बड़े ही स्पष्ट शब्दों में कहूंगा मां – बाप जो नहीं कर पाए वो उसे अपने बच्चों से पूरा करवाना चाहते हैं। बच्चों की पसंद और नापसंद की उन्हें कोई फ़िक्र नहीं। परिक्षाओं के परिणाम घोषित हुए नहीं कि अभिभावकों की भागदौड़ शुरू हो जाती है। इस कोचिंग में या फ़िर उस कोचिंग सेंटर में एडमिशन। ये स्कूल नहीं वो स्कूल। अपनी हैसियत से बढ़कर अपने बच्चों को पढ़ाने की ख्वाहिश। इन सब के बीच एक बाजार तैयार है। आपकी ख्वाहिशों और आपके अरमानों को कैश करने के लिए। आपको पता भी नहीं चलता है और यह बाजार रूपी ऑक्टोपस आपको अपनी बाहों में जकड़ लेता है। अफसोस होता है कि हम समझ क्यों नहीं रहें हैं?
बच्चों को एक मशीन बना दिया है हमने। उनका बचपना कहीं खो सा गया है। उनकी नैसर्गिकता खो गई है। उनकी नैसर्गिकता को हमने हैक कर लिया है। हां! अब वो बच्चे कहां रहे। हमने तो उन्हें मशीन बना दिया है। कारखाने की वो मशीन जो अनवरत चलती जा रही है। अरे भाई, मशीन भी लगातार चलते रहने की वजह से दम तोड़ देती है। बच्चे तो खैर इंसान हैं। जब कभी अत्यधिक दवाब की वजह से कुछ ऐसा वैसा हो जाता है तो हम अपने किस्मत को कोसने लगते हैं।आपको तब भी अहसास नहीं होता है कि गलती सिर्फ और सिर्फ आपकी है। कभी आपने बच्चों से उनकी पसंद जानने की कोशिश की। हमेशा अपनी थोपते रहे। अपनी कुंठा को लेकर उनके बचपन से खेलते रहे। बच्चों से खुलकर उनके करियर, उनकी भविष्य की योजनाओं को लेकर उनसे एक मित्र की तरह बातें करें। अपनी बातों को जरूर रखें पर उनकी भी सुनें। उनकी क्षमताओं को उनकी रुचिओं को जानने की कोशिश करें। बच्चे उस क्षेत्र में बहुत अच्छा करते हैं जिस क्षेत्र में उनकी रुचि होती है। अगर उनकी पसंद एक क्रिकेट खिलाड़ी बनने की है तो आप उन्हें हाकी खिलाड़ी नहीं बना सकते हैं।
अरे उन्होंने तो अभी अपनी ज़िन्दगी की शुरुआत की है। उन्हें कुछ दिन तो अपने मुताबिक जी लेने दें। बाद में तो पूरी ज़िन्दगी पड़ी है तनाव और दवाब लेने के लिए।
“शहर सिखावे, कोतवाल सीखे।” कोई जन्म से सीख कर नहीं आता है। वक्त और हालात इंसान को सब कुछ सीखा देते हैं। बस आप उन पर एक पैनी नजर रखें। जहां आपको लगे कि वो थोड़ा भटक रहे हैं आप सामने आएं और ज़रूर आएं। अपने अनुभव को उनके साथ बांटे। परिणाम हमेशा सार्थक रहेगा।
बिल्कुल सही. बच्चे लगातार परीक्षाओं के भार से सही बचपन एंजॉय नही कर पाते हैं आज के समय मे.
शिक्षा के हो रहे बाजारीकरण के साइड इफेक्ट के प्रभाव को लघुत्तर करने का आपका सुझाव उत्तम है।