रविवारीय: परी कथा और मृगतृष्णा
छोटे शहरों में रहनेवालों के लिए बड़े शहरों की बातें करना एक परी कथा के समान है। किसी ने परियों की दुनिया नहीं देखी पर बातें ऐसी करेंगे कि लगेगा उन्होंने ही वह दुनिया बसाई है। ख़ुदा ना ख़ासते अगर उस बंदे ने गलती से भी बड़े शहर में दो चार दिन बिताए होंगे तो यकीन मानिए उसकी बातें ऐसी होंगी कि आप बस मंत्रमुग्ध हो कर सिर्फ और सिर्फ सुन ही सकते हैं।परी कथा से किसी मामले में कमतर नहीं होगी उसकी कहानियां। पर, अगर ग़लती से भी कहीं किसी ने सवाल कर दिया तो भाई साहब …अब तो भगवान ही मालिक।
खैर!
जब आप किसी बड़े शहर में क़दम रखते हैं और रेलवे स्टेशन, बस अड्डे या फिर एयरपोर्ट से बाहर निकलते हैं तो सबसे पहले आपका जिस व्यक्ति से आमना सामना होता है वो अमूमन टैक्सी ड्राइवर, ऑटो रिक्शा ड्राइवर होता है। ओला – उबर के जमाने में भी मत पूछिए ऐसा लगता है पूरे दिन की कमाई वो सिर्फ़ एक व्यक्ति से ही कर लेना चाहता है। हमारी गर्दन पर मानो उसकी पकड़ बढ़ती जा रही है और हम कुछ नहीं कर सकते हैं सिर्फ अपनी इज्जत बचाने में लगे होते हैं। कहीं बाहर से आने का उत्साह इनसे आमना सामना होते ही काफूर् हो जाता है।
खैर! इनसे किसी तरह से बचते बचाते हुए, कुछ समझौता वादी बनते हुए अब पहुंचते हैं अपने गंतव्य पर।
पर, सारा ठीकरा इन्हीं के सिर पर क्यों फोड़ा जाए। अमुमन सारे लोग ऐसा लगता है बस जितना हो सके छीनने की जुगत में लगे हुए हैं। कैसा समाज हम बना रहे हैं। हम इन्हें भी पुरी तरह से ग़लत नहीं ठहरा सकते हैं। सामाजिक बदलाव के इस दौर में पता नहीं हम कैसे समाज का निर्माण कर रहे हैं। जो जहां मजबूत है वहीं अपनी चला रहा है।
पुराना समाज ही शायद सही था। जब परिवार नाम की संस्था का भी अस्तित्व था। सभी मिलजुल रहते थे। आपसी प्रेम भाव और भाईचारा कायम था। हम सभ्य क्या हुए सारी समस्याएं सामने आकर खड़ी हो गई हैं। न्यूक्लियर परिवार का निर्माण कर तो हमने शायद लोगों को टुकड़ों में बांट दिया है।
यह समस्या वैसे तो लगभग सभी जगह पाई जाती है पर, बड़े शहरों में कुछ ज्यादा ही है। छोटे शहरों में, भले ही दुनिया आभासी हो गई है पर थोड़ी सी जो सामाजिकता की डोर बची हुई है वो सामने आकर थोड़ा प्रभाव जरूर डालती है। बड़े शहरों में तो हम सभी एक मशीन की तरह दिन रात लगे हुए हैं। अस्तित्व बचाने की कोशिश चल रही है। मार काट मची हुई है। एक होड़ सी मची हुई है। हर व्यक्ति एक दूसरे से आगे निकल जाने को बेचैन है। आखिर वो अपने गांव, अपने कस्बे को छोड़कर यहां आया ही क्यों है? कमाने ही तो आया है। अगर नहीं कमा पाया। बच्चों की बढ़िया परवरिश ना कर पाया तो लोग क्या कहेंगे। बस इसी के लिए तो दिन रात कोल्हू के बैल की तरह जुता हुआ है काम में। ना दिन का होश है। ना रात की ख़बर।
समय धीरे धीरे बालू की तरह बंद मुट्ठी से निकलता जा रहा है। हम नहीं समझ पा रहे हैं कि कुछ पाने की लालसा की हम कितनी बड़ी कीमत चुका रहे हैं। जिस जहाज़ पर हम सवार हैं वो धीरे धीरे डूब रहा है। कोई नहीं बचने वाला नहीं है। सुनामी सब कुछ लीलने को बड़ी तेजी से आगे बढ़ रही है।पर, हमें सुध कहां है?
अब भी वक्त है।इस मृगतृष्णा को पहचानना ही होगा। अब नहीं तो फिर कब?
आज के आधुनिक जीवन का सही चित्रण