रविवारीय: जीने की चाह
आखिर क्यों है हमें जीने की चाह?
पल पल मुझे ऐसा लग रहा है कि मैं मर रहा हूँ। मैं जिंदा हूँ शायद पर, मुझसे बेहतर तो मरे हुए हैं। कम से कम एक कश्मकश तो नहीं रहती है उनके मन में। हम तो भाई देखते कुछ और हैं पर बोलते कुछ और हैं। अपना तो एक सीमित दायरा है। लक्ष्मण रेखा है अपनी। जहां पार किए अंपायर की उंगली उठनी तय है। कोई डी.आर. एस. नहीं। कहने को हम जिन्दा हैं पर हमारी सांसें भी पहरे में है। शायद कभी सतयुग, कलयुग या फिर त्रेतायुग और द्वापरयुग इस तरह की बातें बड़ी बेमानी लगती थीं। पर, आज लगता है कि हम कुछ वैसे ही युग में जी रहे हैं जहां हमारी सांसें जरूर चल रही हैं। खा पी रहे हैं हम। पर, दिल पर हाथ रख हम कह सकते हैं कि हम जिन्दा हैं। शायद नहीं। पता नहीं कौन से युग में जी रहे हैं हम!
मेरा दम घुट रहा है। मैं जीना चाहता हूँ। आखिर क्यों है हमें जीने की चाह? मेरी जीने की ललक बढ़ती जा रही है। जीवन के टेढ़े मेढे उलझन भरे रास्तों से से बचकर, दाल रोटी से परे जीवन जीना चाहता हूँ। जी हां! मैं जीना चाहता हूँ उनके बीच, उनके साथ जहां मेरा मुझे मेरे फेस वैल्यू से जाना जाए, हां जहां मेरा प्लेस वैल्यू गौण हो।
हां बिल्कुल, मैं मरना नहीं चाहता। मरने से मुझे डर लगता है। मैंने देखा है लोगों को मरते हुए। तिल तिल कर मरते हुए। वो जीना चाहते थे। चाहते थे एक चेहरे के साथ जीवन जीना पर, मजबूर थे कई चेहरों के साथ जीने को।
सारी कवायद तो ‘ मनु ‘ बस जीवन जीने के लिए ही तो होती है। मैं जीना चाहता हूँ। मुझे मालूम है, मृत्यु एक शाश्वत सत्य है। आज नहीं तो कल आना ही है। कब आएगी, कोई नहीं जानता है। जिसे मालूम है, हमने उसे भगवान का नाम दे रखा है। हमने उन्हें देखा नहीं है। हम उन्हें बिल्कुल नहीं जानते हैं। पर, सारी जिंदगी हम उनके सहारे काट देते हैं।
आखिर क्यों है हमें जीने की चाह? कौन कमबख्त मरना चाहता है? सारी ज़द्दोज़हद के बावजूद भी जिंदगी बहुत ही खूबसूरत लगती है। इसका हर अहसास, हर लम्हा खूबसूरती से भरा पड़ा लगता है।
मुझे जीना है पर मौत भी तो एक शाश्वत सत्य है! मौत एक सच्चाई है इसे हम इंसान क्यों नहीं समझ पा रहे हैं? क्या इस सच्चाई से हम मुँह मोड़ सकते हैं?
तो आखिर क्या वजह है कि मुझे कहना पड़ रहा है कि मैं जीना चाहता हूँ? अचानक से मुझे ऐसा क्यूं लगने लगा है कि मौत हर पल मेरे करीब आती जा रही है? मुझे हर कदम पर मौत दिख रही है? क्या भगवान, जिन्हें हमने देखा नहीं है, बस सिर्फ उनके नाम के सहारे हम पूरी जिंदगी काट दिया करते थे, क्या वो मुझसे रूठ गए हैं?
मेरी जीने की चाह अब और प्रबल हो उठी है। पर मैं तिल-तिल कर मरना नहीं चाहता।जी हां, मैं जीना चाहता हूँ। कल तक हम जीवन और मृत्यु के बारे में सोचते तक नहीं थे। आज मृत्यु मेरे सपनों में भी आकर मुझे डरा जा रही है। शायद, उम्र का एक दौर है ये।
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निस्संदेह, जब तक हमारी पहचान प्लेस वैल्यू को हटाकर फेस वैल्यू से नहीं की जाएगी, तबतक व्यक्ति के रूप में हमारे होने पर ही सवालिया निशान है।
Excellent 👌,you have clearly, distinctly mesmerized by conceiving the thought of difference between true and truth.
The real and natural concept gets developed with pure thinking,my all blessings with you and with your members of family.
सुंदर तथयपरक एक गंभीर आलेख