रविवारीय
बचपन से ही डालमियानगर को लेकर मन में एक कौतूहल सा था। एक उत्सुकता थी डालमियानगर को जानने की। औद्योगिक नगरी के रूप में अपनी एक अलग पहचान बनाने वाले शहर डालमियानगर की ख्याति उसकी समृद्धि को लेकर आम लोगों के ज़ुबां पर थी। बहुत कुछ तो मेरी यादों में नहीं है। मेरी उम्र उस वक़्त बहुत कम थी, पर, हां मुझे याद है ‘हनुमान ब्रांड डालडा’। सभी वनस्पति तेल उस ज़माने में ‘डालडा’ ही तो कहलाते थे! घर घर पहुंच थी उसकी। अचानक से एक दिन मालुम पड़ा शहर डालमियानगर एकाएक वीरान हो गया। अचानक से पर्दे का गिरना और नाटक का पटाक्षेप होना। एक दु:खद अंत ।
सन् 1938 में नेताजी सुभाष चन्द्र बोस ने यहां सीमेंट फैक्ट्री का उद्घाटन किया था। लगभग 219 एकड़ में फैला हुआ औधोगिक क्षेत्र डालमियानगर उस वक़्त आसपास के क्षेत्रों की आर्थिक व्यवस्था की रीढ़ हुआ करता था। बिहार में सोन नदी के किनारे पर बसा शहर डालमियानगर और डेहरी ऑन सोन दोनों एक ही है यह तो मुझे बहुत बाद में पता चला। दरअसल डेहरी ऑन सोन के अंतर्गत ही शहर डालमियानगर का अस्तित्व है।
जब यहां की फैक्ट्रियां चल रहीं थीं तो यह औधोगिक क्षेत्र दुधिया रोशनी में नहाया हुआ रहता था। 13 से अधिक विभिन्न प्रकार के कारखाने यथा – सुगर, सीमेंट, पेपर, स्टील, रसायन, एस्बेस्टस, वनस्पति तेल आदि से आच्छादित यह विशाल परिसर चौबिसों घंटे गुलज़ार रहा करता था । 1984 में कारखानों के बंद होते ही यहां वीरानी छा गई। 1984 से यहां की विद्युत आपूर्ति ठप्प थी। कोर्ट द्वारा मामला लिक्विडेशन में चला गया था। अभी एक-दो साल पहले ही पटना उच्च न्यायालय ने एक अहम निर्णय देते हुए कहा कि लोगों की मूलभूत आवश्यकताओं, यथा पानी बिजली को बंद नहीं किया जा सकता है । इस निर्णय के आलोक में यहां पुनः बिजली की आपूर्ति बहाल करने की प्रक्रिया शुरू हो चुकी है। बिजली के अभाव में यहां के लोग सौर बिजली या फ़िर अन्य विकल्पों के सहारे किसी तरह जीवन जी रहे थे। उनके समक्ष जाएं तो जाएं कहां वाली स्थिति थी। अचानक से सभी कुछ ख़त्म। जब आप वहां पहुंचेंगे तो अनुभव करेंगे। शहर डालमिया नगर से बहुत पहले ही उसकी आत्मा निकल कर दूर कहीं दूर जा चुकी थी । अब तो बस सिर्फ और सिर्फ मृत शरीर ही बचा था।
लालू प्रसाद के रेल मंत्री रहते हुए इस परिसर में रेल वैगन के निर्माण की बात शुरू हुई थी। अभी हाल में ही रेलवे की आनुषांगिक कंपनी राइट्स ने यहां के स्क्रैप के लिए टेंडर प्रक्रिया की भी शुरुआत की है। चलिए कम से कम वेंटिलेटर के सहारे शहर डालमिया नगर की आत्मा को वापस लाने की कोशिश तो हो रही है। हम सभी की शुभकामनाएं। शहर डालमियानगर में आज़ भी इतनी जान बाक़ी है कि कुछ न बोलते हुए भी यह क्षेत्र इतना कुछ बोल जा रहा है, जितना कोई जिंदा शायद ही बोल पाए। पता नहीं किसके अहं की बलि चढ़ गया शहर डालमियानगर। वैसे तो बोनस, सैलरी, मज़दूरी आदि को लेकर तो हर कर्मचारियों और उनके नियोक्ताओं के बीच एक समस्या हमेशा रहती है।
संस्थान चाहे सरकारी हो या फ़िर गैर-सरकारी, दोनों के बीच एक कश्मकश ज़ारी रहना एक आम बात है। उसी दरम्यान मजदूर संघों और अन्य संगठनों का संस्थान के स्टेक होल्डर्स के साथ रस्साकसी एक अलग ही दृश्य है। पर कर्मचारियों के लिए इन सभी के बीच अपना हित तलाशने की भी जरूरत है। नियोक्ता और कर्मचारी संगठन एक दूसरे के पूरक हैं। दोनों ही अस्तित्व विहिन हैं एक दूसरे के बिना। दोनों को अपनी अपनी सीमाओं में रहते हुए प्राथमिकताएं तय करने की जरूरत है। कर्मचारी संगठन तो एक सेफ्टी वॉल्व की तरह होता है। क्या हुआ? कुछ तो उस वक्त की कानून और विधि व्यवस्था की समस्या ने मामले को गंभीर बनाया और रही सही कसर मजदूर संघ के नेताओं के अकखडपन ने पुरी कर दी। परिणाम आपके सामने है। कुछ लोगों के ज़िद की कीमत कितनों पर भारी पड़ी ! आंकलन करना शाय़द बहुत मुश्किल होगा। यहां के अधिकारियों से लेकर कर्मचारियों तक के रहने के लिए बने हुए, ए से लेकर एस टाइप के क्वार्टर, स्पोर्ट्स कांप्लेक्स, बाज़ार, बंद पड़ी हुई फैक्ट्रियां आज़ भी शाय़द इंतज़ार कर रही हैं। कोई तो आए। समृद्धि तो अवशेष में आज़ भी दिखाई दे रही है। लगभग चौदह हज़ार छोटे बड़े कर्मचारियों और उनसे जुड़े हुए लोगों से हमेशा गुलज़ार रहने वाला शहर डालमियानगर आज़ बदहाल है, बेहाल है। अपनी दास्तां खुद बयां कर रहा है। क्या नही था यहां !
पर फिर अचानक से किसी की नज़र लग गई। रात में भी गुलज़ार रहने वाला शहर डालमियानगर अचानक से ख़ामोश हो गया। जिन्होंने इसे बसाने की ज़िम्मेदारी ली थी वो हार गए।
स्वर्गीय रामकृष्ण डालमिया का शुरू किया हुआ यह वेंचर, जिसे उनके दामाद, जिनके नाम पर कई शिक्षण संस्थान भी हैं, के प्रयासों ने इस शहर को चार चांद लगा दिया था। पर कुछ लोगों के व्यक्तिगत अहंकार ने बर्बाद कर दिया इसे। सच्चाई कहां तक है मुझे नहीं मालूम पर यहां के लोगों से बातचीत करने पर पता चला कि मजदूरों के आंदोलन के दौरान जब यहां के मालिक और मजदूरों के बीच वार्ता हो रही थी तो किसी ने मालिक के ऊपर जूता फेंक दिया था। शायद वो एक त्वरित कारण रहा इस परिसर के बंद होने का। किसी की व्यक्तिगत कारगुज़ारी ने पूरा का पूरा बंटाधार कर दिया।
इसकी समृद्धि का अनुमान आप हम इसी बात से लगा सकते हैं कि यहां औधोगिक क्षेत्र के परिसर में हवाई पट्टी तक बनी हुई है। काश ! शहर डालमियानगर आज अगर अपने अस्तित्व में होता तो शायद टाटा और बोकारो की समृद्धि और ख्याति के साथ इसका भी नाम जुड़ा होता।
पर नियति को कुछ और ही मंज़ूर था ।
बढ़िया लेख। इस शहर की स्थिति सचमुच गंभीर है। सरकार को पहल करनी चाहिए।
main Dehri on sone ka sdm thha Manu main yahan k halat se waqif hoon ek jamane m Gulzar rahne wala dalmia Aaj waqai badhaal hai main ne bhi suna hai mazdoor union k zidd aur non cooperation k chalte owner isko chhorne p majboor ho Gaye bahut sare employees Berozgar ho gaye Dehri ki saari raunak khatam ho gayi Dalmiay Factory k band hone se Jo nuksan hua uski purti karna impossible hai tumne bahut achhe se iski badhali ka chitran kiya hai