रविवारीय: बचपन की दिवाली
इस बार की दिवाली पर बचपन की बातें करते हैं। धुंधली सी यादें कभी कभी सामने आ खड़ी होती हैं। पूरी की पूरी यादें एक फिल्म की तरह फ्लैशबैक में चलने लगती हैं।दिवाली के समय अच्छी खासी ठंड पड़ जाती थी तब। ग्लोबल वार्मिंग का कोई आभास नहीं था। और फिर ठंड में नहीं नहाने के नित्य नए बहाने ढूंढा करते थे। गीज़र तब इतना आम नहीं हुआ करता था जितना आज है। शायद देखा भी नहीं था। सरकारी नलों से पानी आया करता था, पर उसका एक समय तय था। भूमिगत बोरिंग का पानी हुआ करता था, जो पुरे मुहल्ले में पानी की आपूर्ति का मुख्य साधन था। इसके अलावा कूंए या फिर हैंडपंप से पानी निकलता था। अमूमन हर मोहल्ले में एक कूंआ जरूर होता था। जब कभी बोरिंग खराब होता था तो हम सबों की पानी की निर्भरता कूंए पर ही रहती थी। पानी का स्रोत भूमिगत था इसलिए गर्मी में पानी थोड़ा ठंडा और सर्दियों में थोड़ा गुनगुना रहता था। अपार्टमेंट बनने की शुरुआत तब नहीं हुई थी। शायद इसलिए टंकियों में पानी जमा कर रखने की जरूरत नहीं होती थी। टंकियों में जमा पानी गर्मियों में गर्म और सर्दियों में ढंडा रहता है। आज अपार्टमेंट में हम सभी रह रहे हैं। मजबूरी है टंकी में जमा पानी इस्तेमाल करना। लाज़िमी है सर्दियों में गीज़र की जरूरत पड़ेगी। थोड़ा पीछे जाकर याद करें अमूमन हर घर में एक आंगन और एक बरामदा हुआ करता था। आंगन के एक कोने में एक छोटी सी जगह को बाथरूम की शक्ल दे दी जाती थी। छत भी नहीं होता था उस पर। दूसरे कोने में या फिर घर के बाहरी हिस्से में शौचालय हुआ करता था। आंगन के ही एक भाग में पानी जमा रखने के लिए आवश्यकतानुसार एक हौद या हौज का निर्माण किया जाता था। अमूमन हर मध्यमवर्गीय परिवारों में घर कुछ ऐसा ही होता था।
तो हम ठंड में नहाने की बात कर रहे थे। गीज़र था नहीं तो नहाया कैसे जाए? अगर जल्दबाजी में नहाना है तब तो डेगची में पानी गर्म हुआ और बाल्टी में मिला कर नहा लिया, पर अगर समय है तो पानी की बाल्टी को दो- चार घंटे छोड़ दिया गया खुले आसमान के नीचे सूर्य की किरणों के रडार पर। नहाने के वक्त पानी थोड़ा गुनगुना हो जाता था। क्या दिन थे वो! दिवाली जैसे त्यौहार के दिन स्नान करना तो अति आवश्यक था सभी के लिए।
हम आपको यह सब बता कर आपको बीते दिनों की याद दिला कर नोस्टाल्जिक नहीं बना रहे हैं। हम तो बस आपको उन दिनों की याद करा रहे हैं जब जिंदगी बहुत ही आसान, सरल सहज और खुबसूरत हुआ करती थी।
जब हम बचपन की बातें कर ही रहे हैं तो ले चलते हैं आपको अपने बचपन में। एक वाक्या है जो आज तो बड़ा मजेदार जान पड़ता है पर जिस दिन का वाक्या है, जिस तरह की घटना हुई थी उसने तो मेरा जान ही सुखा दिया था।
माँ मेरी शिक्षिका थीं। समाज में उनकी अपनी एक अलग पहचान, उनकी अपनी इज्जत थी। उस इज्जत का लाभ हम बच्चों को मिलता था। तब शिक्षकों की एक अलग ही वैल्यू हुआ करती थी। सामाजिक तौर पर बड़ी प्रतिष्ठा थी। बड़े आदर और सम्मान से शिक्षकों को देखा जाता था। उस दिन की बात है, साइकिल चला रहे थे हम । यूं कहिए साइकिल चलाना सीख रहे थे। साइकिल थोड़ी ऊंची थी 24 इंच वाली। हाइट अपनी उतनी नहीं थी कि ऊपर सीट पर बैठकर साइकिल चला पाएं। हम हाफ पैडल ही साइकिल चला पाते थे। हम उसे हाफ पैडल ही कहते थे। उस तरह के साइकिल चलाने को कुछ लोग कैंची भी कहते थे।मतलब साइकिल के फ्रेम के दोनों तरफ अपने पैरों को पैडल पर रख दिया और हाथ हैंडल पर।
दिवाली के ही दिन हम साइकिल चला रहे थे हॉफ पैडल, पीछे से अचानक एक मेरा दोस्त कैरियर पर बैठ गया। फिर सामने से आतिशबाज़ी कर रहे लड़के ने एक बम भी फोड़ दिया। साइकिल थोड़ी डगमगा गई। गिरते गिरते बचे हम। किसी तरह संभले। आगे आगे एक छोटी सी , हमारी ही हम उम्र एक लड़की जा रही थी। उसके पैर पर साइकिल चढ़ गया। वह लड़की जोर जोर से चिल्लाते हुए रोने लगी। अब उस लड़की की मां ने ना आव देखा ना ताव जो गालियां उसने निकालनी शुरू किया, सभी स्तब्ध थे। हम तो भाई उस लड़की का चिल्ला कर रोना और उसकी मां का रौद्र रूप देख भाग खड़े हुए। वहां रहते तो पिटाई तो निश्चित होती। इस सारे घटनाक्रम को मेरी माँ अपने घर की छत से देख रहीं थीं। क्या कर सकतीं थीं। उस स्तर पर जाकर गालियां नहीं निकाल सकतीं थीं। तभी किसी ने लड़की की मां से कहा की अरे वो जिसे आप बेइंतहा गालियां दिए जा रहीं हैं वो टीचर जी का बेटा है और टीचर जी ऊपर अपने छत से देख रही हैं। पता नहीं मेरे खानदान में कोई गालियों से बचा भी या नहीं।मेरे सात पुश्तें गालियों से नवाजी गई थी।
खैर! मैंने तो शुरू में ही कहा – माँ की अपनी एक अलग ही पहचान थी। अब गालियां पड़नी बंद हो गई थी और मैं जो भागा वहां से तो देर रात में ही घर आया। सभी घर में दीये जल गए थे और चरों तरफ रौशनी हो रही थी। फटाके भी फूट रहे थे और हम थे कि बस भूख से बेहाल। मन में डर था। कहीं उस लड़की की अम्मा ने देख लिया तो शर्तिया मारेगी और घर में जो होना था वो तो होगा ही। अमूमन मैं खेल कूदकर शाम में ही घर वापस आ जाया करता था उस दिवाली मैं रात में घर आया। सभी लोग चिंतित थे , पर मेरा तो डर से बहुत बुरा हाल था। पर फिर, आखिर दिवाली थी तो आतिशबाज़ी तो होनी ही थी। हम भी फटाके फोड़ने में व्यस्त हो गए।
क्या बताएं ? यही होता है बचपन औरऐसे ही होते हैं बचपन के दिन!