
रविवारीय: आखिर सत्य क्या है?
हम आजीवन इस ख़ोज में लगे रहते हैं आखिर सत्य क्या है ? सत्य वह है जो अवश्यंभावी है, जिसे टाला नहीं जा सकता। चाहे आप कितने ही प्रयास कर लें, कुछ सत्य ऐसे होते हैं जो निश्चित ही घटित होंगे। मृत्यु उन्हीं में से एक है—एक अपरिहार्य सत्य, जो जन्म के साथ ही तय हो जाता है। जैसे ही आप इस नश्वर संसार में आते हैं, उसी क्षण मृत्यु का समय भी निर्धारित हो जाता है। आपको इसका अहसास भले ही न हो, पर यह जीवन की सबसे बड़ी सच्चाई है—अंतिम सत्य। यह केवल एक विचार ही नहीं, बल्कि एक अनिवार्य सत्य है। हम सभी इस बात को जानते हैं, परंतु इसके बारे में सोचकर भी सिहर उठते हैं। शरीर में एक कंपन सी दौड़ जाती है, रोंगटे खड़े हो जाते हैं। मृत्यु की कल्पना मात्र से मन भयभीत हो जाता है। आखिर ऐसा क्यों ? क्योंकि मृत्यु का अनुभव किसी ने बताया नहीं है। यह एक शून्य की अवस्था है, जहां चेतना का क्या होता है, यह कोई नहीं जानता।
मृत्यु के बाद क्या होता है ? क्या स्वर्ग और नरक जैसी कोई अवधारणा वास्तविक है, या यह मात्र मनुष्य के मन का एक भ्रम है ? स्वर्ग की कल्पना में सुख, शांति, आनंद और खूबसूरत अप्सराएँ होती हैं, और नरक की अवधारणा में यातनाएँ, कढ़ाही में खौलता गर्म तेल और दंड। पर क्या यह सब सच है? क्या ये सब इस लोक की ही बातें हैं—मानसिक संतोष और डर पैदा करने के वास्ते? मृत्यु के परे क्या है, यह कल भी एक रहस्य है और आज भी एक रहस्य ही है। हम कितने भी उन्नत और विकसित हो लें, विज्ञान हमें कितना भी आगे ले जाए ,हम इस रहस्य से पर्दा अभी तक नहीं उठा पाए हैं।
यदि स्वर्ग-नरक वास्तव में होते, तो क्या किसी मृत व्यक्ति ने वापस आकर इनके अस्तित्व की पुष्टि की है ? नहीं ! किसी ने नहीं! तब तो कभी ऐसा भी प्रतीत होता है कि स्वर्ग और नरक की कल्पनाएँ केवल मन को बहलाने वाले विचार हैं, जो धर्म, समाज और परंपराओं द्वारा बनाए गए हैं।
मृत्यु ही वह एकमात्र सत्य है जिससे कोई बच नहीं सकता। इसे न तो रोका जा सकता है और न ही टाला जा सकता है। इस सच्चाई से भागना व्यर्थ है, इसे स्वीकार करना ही एकमात्र समाधान है।
दुर्घटना में या फ़िर किसी बीमारी से अगर किसी की मृत्यु होती है तो हम अज्ञानी कहते हैं – ऐसा होता तो यह नही होता या फिर अगर थोड़ा पहले अस्पताल ले आते तो शायद ज़िंदगी बच जाती। सृष्टि को बनाने वाले, उसे चाहे हम जिस किसी भी नाम से पुकारें, उन्होंने इस सृष्टि का निर्माण बड़े ही वैज्ञानिक तरीके से किया है। उन्होंने कभी भी गलतियों का जिम्मेदार खुद को नहीं बनाया है। सब कुछ प्रारब्ध है। जिसे होना है वो होकर रहेगा। चाहे जितने भी हम यत्न कर लें।
जीवन और मृत्यु के बीच सिर्फ और सिर्फ मोह-माया है। कोई नहीं बच सका है इससे। जीवन में जितने भी लक्ष्य हों, उपलब्धियाँ हों, संघर्ष हों—सबका अंत एक ही जगह पर होता है। चाहे राजा हो या रंक, विद्वान हो या अज्ञानी—हर किसी का अंतिम पड़ाव मृत्यु ही है।
फिर मृत्यु का भय क्यों ? यह तो प्रकृति का नियम है, जीवन का अपरिहार्य सत्य। जैसे दिन के बाद रात आती है, वैसे ही जन्म के बाद मृत्यु आती है। यह चक्र अनवरत चलता रहता है। इसे स्वीकार करें, इससे भागें नहीं। यह केवल आपके साथ नहीं, सबके साथ होना है। कोई भी अमर नहीं हुआ है, और कोई अमर होगा भी नहीं। मृत्यु से डरने के बजाय इसे समझने का प्रयास करें। जब यह निश्चित है, तो इसे सोचकर समय व्यर्थ क्यों करें? इसके बजाय जीवन को सार्थक बनाएं। हर क्षण को पूर्णता से जिएं। अपनों के साथ अच्छा व्यवहार करें, प्रेम और करुणा का विस्तार करें। मृत्यु का विचार यदि मन में आता भी है, तो इसे एक प्रेरणा बनने दें—एक याद दिलाने वाला संकेत कि समय सीमित है, इसलिए इसे व्यर्थ न गंवाएं।
मृत्यु सत्य है, लेकिन जीवन भी उतना ही महत्वपूर्ण है। जब तक यह है, इसे पूरी तरह जिएं। मृत्यु को स्वीकारें, लेकिन जीवन को नकारें नहीं। क्योंकि मृत्यु से पहले, जीना भी एक सत्य है!
यह सार्वभौमिक सत्य है कि मृत्यु अटल है, लेकिन उससे भयभीत होना अज्ञान का प्रतीक है। भारतीय आध्यात्मिक परंपराएँ हमें सिखाती हैं कि मृत्यु मात्र देह का अंत है, आत्मा अनंत और अजर-अमर है। मृत्यु का रहस्य जानने के स्थान पर इसे सहजता से स्वीकारना चाहिए। मृत्यु का विचार केवल भय उत्पन्न करने के लिए नहीं, बल्कि जीवन को अधिक सार्थक बनाने के लिए होना चाहिए। इसे समझने का तात्पर्य जीवन के हर क्षण को प्रेम, करुणा और कर्तव्य में संलग्न कर देना है।
अतः मृत्यु को शाश्वत सत्य मानकर, हमें जीवन को दिव्यता और सद्गुणों से भर देना चाहिए। जब हम मृत्यु को केवल परिवर्तन मानते हैं, तब भय समाप्त हो जाता है और आत्मज्ञान का द्वार खुल जाता है।
इस प्रकार श्री मनीष वर्मा ‘मनु’ का यह ब्लॉग मृत्यु के अटल सत्य को स्वीकार करने और जीवन के महत्व को समझने की गहरी आध्यात्मिक प्रेरणा देता है।
Nice