
रविवारीय: लखनऊ का इंपीरियल रिंग थिएटर
लखनऊ जनरल पोस्ट ऑफिस, हज़रत गंज को ब्रिटिश राज के दौरान इंपीरियल रिंग थियेटर के नाम से जाना जाता था। यह सिर्फ और सिर्फ एक डाकघर ही नहीं बल्कि भारतीय स्वतंत्रता संग्राम के संघर्ष और बलिदान की गवाह रही है। यह इमारत ब्रिटिश मनोरंजन केंद्र से लेकर स्वतंत्रता सेनानियों के अदालती संघर्ष तक के सफर की कहानी कहती है।
हजरतगंज चौराहे से चारबाग जाने वाले रास्ते पर सड़क के बायीं ओर स्थित यह इमारत लगभग 95 वर्ष पुरानी है और इसे वास्तुविद हेनरी वाॅन लॉसचैस्टर (1863-1963) ने डिजाइन किया था। यह इमारत ब्रिटिश राज के दौरान कुछ महान ऐतिहासिक घटनाओं की गवाह रही है।
लखनऊ के पास बहुत कुछ है गर्व करने और इतराने के लिए। जैसे ही लखनऊ के बारे में आप किसी से बातें करेंगे, वो छूटते ही आपको लखनऊ का बड़ा इमामबाड़ा, भूल-भुलैया, टुंडइ कबाबी, लखनऊ की चिकनकारी आदि तमाम चीजें आपके समक्ष बड़ी तेजी से रख देगा। लखनऊ के नवाब वाजिद अली साहब और लखनऊ की तहज़ीब थोड़ी देर के बाद आएगी। हाँ, उसके पहले गिलौटी कबाब ( गलावटी कबाब), फलां फलां का बिरयानी, फलाने का चाट, फलाने की खस्ते की दुकान आदि आदि।
लखनऊ आने से पहले मुझे भी कहां मालूम था गलावटी कबाब के बारे में? बस गिलौटी कबाब गिलौटी कबाब किया करते थे। यहां आकर मालूम पड़ा, यह गलावटी कबाब है ,जो कालांतर में अपभ्रंश होकर गिलौटी कबाब बन गया । दरअसल इसे नवाब साहब के बावर्चियों ने विशेषकर नबाब साहब के लिए बनाया था क्योंकि उन्हें दांतों की तकलीफ़ की वजह से सामान्य मांसाहारी भोजन खाने में दिक्कतें आती थीं।
इमामबाड़ा और भूल-भुलैया एक ही है । अधिकांश को तो मालूम भी नहीं होगा। यहां आकर ही जान पाते हैं और छोटा इमामबाड़ा तो खैर भूल जाएं। अधिकांश तो जानते ही नहीं हैं। खैर ! उस बारे में फिर कभी बातें करेंगे। इस ऐतिहासिक शहर में कई ऐसी इमारतें हैं जो अपने अंदर इतिहास के अनगिनत पन्नों को समेटे हुए हैं।
फ़िलहाल इंपिरियल रिंग थियेटर के बारे में आज लखनऊ में रहनेवाले आप और हममें से कई लोग कई मर्तबा वहां से गुज़रे होंगे या अंदर भी गए होंगे, पर शायद कम लोगों ने इसका संज्ञान लिया होगा।
इंपीरियल रिंग थियेटर को आज ज़्यादातर लोग यहां इसे जी.पी.ओ. बिल्डिंग के नाम से ही जानते हैं। इसका निर्माण दो महत्त्वपूर्ण स्मारकों अर्थात् मल्लिका अहद के किले और कोठी हयात बक्श के बीच किया गया था। इस इमारत का इस्तेमाल मुख्य रूप से औपनिवेशिक अधिकारियों द्वारा उनके मनोरंजन के उद्ददेश्य से किया जाता था। यहाँ अंग्रेजी चलचित्रों और नाटकों की स्क्रीनिंग होती थी, इसलिए इसे शहर के मनोरंजन केंद्र के रूप में भी जाना जाता था। जी.पी.ओ. बिल्डिंग में पहली मंजिल की बालकनी से घिरा हुआ मुख्य हॉल, बाॅल रूम हुआ करता था। ब्रिटिश जनरल, कर्नल, बड़े अधिकारी , विशिष्ट अतिथि गण और सैनिक यहां आते थे।
वर्ष 1926 में प्रसिद्ध काकोरी ट्रेन एक्शन का मुकदमा यही पर हुआ था। लगभग चालीस लोगों पर यह मुकदमा चलाया गया। यह मुकदमा 01 मई, 1926 को रोशन-उद-दौला कचहरी कैसरबाग में शुरू हुआ था। कहा जाता है कि इसके बाद मुकदमा सुरक्षा के दृष्टिकोण से मुकदमे को इसी इमारत के एक खण्ड पर स्थानान्तरित किया गया, जहां वर्तमान में जी.पी.ओ. की मेल ब्रांच काम कर रही है। प्रसिद्ध स्वतंत्रता सेनानियों जैसे अशफाक उल्लाह खां, रामप्रसाद बिस्मिल, रोशन सिंह, राजेन्द्र नाथ लाहड़ी, मन्मथनाथ गुप्त और अन्य पर मुकदमा इसी इमारत में चलाया गया था। इस मुकदमें के लिए हैंगिंग जज के नाम से कुख्यात जज हैमिल्टन लुबो को नियुक्त किया गया था।
काकोरी ट्रेन एक्शन के दौरान वकील अहमद अली एक यात्री के रूप में, महिला डिब्बे में यात्रा कर रही अपनी पत्नी को देखने के लिए ट्रेन से उतरे, इस दौरान, संयोग कहें उनकी मन्मथ नाथ गुप्ता के माउजर से अनजाने में चली गोली लगने से मृत्यु हो गई थी। इससे डकैती का मामला मानव हत्या के मामले में बदल गया था। कभी-कभी कुछ मामले ऐसे भी रूख़ ले लेते हैं, जिनपर किसी का कोई वश नहीं होता है। खैर! संयोग कहें या दुर्योग आपके प्रारब्ध के साथ-साथ ही चलने वाली दो समांतर रेखाएं हैं।
न्यायाधीश हैमिल्टन लुबो ने 06 अप्रैल, 1927 को अशफाक उल्लाह खां को छोड़कर काकोरी ट्रेन एक्शन में शामिल तीन स्वतंत्रता सेनानियों को मौत की सजा सुनाई दी। बाद में 11 अगस्त, 1927 को अशफाक उल्लाह खां को भी मौत की सजा सुनाई गई। बाकियों में से किसी को काला पानी की सज़ा दी गई तो किसी को आजीवन कारावास । किसी को छोड़ा नहीं गया। सज़ा सबको दी गई।
1929-1932 के दौरान, जी.पी.ओ. को कुछ वास्तुशिल्प परिवर्तनों के साथ गोथिक रूप देने के लिए संशोधित किया गया था। बाद में इसे पूरी तरह कार्यात्मक डाकघर के तौर पर रूपान्तरित कर दिया गया। इमारत में एक घंटाघर है जो इमारत को विक्टोरियन आभा प्रदान करता है। परन्तु जनरल पोस्ट ऑफिस (इम्पीरियल रिंग थियेटर) भारत के स्वाधीनता संघर्ष मे एक प्रभावशाली वास्तु शिल्प प्रतिष्ठान के तौर पर हमारे स्वतंत्रता सेनानियों के साहसिक बलिदानों से रचा बसा है।
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बहुत अच्छी जानकारी
inti important jankari dene ka bahut shukriya manu waise tumhare lekh k awlokan se GK kafi badhta hai imperial ring theatre k bare m mujhe to bilkul jankari nhi thhi aaj hi maloom hua bas issi tarah lage raho tumhare 3rd collection ka intzar hai