मंथन: अब न हम भगवान को पहचानते और न ही जानते हैं
हम भगवान की मैत्री से ही दुनिया के गुरु थे। क्योंकि हम अपने भगवान को बहुत अच्छे से समझते थे। भगवान के साथ विश्वास, प्रेम, सम्मान, श्रद्धा, निष्ठा, भक्ति और मैत्री का रिश्ता बहुत गहरा था। भगवान को जब हम बराबरी से देखते थे, तो बहुत स्नेह करते थे। जब हमें यह लगने लगता है कि, भगवान हमसे बड़ा है, तो विश्वास भी बढ़ने लगता है, तब उनके प्रति हमारे मन में अकाट्य श्रद्धा हो जाती थी। भगवान के बारे तर्क-वितर्क करने की मानसिकता बन्द हो जाती थी। निष्ठा-भाव से उसे अपना ईष्ट मानकर, उसके प्रति गहरा भक्ति-भाव पैदा हो जाता था। निष्ठा से ही भक्ति होती है। भक्ति वह होती है ,जिसमें हम अपने भगवान (परमात्मा) को सम्पूर्ण समर्पित हो जाते हैं। भगवान के साथ मैत्री से ही भक्ति तक का भाव बनता था। यह भाव हमें भगवान के प्रति गहरी समझ बना कर ज्ञान को विद्या के रास्ते पर ले जाता था।
हमारी विद्या पर आधुनिक शिक्षा के आक्रमण से भगवान के साथ मैत्री टूट गई। अब न हम भगवान को पहचानते और न ही जानते हैं। हमारी निष्ठा और भक्ति-भाव भी कर्म काण्ड में बदल गया है। अब अन्दर का सम्पूर्ण समर्पण जिस भगवान के प्रति होता है, वही मैत्री के साथ जुड़ा होता है। आधुनिक शिक्षा का जहाँ-जहाँ जितना प्रभाव पड़ता गया, वहाँ-वहाँ विद्या खत्म होती गई। इसी के कारण भगवान के प्रति भक्ति-भाव भी खत्म हुआ। अभी भी, जहाँ-जहाँ विद्या बची हुई है, वहाँ भगवान के प्रति गहरा प्रेम, मेत्री, श्रद्धा, भक्ति, निष्ठा मौजूद है। जहाँ शिक्षा ने पैर पसार लिए हैं, वहाँ भगवान की भक्ति और मैत्री टूट गई है। इसलिए हमें अपने भगवान को पहचानने की कोशिश करनी चाहिए। वह विद्या से ही सफल होगी।
सरल भाषा हिंदी और संस्कृत में जिसे हम भगवान कहते हैं, वह पंचमहाभूतों के साथ जुड़ा हुआ है। भारतीय विद्या में इस ब्रह्माण्ड का निर्माण पंचमहाभूतों के योग से मानते हैं। 13.8 अरब साल पहले न समय था, न भौतिकी का कोई सिद्धान्त और न ही ज्ञान था। लेकिन आज से 4.5 अरब साल पहले हमें समय, अन्तरिक्ष, ब्रह्माण्ड के सत्य का पता चल गया था। इस क्रम से धीरे-धीरे भौतिक सिद्धान्तों का भी पता चलता गया। इस सिद्धान्त के बाद ब्रह्माण्ड में बहुत से महा विस्फोट, प्रलय, आवर्तन और प्रवर्तन होते रहे। इनमें से यह भी समझ आता है कि, दो अणु हाइड्रोजन और एक अणु ऑक्सीजन के मिलने से जल बना है। इसी जल से जीवन की शुरुआत हुई है।
पूरा ब्रह्माण्ड आग का गोला था, धीरे-धीरे जल और काल-चक्र ने ही धरती को बनाया है। जल और मिट्टी से मिलकर जो जीव निर्मित होने लगा था, उसको प्राण वायु की जरूरत पूरी करने के लिए, वायु आकाश से हमें मिलने लगी। इससे ही जीव के शरीर का निर्माण हुआ और सूर्य की ऊर्जा जीवन को संचालित करने लगी। हमारी सृष्टि के संचालित होने से जीव-जगत का शरीर भी चलने लगा।
इस प्रकार ही पंचमहाभूतों के योग से परम शक्ति बनती है। यह शक्ति ही परमात्मा है। यही पूरी सृष्टि की संचालक मानी जाती है। परमपिता परमात्मा पंचमहाभूतों के योग को संचालित करने वाली शक्ति का नाम है। भारतीय ही नहीं, बल्कि अब तो पूरी दुनिया मानती है कि, पंचमहाभूतों से निर्मित यह ब्रह्माण्ड हम सभी को बनाता और बिगाड़ता है। यही हमारा भौतिक व रसायन विज्ञान भी है। जो लोग इसे समग्रता से देखते हैं, उनका विज्ञान और अध्यात्म एक ही है। भौतिकी और तत्त्वज्ञान है। हमारा ब्रह्मस्वरूप सम्बन्ध और पंचमहाभूतों की समझ ही सब कुछ है।
परमपिता परमात्मा के साथ हमारा मैत्री का भाव तब बढ़ा, जब परम पिता परमात्मा ने प्रकृति-धरती को अपने जीवन के लिए, अपनी जीवनीय शक्ति से सबको जीवन देना आरम्भ किया। जब इस प्रकृति पर विनाश और बिगाड़ शुरू हुआ, रावण जैसे राक्षस पैदा हुए तो फिर अवतारों ने जन्म लिया। अवतार का मतलब होता है, नीचे उतरना। परमपिता परमात्मा के मूल गुण ऊपर से नीचे आने लगे। जिससे काल-चक्र के अनुसार अवतार हुए। इन अवतारों से समझ आया है कि अवतारों ने प्रकृति और प्रकृतिमय जीवन व दो पैर वाले लालची भोगी इंसान को हमेशा प्रकृति प्रेम के रास्ते पर चलना सिखाया।
जिन्होंने प्रकृति प्रेम से चलना सिखाया, उन्हीं को हमने भगवान मानना शुरू कर दिया। इसलिए भगवान जिन पंच अक्षरों से मिलकर बना है, वह भ – भूमि, ग- गगन, व- वायु, अ- अग्नि, न- नीर हैं । जब भगवान इन पंचमहाभूतों का योग हो गया तो फिर भगवान का निर्माण हो गया। आज हम परम पिता परमात्मा के साथ हमारी मैत्री को समझने की कोशिश कर रहे हैं। मैत्री को जानना बहुत ज़रूरी हैं। इन पंच महाभूत इस्तवन में यदि हम अपनी भूमिरापोडनलोवायुरूःखं ईशाविदम् की दृष्टि से सृष्टि को समझना होगा। सृष्टि के पंचमहाभूतों के योग और भूमिका को समझेंगे।
ऋग्वेद में अघमर्षण कुर्यात के तीन मंत्र हैं। यह सूक्त संध्योपासना में बोला जाता है। इस मंत्र के जपने से पाप का निरसन होता है। इसलिए शंकराचार्य ने इसकी सिफारिश की है। अघमर्षणं कुर्यात सब सूक्तों का राजा है। साधक अघमर्षण सूक्त का जप करे। जिस तरह से पानी से पूर्ण भरा हुआ कुम्भ समुद्र में रखते हैं, उसके अंदर और बाहर पानी ही पानी रहता है, उसी तरह अपना मन पूर्ण ब्रह्म में विलीन करें, यह अघमर्षण है। मनु ने भी इसकी सिफारिश करते हुए कहा कि कुल के कुल पाप दूर करने के लिए अघमर्षण सूक्त का जाप किया जाए। वेद के एक-एक मंत्र का उपयोग, भिन्न-भिन्न पापों के नाश के लिए होता है।
इस सूक्त में पाप विनाशन का कोई उल्लेख ही नहीं है। सिर्फ़ इतना ही वर्णन है कि भगवान ने सृष्टि की रचना कैसे की है। परमेश्वर ने आरम्भ में जप किया, तो उसे सूझा नहीं कि सृष्टि कैसे बनेगी? फिर उसने तप की ज्वाला बनाई और चिन्तन, सर्जन के लिए ज्ञान युक्त तप किया। उसने चिन्तन करके ऋतु और सत्य, ये दो तत्त्व निकाले, जिससे रात्रि पैदा हुई। और फिर अनेक लहरों वाला समुद्र हुआ। फिर उनमें से दिवस, रात्रि, सूर्य, चन्द्र, काल आदि उत्पन्न हुए। पूरे विश्व का धाता – नायक है, उसने सूर्य – चन्द्र जैसे पहले थे, वैसे पैदा किये। और यथापूर्वक बीज में से फल पैदा किया। पृथ्वी पैदा की, अन्तरिक्ष पैदा किया, स्वर्ग पैदा किया तो इससे पाप-मार्जन हुआ। विशालता के भान से नम्रता में एक बात कही है कि सूर्य, चन्द्र, भगवान ने ऐसे निर्माण किये, जैसे पहले थे।
*लेखक जलपुरुष के नाम से विख्यात जल संरक्षक हैं।