कविता: मत लगाओ पहरे मेरी साॅंसों पर
मत लगाओ पहरे मेरी साॅंसों पर ,
मुझे खुली हवा में साँस लेने दो।
थक गई हूँ मैं इस भाग-दौड़ की ज़िन्दगी से ,
अब बस ठहर जाना चाहती हूँ।
खुले आसमान के नीचे स्वछंद विचरण करना चाहती हूँ,
अपने मन की करना चाहती हूँ।
क्यों नहीं देते तुम मुझे मेरी रफ़्तार ?
क्या तकलीफ़ है तुम्हें मुझसे ?
न तुम्हारे शहर की बाशिंदी हूँ,
न हमारे रास्ते कभी एक हुए हैं।
छोड़ दो मुझे,
मैं सिर्फ और सिर्फ जीना ही तो चाहती हूँ, बस जीना।
क्या जीना भी कोई गुनाह है ?
मेरी ज़िंदगी छीनकर क्या मिलेगा तुम्हें?
अब तो मुझे आज़ाद कर दो।
आख़िर तुम मुझसे चाहते क्या हो ?
मैं तो बस शांति से जीना चाहती हूँ,
बस इतनी-सी ही तो ख्वाहिश है मेरी।