दिल्ली: देश में कचरा एक बहुत बड़ी समस्या बन गया है। देश में प्रति व्यक्ति करीब 205 किलो कचरा निकलता है। इसमें से केवल 70 फीसदी ही इकट्ठा किया जाता है। देश में जिस तरह कचरे की रिसाईकिलिंग होती है उससे न केवल पर्यावरण को नुकसान होता है बल्कि लोगों के स्वास्थ्य पर भी बुरा प्रभाव पड़ता है। जहां तक खुले में फेंके गये कचरे का सवाल है, अब छोटे शहर-कस्बों में भी जो 17 फीसदी की दर से विकसित हो रहे हैं, में कचरे के लैंडफिलों की तादाद तेजी से बढ़ रही है। आने वाले दिनों में विकास की रफ्तार और बढे़गी, उस स्थिति में ज्यादा तेज विकास के साथ कई गुणा कचरा बढ़ेगा। क्या हम उस स्थिति के लिए तैयार हैं। यह विचार का विषय है।
यदि हम देश के महानगरों का सिलसिलेवार जायजा लें तो पाते हैं कि कचरे के निष्पादन के मामले में सबसे बुरी स्थिति कोलकाता की है जहां 1400 मीट्रिक टन कचरे में से केवल 400 मीट्रिक टन का ही निपटान होता है। जबकि जयपुर में 1400 में से 600, कानपुर में 1350 में से 1000, लुधियाना में 1100 में से 400, भोपाल में 800 में से 300, आगरा में 800 में से 400, रायपुर में 650 में से 500, रांची में 600 में से 40, अलीगढ़ में 500 में से 325, देहरादून में 450 में से 250, बरेली में 475 में से 350, जम्मू में 400 में से 300, फिरोजाबाद में 350 में से 200, मुरादाबाद में 325 में से 160, जोधपुर और मथुरा में 300 में से 200, अजमेर में 280 में से 200,पानीपत में 240 में से 180, जालंधर में 200 में से 35, तीर्थ नगरी प्रयागराज में 150 में से 120, दुर्ग में 120 में से 90 और धर्मशाला में 18 मीट्रिक टन में से केवल 8 मीट्रिक टन कचरे का निष्पादन होता है।
इससे यह साफ हो जाता है कि शहरों में से जितना रोजाना कचरा निकलता है, उतना निस्तारण नहीं हो पाता है। ऐसी स्थिति में इन शहरों में कचरे के पहाड़ बढे़ंगे ही, उन्हें रोक पाना प्रशासन के बूते के बाहर की बात है। यहां हम अमेरिका, आस्ट्रेलिया, चीन, ब्रिटेन, जर्मनी, सिंगापुर आदि की बात छोड़ दें और यदि अहमदाबाद, सूरत, नवी मुंबई, मैसूर और इंदौर की ही बात करें जिन्होंने कचरा संग्रह और उसके निपटान व स्वच्छता में अपनी एक विशिष्ट पहचान बनायी है, से क्या कुछ सीख ली है। जबाव है कुछ भी नहीं।
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समस्या यह है कि ऐसी स्थिति में दिल्ली ही क्या, देश के हर शहर-कस्बे में कचरे के पहाड़ तेजी से बनेंगे और वे सुलगेंगे, धधकेंगे और लोगों की अनचाहे मौत के वायस भी बनेंगे। उस दशा में जलवायु परिवर्तन पर अंतर-सरकारी पैनल (आईपीसीसी) की रिपोर्ट सही साबित हो जायेगी कि अगर यही रफ्तार रही तो 2050 में 3.4 गीगाटन कूडा़-कचरा होगा जिसका निस्तारण बूते के बाहर होगा।
असलियत में कचरा प्रबंधन के मामले में हम दूसरे देशों से बहुत पीछे हैं। वह चाहे इंडस्ट्रियल कचरा हो या म्यूनिस्पल दोनों में हमारी नाकामी जगजाहिर है। उस स्थिति में तो और विषम हालात हो जायेंगे जब वर्ल्ड बैंक के अनुसार 2030 में भारत में हर साल निकलने वाला कूडा़-कचरा 388 अरब किलो हो जायेगा। इसलिए इस समस्या के निदान के लिए यह बेहद जरूरी है कि लोगों को घरों में ही अलग- अलग डस्टबिन में कूडा़-कचरा रखने के बारे में जागरूक किया जाये जिससे रिसाईकिलिंग होने में आसानी हो सके।
वैसे स्वच्छ भारत अभियान से और कचरे के पुनः इस्तेमाल करने के मामले में लोगों में न केवल बहुत जागरूकता आयी है बल्कि इसमें देश की स्थिति काफी सुधरी भी है। इसके बावजूद अभी भी बहुत कुछ करना बाकी है ताकि शहर दर शहर, कस्बे दर कस्बे कचरे के पहाड़ न बनें और आये दिन उसमें आग लगने की नौबत न आये। यह सब सरकार की इच्छाशक्ति के बिना असंभव है।
*लेखक वरिष्ठ पत्रकार एवं पर्यावरणविद हैं।