आज गाँधी जयंती के दिन बापू को देश-दुनिया में विभिन्न तरह से, विभिन्न स्थानों पर उनको याद करते हुए ढेर सारे कार्यक्रम आयोजित किए जा रहे हैं। जिनमें बहुत सारे प्राणवान है, स्वयं सहजता, निष्ठा, संकल्प से चल रहे हैं।
बापू के जीवन में मौलिकता, सृजनशीलता, संवेदना, सहजता, सरलता, संवाद, संपर्क, सक्रियता, स्पष्टता, सोच, सद्भावना, सौह्रार्द, सहनशीलता, सादगी, समझ, साझापन, शांति, करुणा, भयमुक्ति ही अहिंसा, सत्य की राह है, के दर्शन होते हैं।
गांधी विचार पर जब हम चिंतन, मनन, संकल्प के साथ सोचने, समझने, जानने का प्रयास करते हैं तो उसमें से यह भाव निकलता है कि दर्द कम हो, गम कम हो, समस्याओं का समाधान हो; सब मिलकर रहें, समता, समानता, सादगी, सहजता-सरलता, साझापन आए; भारतीयता गौरवशाली हो, मानवता का विकास हो, व्यक्ति, संस्कृति, सृष्टि, प्रकृत्ति का सहकार हो; लोग मात्र साक्षर नहीं, ज्ञानी बने। सुरक्षा बल, अस्त्र शस्त्र मात्र नहीं बल्कि व्यापक जन सुरक्षा हो; सहजता से भोजन, निवास, स्वास्थ्य, विद्या प्राप्त हो; जनशक्ति का विकास हो, लोगों की शक्ति बढ़े, जन जागरण हो, जागरूकता हो, स्वावलंबी, सादगीपूर्ण, सह अस्तित्व, अपने पांव पर खड़ा व्यक्ति सेवा, स्वाभिमान, स्वदेशी, साधना, समझ के साथ सकारात्मक, सृजनशीलता, रचनात्मक कार्य को आगे बढ़ाने के लिए संकल्पित हो।
प्रकृत्ति, जीव, मानव, अंतिम व्यक्ति, न्याय, समता, सत्य, अहिंसा, शांति, सादगी, सहजता, सरलता, सौह्रार्द, सद्भाव, समभाव, साझापन, गंगा-जमुनी संस्कृति, विविधता, एकता, रचना, सेवा, कला, नदी-नारी-नीर, युवा पीढ़ी, समन्वय, मिलन,सद्भावना, समझ, ज्ञान, स्वदेशी, स्वावलंबन, श्रम संस्कार, अध्यात्मिक, प्रेम, करुणा, सर्वजनहिताय को लक्ष्य में रखकर किया गया प्रयास, बापू का मार्ग है।
नशा, नफरत, भय, भेद, भेदभाव, खंडन, मंडन, भूख, दिखावा, झूठ, टूटन, असहिष्णुता, शोषण, लूट, लोभ, दलगत, सत्तागत, तानाशाही, अधिनायकवाद, हिंसा, आंतक, प्रदूषण, मिलावट, बनावटीपन, अलगाव, अंहकार से ऊपर उठकर सोचने का माहौल बने, यह बापू का मार्ग है।
मौलिकता, सृजनशीलता, संवेदना, सहजता, सरलता, संवाद, संपर्क, सक्रियता, स्पष्टता, सोच, सद्भावना, सौह्रार्द, सहनशीलता, सादगी, समझ, साझापन, शांति, करुणा, अहिंसा ही सत्य की राह है।उसमें दशा और दिशा बदलने की शक्ति छुपी हुई है। इसको प्राप्त करने के लिए युवा सामने आए तो जन आधारित, आंदोलन कारी, सेवादार, त्यागी, मेहनती, गांव-गांव जाने वाले, लोगों की सुनने वाले, ईमानदार, लोगों के दुख- सुख, दर्द में जुड़ने वाले, जन सहयोग लेने वाले, कष्ट उठाने वाले, जन सेवक कार्यकर्त्ता अगर हर गांव, कस्बे, नगर, महानगर में सक्रिय रहे तो बा बापू के सपनों का भारत बन सकता है।
वैचारिक नेतृत्व, समूह नेतृत्व, समझदार नेतृत्व, क्षेत्रीय नेतृत्व, परिवार नेतृत्व, व्यक्ति नेतृत्व देश भर में खड़ा हो तो जन जागरण, जन चेतना, जन शक्ति, जन दबाव, जनांदोलन, जनाक्रोश, व्यापक जन शिक्षण, जन जागरूकता, जन अभियान, जन संगठन, जन समाज, जन संपर्क, जन संवाद, जन संवेदना से नया समाज, मजबूती के साथ बन सकेगा।
व्यक्ति, समाज, देश सत्य को जानें, मानें, अपनाएं। निर्भय, निडर बनें। भय, भ्रम, भेद मुक्त बनें। शांति, अहिंसा, सत्य को अपनाएं। खुद से शुरू करें। आवाज बुलंद करें, छोटे-छोटे कदम उठाए, लोगों से मिलें। मानव बनें, मानवीय मूल्यों को धारण करें। व्यक्ति, प्रकृति, सृष्टि के नजदीक रहें। सादगी अपनाएं, सेवा, त्याग, संकल्प की ओर बढ़े। नौकरी नहीं, चाकरी करना सीखें।
हिंद स्वराज में पश्चिमी सभ्यता और लोकतंत्र पर बापू ने बहुत स्पष्टता से लिखा है।बापू ने सच्चे स्वराज्य के बारे में समझाते हुए यह कहा “सच्चा स्वराज्य कुछ लोगों द्वारा सत्ता हासिल कर लेने से नहीं आएगा। वह तो तभी आएगा जब सारे लोग सत्ता के दुरूपयोग को रोक सकने की शक्ति हासिल कर लेंगे…स्वराज्य एक पवित्र शब्द है, जिसका अर्थ आत्म शासन और आत्म संयम है। मेरे सपनों के भारत में जाति या धर्म के भेदों का कोई स्थान नहीं हो सकता। उस पर शिक्षितों या धनवानों का एकाधिपत्य नहीं होगा। वह स्वराज्य सबके लिए सबके कल्याण के लिए होगा। सबकी गिनती में किसान तो आते ही है, किन्तु लूले लंगड़े, अंधे, भूख से मरने वाले, लाखों, करोड़ों मेहनतकश मजदूर भी अवश्य आते हैं।”
सेवा के क्षेत्र को बड़ा, विशाल मानते हुए बापू ने स्पष्ट कहा कि “सत्ता, या हुकुमत का क्षेत्र बहुत छोटा रहता है। मगर सेवा का क्षेत्र तो बहुत बड़ा है वह उतना ही बड़ा है जितनी बड़ी धरती है। उसमें अनगिनत कार्यकर्ता समा सकते हैं।”
आज लोकतंत्र की प्रक्रिया में चुनाव एक बड़ा मुद्दा बनकर उभरा है। लगता है कि चुनाव ही लोकतंत्र का सबसे प्रमुख हिस्सा है। जो चुनाव जीता वही सबसे उत्तम, तेज, शक्तिशाली, सबकुछ और अन्य सब शून्य। सौ में 51 पाने वाला शत-प्रतिशत और 49 पाने वाला उम्मीदवार शून्य! 51 बन गया सौ और 49 रह गया जीरो। इस हीरो और जीरो के भेद का कोई रास्ता बनना, समाधान सोचना चाहिए, तभी लोकतंत्र में जनता का सही प्रतिनिधित्व होगा।चुनाव कानून ही बहुत बड़े समाज को उम्मीदवारी से दूर कर दे रहा है। बड़ी भारी रकम, जब पर्चे के साथ जमा पूंजी भरने को कहता है। चुनाव खर्च की दिशा और दशा देखकर दिल दहल जाता है, मन कांप उठता है। पसीना छूट जाता है। कौन हिम्मत कर सकेगा इतना खर्च करने की? जो इतनी मात्रा में खर्च करेगा तो येन केन प्रकारेण इस से ज्यादा कमाई, धन वापसी की कोशिश करेगा।
चुनाव सेवा के बजाय धन्धा, व्यापार, कारोबार, कमाई नहीं बल्कि लूट, शोषण का रास्ता बन जाता है। लूट सके उतना लूट! ऐसे अनेक सवाल, मुद्दे, उदाहरण हमारे सामने हैं जो साधारण, आम जन को ही ही नहीं, उससे ऊपर वाले को भी चुनाव से दूरी, खौफ पैदा कर रहा है।
राजनैतिक दल में पहले जन आधारित, आंदोलन कारी, सेवादार, त्यागी, मेहनती, गांव-गांव जाने वाले, लोगों की सुनने वाले, ईमानदार, अपनी पूंजी लगाने वाले, लोगों के दुख-दर्द, सुख- दुःख में जुड़ने वाले, जन सहयोग लेने वाले, कष्ट उठाने वाले, जन नेता नजर आते थे। फिर धीरे-धीरे चलते हुए बारास्ता पहुंचे कहां वैचारिक नेतृत्व से, समूह नेतृत्व, समझदार नेतृत्व, क्षेत्रीय नेतृत्व, परिवार नेतृत्व, व्यक्ति नेतृत्व, खास व्यक्ति नेतृत्व, कठपुतली नेतृत्व जैसी स्थिति में? आज एक मकड़जाल में सिसकती राजनीति नजर आ रही है।
सवाल सामने है, कैसे सुधारें इसे?
लोकतंत्र में जनता ही सर्वोपरि होती है। जनता में युवा पीढ़ी, नई पीढ़ी सपने सजाने की क्षमता रखती है। उनसे संपर्क संवाद कायम करने के लिए बा बापू के नाम से शिक्षण संस्थाओं, संस्थानों, गांव गांव में जहां तक पहुंच सकें। जाने का तय किया जाए। अधिक ध्यान शिक्षण संस्थाओं पर रहता है। जिससे नई पीढ़ी तक आसानी से पहुंचा जा सके। जन जागरण, जन चेतना, जन शक्ति, जन दबाव, जनांदोलन, जनाक्रोश, व्यापक जन शिक्षण, जन जागरूकता, जन अभियान, जन संगठन, जन समाज, जन संपर्क, जन संवाद, जन संवेदना की राह हमें पगडंडी बनाने में मददगार हो सकती है। इसके लिए आवश्यक है कि हम–सत्य को जानें, मानें, अपनाएं, निर्भय, निडर बनें, भय, भ्रम, भेद मुक्त बनें, शांति, अहिंसा को अपनाएं, खुद से शुरू करें, आवाज बुलंद करें, छोटे-छोटे कदम उठाए, लोगों से मिलें, मानव बनें, मानवीय मूल्यों को धारण करें, व्यक्ति, प्रकृति, सृष्टि के नजदीक रहें, सादगी अपनाएं, सेवा, त्याग, संकल्प की ओर बढ़े। चाकरी करना सीखें, नौकरी, गुलामी नहीं, बल्कि सेवा की राह अपनाएं। बापू पर चिंतन, मनन, संकल्प कर सोचने, समझने, जानने का समय मिला। उसमें से यह भाव निकला।
लोकतंत्र में विश्वास रखने वाले को अपना दिल बड़ा रखना जरूरी है। विरोध के लोकत्रांतिक तरीके से ही अपनी बात रखनी होगी। जोड़ने वाली सोच ही समाज, देश, दुनिया को आगे बढ़ा सकती है। हिंसा सबसे बड़ी समस्या, मुसीबत, रूकावट है। सत्य, अहिंसा, सादगी, समता, सौह्रार्द, सद्भावना, स्वावलंबन, स्पष्टता, निर्भयता, श्रम निष्ठा, समभाव, समझ, साधना का मिलकर पालन करें, जीवन में अपनाएं।
हिंसा किसी मसले का हल नहीं हो सकता है। हिंसा नहीं, कहीं नहीं, कभी नहीं। हिंसा के विरुद्ध आवाज उठाए। अहिंसा से कोई भी मसला हल हो सकता है। सत्य ही राह दिखा सकता है। सत्य अपनाएं, संवेदनशील बने, कभी भी सत्य को न छोड़ें। सत्य ही ईश्वर है।
किसी भी परिवर्तन, बदलाव, कुछ नया करने का जज्बा नई पीढ़ी में ही ज्यादा पाया जाता है। साहस, हिम्मत करने, जोखिम उठाने, अपने भले बुरे से ऊपर उठकर सोचने की ज्यादा क्षमता नई पीढ़ी विशेषकर जवानों में होती है। वे वर्तमान में जीने की कला जानते हैं। भूत का बोझ उनके कन्धों पर कम होता है। भविष्य की उड़ान भरते हैं मगर वर्तमान को जीने की भरपूर चाह मन में समाए रहते हैं।
परन्तु आज बहाव अलग दिशा में बह रहा है। दशा और दिशा दोनों ही भटकी हुई लगती है। युवा को भी सपने छोड़कर व्यवहारिकता, पद, प्रतिष्ठा, विज्ञापन, लाभ, लोभ, कुछ बन जाने, कमाने, बहुराष्ट्रीय कम्पनियों के मकड़जाल में उलझाया जा रहा है। इसके लिए सभी मूल्य, मर्यादा, सीमायें लांघकर सुविधा के पीछे दौड़ने का माहौल बनाया जा रहा है। स्वार्थपूर्ति के लिए कुछ भी करने की तैयारी बनाता जा रहा है। डिजिटल प्रसारण के साधनों ने माहौल में और अधिक तेजी ला दी है। व्यक्ति से ज्यादा मोबाईल चल रहा है। गति बढ़ने के चक्कर में सब कुछ दांव पर लग गया है। रिश्ते नाते, सगे सम्बन्धी, मित्र साथी, अपने पराए, पास पड़ोसी सभी में बदलाव देखा जा रहा है। जवान ही इन सबसे बहुत ज्यादा प्रभावित होता जा रहा है।
आराम से बिना मेहनत के ज्यादा से ज्यादा कैसे कमाया, प्राप्त किया जा सकता है?
इससे भी ज्यादा खराब यह है कि युवा की मानसिकता में भंयकर बदलाव आ गया है। उसे “सानू की?” मुझे क्या लेना देना, मेरे क्या फर्क पड़ता है की बीमारी लग गई है। समाज में, आस पडौस में, क्षेत्र में, राज्य में, देश दुनिया में क्या हो रहा है उससे वह अलग रहना चाहता है। अपना हित सध जाए बाकि सब जायें भाड़ में! अपने लाभ के लिए किसी का भी गला काटने की तैयारी बहुत ही खतरनाक सोच है।
बापू ने इसको समझाते हुए कहा है कि, “मेरा यह मानना नहीं कि हम शेष दुनिया से बचकर रहें या अपने आस-पास दीवारें खड़ीं कर लें। यह तो मेरे विचार से बड़ी दूर भटक जाना है। लेकिन मैं यह जरुर कहता हूँ कि पहले हम अपनी संस्कृति का सम्मान करना सीखें और उसे आत्मसात करें। दूसरी संस्कृतियों के सम्मान की उनकी विशेषताओं को समझने और स्वीकार करने की बात उसके बाद ही आ सकती है; उसके पहले कभी नहीं। मेरी यह दृढ़ मान्यता है कि हमारी संस्कृति में जैसी मूल्यवान निधियां हैं, वैसी किसी दूसरी संस्कृति में नहीं है। हमने उसे पहचाना नहीं है, उसके अध्ययन का तिरस्कार करना, उसके गुणों की कीमत कम सिखाया गया है। अपने आचरण में उसका व्यवहार करना तो हमने लगभग छोड़ ही दिया है। आचार के बिना कोरा बौद्धिक मसाला भरकर सुरक्षित रखा जाता है। वह शायद देखने के अच्छा लग सकता है, किन्तु उसमें प्रेरणा देने की शक्ति नहीं होती। मेरा धर्म मुझे आदेश देता है कि मैं अपनी संस्कृति को सीखूं, ग्रहण करूँ और उसके अनुसार चलूं, अन्यथा अपनी संस्कृति से विच्छिन्न होकर हम एक समाज के रूप में मानो आत्महत्या कर लेंगे। किन्तु साथ ही वह मुझे दूसरों की संस्कृतियों का अनादर करने या उन्हें तुच्छ समझने से रोकता है। हम अपने घर के दरवाजे-खिड़कियां खुली रखें जिससे चारों ओर की शुद्ध हवा, विचार हम तक पहुंचे मगर कोई आंधी हमारे पांव नहीं उखाड़ फेंकें”।
आधुनिकता, विकास, विज्ञान, तकनीकी ने दुनिया को ही छोटा नहीं बनाया बल्कि व्यक्ति का मन, सोच, विचार को भी छोटा, संकुचित बना दिया है। युवा अपनी जवानी, जोश, मस्ती, कुछ कर गुजरने की चाह को भुला बैठा है। जवानी में ही वरिष्ठ, बुजुर्ग का भार अपने सिर पर उठाने लगा है।
जवानी कहीं खो गई लगती है। बचपन और जवानी का खेल, मस्ती, आनंद, खुलापन, बेफिक्री कहां लुप्त हो गई है। उसे वापिस लाना होगा। नई पीढ़ी को उसका बचपन, किशोरपन, जवानी लौटानी होगी। तभी सही बदलाव, परिवर्तन की राह खुलेगी।
व्यक्ति से बड़ा उसका गुण है, व्यक्ति पूजा के बजाय गुण की पूजा हो। इसके लिए अकेले भी चलना पड़े तो तैयारी होनी चाहिए। अकेले डटे रहना चाहिए। गांधीजी ने कहा है कि ”व्यक्ति की पूजा के बजाय गुण की पूजा करनी चाहिए। व्यक्ति तो गलत साबित हो सकता है और उसका नाश तो होगा ही , गुणों का नाश नहीं होता। हर एक बड़े ध्येय के लिए जूझने वालों की संख्या का महत्व नहीं होता। जिन गुणों से वे बने होते है, वे गुण ही निर्णायक होते हैं। संसार के महान से महान पुरुष हमेशा अपने ध्येय पर अकेले डटे रहे हैं।”
मानवीय सत्व और शील के लिए ऊम्र कोई कसौटी नहीं है। हमारे पूर्वजों ने साधारणत कम ऊम्र में ही बड़े बड़े काम कर दिखाये हैं । प्रत्येक क्षेत्र में युवा ने अपने कार्यों से प्रकाश स्तम्भ एवं मानक स्तम्भ पैदा किये हैं। नए द्वार खोले हैं। नई मान्यतायें, परम्परायें स्थापित की है। किसी भी महान व्यक्ति के जीवन को देखें तो आमतौर पर पायेंगे कि युवापन में ही उन्होंने जीवन की ऊंचाइयों की ओर बढ़ना शुरू किया। छोटी ऊम्र में ही उन्होंने जीवन की नींव मजबूत करनी शुरू की। छोटी ऊम्र में ही अपने जीवन का ध्येय, लक्ष्य, उद्देश्य देखा और उस ओर कदम उठाकर सफलता प्राप्त की।
आओ अपनी जीवनशैली में इनको धारण कर एक नया समाज, नया माहौल बनाकर देश, दुनिया में आध्यात्मिक, सामाजिक-आर्थिक, राजनीतिक, सांस्कृतिक, प्राकृतिक, मानवीय सत्व एवं शील के द्वार खोलें। बापू के विचार मानने वालों के लिए यह एक राह है। युवा, नई पीढ़ी ही इसे संभव कर सकती है।
*लेखक प्रख्यात गाँधी साधक हैं।