– ज्ञानेन्द्र रावत*
इसमें किंचित मात्र भी संदेह नहीं है कि मौजूदा समय में दुनिया में यूक्रेन-रूस युद्ध के चलते यदि सबसे ज्यादा खतरा किसी को है तो वह है पर्यावरण को है। इतिहास इसका जीवंत प्रमाण है।इसका मानव जीवन पर कितना दुष्प्रभाव पड़ रहा है, इसकी संभावना से ही रोंगटे खडे़ हो जाते हैं और दिल दहलने लगता है। सबसे बडी़ चिंता का कारण तो यही है। उस हालत में और जबकि धरती पहले ही से जलवायु परिवर्तन के दुष्प्रभावों के चलते विनाश के कगार पर पहुंच चुकी है। उस हालत में तो यह खतरा और बढ़ जाता है।
असलियत में युद्ध कहें या सशस्त्र संघर्ष कहें, उसमें समूचे पर्यावरण की प्रकृति ही खत्म हो जाती है। इसमें दो राय भी नहीं कि युद्ध का परिणाम दीर्घकालिक होता है। युद्ध के दौरान जहां बमों की बरसात होती है, वहां बमों के रसायनों से वहां की पारिस्थितिकी ही काफी बदल जाती है। उसका अहम कारण यह है कि बमों में प्रयुक्त रसायन हवा में घुलकर प्रतिकूल प्रभाव छोड़ते हैं। इससे प्रकृति प्रभावित होती है और वहां पर लम्बे समय तक खेती कर पाना संभव नहीं होता। गौरतलब यह है कि जहां तक पर्यावरण संरक्षण का सवाल है, किसी भी इलाके में पर्यावरण संरक्षण की आशा तभी की जा सकती है जबकि वहां स्थायी रूप से शांति स्थापित हो। यह सुशासन की कीमत पर ही संभव है। प्राकृतिक संसाधनों की सुरक्षा भी उसी दशा में हो सकती है। इनके खात्मे की दशा में पर्यावरण संरक्षण की आशा बेमानी हो जाती है।
फिर युद्ध में परमाणु और जैविकीय हथियारों के उपयोग की आशंका से तो समूची दुनिया पर भयावह खतरा मंडरा रहा है। जाहिर है कि यदि ऐसा हुआ तो समूची दुनिया बहुत बडे़ स्तर तक प्रभावित होगी और उसे भयंकर तबाही का सामना करना पडे़गा। इस सच्चाई से किसी भी कीमत पर मुंह नहीं मोडा़ जा सकता।
जहां तक जैविक हथियारों का सवाल है और जैसाकि रूस यूक्रेन पर आरोप लगा रहा है कि इस युद्ध में यूक्रेन जैविक हथियारों का इस्तेमाल कर सकता है। रूस का दावा है कि यूक्रेन में अमरीका के सहयोग से 26 जैविक अनुसंधान प्रयोगशालाएं हैं। वहां खतरनाक वायरस का भंडार है जिनको अमरीका युद्ध में इस्तेमाल कर सकता है। यही नहीं अमरीका के सहयोग से 30 देशों में 336 जैविकीय अनुसंधान प्रयोगशालाएं कार्यरत हैं। अमरीका भी यह मान चुका है कि यूक्रेन में जैविक हथियारों की प्रयोगशालाओं को पेंटागन आर्थिक सहायता दे रहा था और जैविक हथियार रूस पर खतरा बढा़ने का एक जरिया है। अमरीकी उप विदेश मंत्री विक्टोरिया नूलैंड की स्वीकारोक्ति इस आरोप का जीता जागता सबूत है। चीन ने भी अमरीका पर यूक्रेन के जरिये जैविक हथियारों के इस्तेमाल का आरोप लगाया है और कहा है कि वह यूक्रेन में जैविक हथियारों का निर्माण कर रहा है।
देखा जाये तो जैविक हथियारों का युद्ध में शत्रु देश या आतंकी गुटों द्वारा इस्तेमाल की आशंका को नकारा नहीं जा सकता। इसके इस्तेमाल की संभावना विरोधी पक्ष को सदैव बनी रहती है। इसका सबसे बडा़ कारण कम लागत में आसानी से उत्पादन और इसकी मारक क्षमता का सबसे ज्यादा घातक होना है। ये हथियार युद्धक अभिकारकों की घातकता को बहुत ज्यादा बढा़ देते हैं। इनमें कई तरह के वायरस, फंगस और जहरीले पदार्थों का इस्तेमाल होता है। ये थोडे़ समय में ही बहुत बडी़ तबाही मचाने के कारण बनते हैं। इससे लोग गंभीर बीमारियों के शिकार होकर मौत के मुंह में चले जाते हैं। यह शरीर को बहुत ही भयानक रूप से प्रभावित करते हैं। नतीजतन लोग विकलांग और मानसिक बीमारियों के शिकार हो जाते हैं।
दरअसल जैविक हथियारों के इस्तेमाल का इतिहास काफी पुराना है। प्राचीन काल में युद्ध के दौरान दुश्मन के इलाकों के कुंओं और तालाबों में जहर मिलाये जाने के उल्लेख मिलते हैं। ऐसे भी प्रमाण हैं कि छठवीं शताब्दी में मैसोपोटामिया के अस्सूर साम्राज्य के सैनिकों द्वारा दुश्मन के इलाकों के कुंओं में जहरीले फंगस डाले जाने से बडी़ तादाद में सैनिकों की मौत हो गयी थी। तुर्की और मंगोल साम्राज्य में भी ऐसे उदाहरण मिलते हैं। मंगोलिया में 1347 ईसवी में दुश्मन के इलाकों के तालाबों और कुंओं में बीमार जानवरों के फैंके जाने का भी उल्लेख मिलता है जिसकी वजह से प्लेग जैसी महामारी जिसे ब्लैक डैथ की संज्ञा दी गयी, से चार साल के भीतर ढाई करोड़ लोगों की मौत हुई थी। पिछली सदी में पहले विश्व युद्ध में जर्मनी द्वारा एन्थ्रेक्स और ग्लैंडर्स वैक्टीरिया के इस्तेमाल, दूसरे विश्व युद्ध में जापान द्वारा चीन के खिलाफ, 2001 में अमरीका में आतंकवादियों द्वारा अमरीकी कांग्रेस में एन्थ्रेक्स संक्रमित चिट्ठी भेजे जाने से पांच लोगों की मौत इसके जीते जागते सबूत हैं। चीन का ताजा उदाहरण सबके सामने है जिसमें उसने वुहान लैब से दुनिया में कोरोना वायरस फैलाया । इससे जहां सारी दुनिया में तबाही हुई और लाखों लोग अनचाहे मौत के मुंह में चले गये। सारी दुनिया की अर्थव्यवस्था बिगडी़ सो अलग जो अभी तक सुधर नहीं पायी है। ऐसा माना जाता है कि दुनिया में अमरीका, जर्मनी, चीन और रूस सहित 17 देश जैविक हथियारों से सम्पन्न हैं। वह बात दीगर है कि वह इस सत्य को अस्वीकार करें और जैविक हथियारों के निर्माण की होड़ में तेजी से आगे बढ़ रहे हैं। जबकि मार्च 26, 1975 को 22 देशों ने बायोलाजिकल वैपन्स कन्वेंशन और जेनेवा प्रोटोकाल के तहत जैविक हथियारों के निर्माण पर पाबंदी के समझौते पर सहमति दी थी और आज इसमें 183 देश शामिल हैं।
फिर परमाणु विस्फोट की स्थिति में देखें तो परमाणु बमों के विस्फोट से 1.6 से 3.6 करोड़ टन धूल व राख वातावरण में कई किलोमीटर की ऊंचाई तक उड़कर लम्बी अवधि के लिए छा जायेगी, वह धुंआ धरती की सतह पर जम जायेगा, नतीजतन धरती पर सूर्य की रोशनी में तकरीबन 20 से 30 फीसदी तक कमी आ जायेगी, इसका जलवायु, पानी तथा दूसरे प्राकृतिक संसाधनों पर जो दुष्प्रभाव पडे़गा, उसकी सदियों तक भरपायी असंभव हो जायेगी। यह भी कि परमाणु बमों के विस्फोट से निकला जहरीला धुंआ स्ट्रेटोस्फेयर जो धरती की बाहरी सतह है, और ओजोन परत से ऊपर है, में जम जायेगा। नतीजतन दुनिया के अधिकांश इलाकों में बारिश नहीं होगी। दुनिया में 45 फीसदी बारिश में कमी आयेगी। तापमान 7 से 8 डिग्री सेल्सियस पहुंच जायेगा। इसकी यदि 18 हजार साल पहले हिमयुग से तुलना करें जब वहां तापमान 5 डिग्री सेल्सियस था यानी दुनिया 18 हजार साल पीछे चली जायेगी।
यदि महायुद्ध में दुनिया के शक्तिशाली दो देश यानी अमरीका और रूस में मौजूद हथियारों के एक फीसदी का भी उपयोग हुआ तो तकरीब आधे घंटे की अवधि में 10 करोड़ के करीब लोग मौत के मुंह में चले जायेंगे। वैज्ञानिकों की मानें तो परमाणु बम से होने वाली तबाही में मात्र 10 सैकेण्ड ही लगते हैं। इस बीच चारो ओर सन्नाटा ही सन्नाटा छा जायेगा,पूरी की पूरी जलवायु प्रणाली तो प्रभावित होगी ही, तापमान तेजी से कम होने लगेगा,कृषि उत्पादन बुरी तरह प्रभावित होगा, नतीजतन 2 अरब से भी अधिक लोग जहां भुखमरी के कगार पर पहुंच जायेंगे, पूरी स्वास्थ्य प्रणाली तबाह हो जायेगी, लाखों को इलाज तक नसीब नहीं होगा और सालों तक लोग कैंसर, ल्यूकैमिया और फेफडो़ं आदि खतरनाक बीमारियों के शिकार होंगे और हजारों अपनी आंखों की रोशनी तक से हाथ धो बैठेंगे। दूसरा विश्व युद्ध प्रमाण है कि अगस्त 1945 में जब जापान में हिरोशिमा और नागासाकी पर अमरीका ने परमाणु हमला किया था तो हजारों-लाखों लोग मिनटों में ही मौत के मुंह में चले गये थे, यही नहीं सालों तक लोगों की मौत का सिलसिला जारी रहा था। और तो और दशकों तक वहां अपंग बच्चे पैदा हुए थे। ईराक युद्ध को ही लें वहां अमरीकी सेना द्वारा रेडियोधर्मी पदार्थ यूरेनियम से बने बमों के इस्तेमाल के चलते फलूजा शहर में आज भी विकलांग बच्चे पैदा हो रहे हैं।
अब जबकि यूक्रेन-रूस युद्ध जो केवल यूक्रेन की नाटो में शामिल होने की जिद और रूस द्वारा ऐसा होने पर अपनी सुरक्षा के खतरे की आशंका के चलते शुरू हुआ, उसको अब 22 दिन बीत चुके हैं, और जिसके जल्दी खत्म होने के आसार भी नहीं हैं। वह युद्ध जो अभीतक हवाई हमले, मिसाइल और टैंकों तक सीमित था, अब वह परमाणु और जैविकीय युद्ध की ओर बढ़ रहा है। इसकी आशंका दिन-ब-दिन और बलवती हो रही है। रूस की मानें तो यूक्रेन ने बहुत बडी़ तादाद में जैविक हथियार बनाए हैं व उसके पास उनका बहुत बडा़ जखीरा है। युद्ध में उनका इस्तेमाल यूक्रेन रूस के खिलाफ कर सकता है। इसमें अमरीका का सहयोग जगजाहिर है जो अब साबित भी हो चुका है। असलियत में आज यूक्रेन तबाह हो चुका है। फिर भी यदि यूक्रेन अमरीका और नाटो देशों के भरोसे युद्ध में डटा रहा, नाटो में शामिल होने की जिद में अडा़ रहा और क्षेत्रीय शांति की दिशा तथा नागरिकों के जीवन की रक्षा हेतु शांति स्थापना के मार्ग को अपनाने में विफल रहा तो निकट भविष्य में यह युद्ध रासायनिक या जैविक युद्ध में तब्दील हो जायेगा, इसकी प्रबल संभावना है। इसके लिए यूक्रेन के राष्ट्रपति लेजेंस्की तथा रूस के राष्ट्रपति व्लादिमीर पुतिन का नाम मानव जाति और दुनिया के विनाश के प्रमुख कारक के रूप में इतिहास में दर्ज होगा। हालांकि इसमें अमेरिकी राष्ट्रपति जो बिडेन के नेतृत्व में नाटो के देशों का भी बड़ा हाथ होगा इसमें दो राय नहीं।
*लेखक वरिष्ठ पत्रकार एवं पर्यावरणविद हैं।