– डॉ. राजेन्द्र सिंह*
तीर्थ और विरासत पर संकट है क्योंकि धार्मिक संगठन धर्म सिद्धांत पालना नहीं करा के विपरीत कार्य करा रहे हैं
दुनिया के धार्मिक संगठनों पर संयुक्त राष्ट्र संघ रोक लगवाये क्योंकि दुनिया की ‘विरासत‘ और ‘तीर्थ’ पर संकट है। पंचमहाभूतों से निर्मित मानवीय शरीर, उसकी आस्था, मानवता, प्रकृति की रक्षा, प्रेम, सम्मान, विश्वास, श्रद्धा, निष्ठा और भक्ति भाव से ही तीर्थ बनते हैं। जब भी दुनिया ने किसी क्षेत्र, स्थान, व्यक्ति, नदी या प्रकृति के किसी अंग के प्रति मन में प्रेम, सम्मान, विश्वास, श्रद्धा, ईष्ठ और भक्ति का भाव आता है, तो वह भाव ही उसे तीर्थ बना देता है।
सबसे बड़े तीर्थ तो पंचमहाभूत हैं। उनसे निर्मित जीवन है। जब तक जीवन के प्रति विश्वास और आस्था रहती है, तब हम उसे भी तीर्थ मानते हैं। यूँ तो दुनिया में ऐसे अरबों-खरबों तीर्थ होंगे, लेकिन जब हमारी आस्था कुछ विशिष्ट स्थानों में विशेष तौर से हमारी सुरक्षा भाव पैदा कर देती है, तब हम उसे अपनी धराड़ी या तीर्थ मानकर पूजने लगते हैं।
पूरी दुनिया में सबसे अधिक लोग गंगा किनारे कुंभ मे इक्क्ठे होकर इसका सम्मान करते है। अपनी भक्ति भाव मां गंगा जी को अर्पित करते है, इसलिए संख्या में दुनिया का सबसे बड़ा तीर्थ गंगा है। मैंने पूरी दुनिया से करोंडो-अरबों लोगों का प्यार, सम्मान, आस्था, श्रद्धा, ईष्ट और भक्ति भाव गंगा में देखा है। इसीलिए एक गंगाजल धारा के प्रति दुनिया में सबसे ज्यादा लोगों की आस्था है।
गंगा प्रदूषित होने के बावजूद तीर्थ बनी हुई है। जैसे-जैसे गंगा जल की विशिष्टता नष्ट होगी वैसे ही गंगा की आस्था कम होने लगेगी। गंगा का गुण नष्ट तो गंगा का तीर्थपन भी नष्ट होता जाता है। आज भी मुख्यतः प्राकृतिक और धार्मिक तीर्थ हमारी धारणा को बदलकर, धारण करने वाली पद्धति बना देते हैं। वह जीवन पद्धति ही हमारा धर्म बनकर, हमारे धार्मिक तीर्थां का सृजन करती है। इन धार्मिक तीर्थां की शुरुआत प्राकृतिक आस्था और धर्म रक्षा के लिए होती है। दुनिया का कोई भी धर्म सर्वशक्तिमान प्रकृति के बिना नहीं बना है। हम किसी को भी अपना ईष्ट निर्माता मानकर उसे पूजते रहते हैं। यह सब पूजा पाठ जब निजी आस्था से होता है, तब वह सत्य को भगवान मानकर अहिंसा के रास्ते पर चलकर धर्म का धारक बन जाता है।
जब धर्म के नाम पर धार्मिक संगठन बन जाते हैं, तब धर्म की सहजता-सरलता-समता नष्ट हो जाती है। मानवीय जटिलताएँ, धार्मिक जटिलताओं के साथ मिलकर मानवता को मानवीय समूहों और समुदायों में बाँट देती हैं; आपस में लड़ा देती हैं। फिर वह धर्म अपने मूल चिंतन से भटक कर, अपने धार्मिक संगठन की जटिलताओं में उलझ जाता है, फिर वहाँ धर्म व तीर्थ नहीं बचता। उसके स्थान पर बड़ा भारी-भरकम आर्थिक व्यापार खडा़ हो जाता है। धर्म के नाम पर दुनिया में भयानक रूप से आपसी लडाईयां शुरू हो जाती हैं। धर्म सत्ता और राज सत्ता मिलकर, धर्मतीर्थ संवेदनाओं को नष्ट कर देती है। धर्म ‘शुभ’ पुण्यकर्म को छोड़कर उसके विपरीत लालची लाभ के रास्ते पर अनुयाईयों को चलाने लगता है।
कोविड-19 के बाद क्या इस पूरी दुनिया में अब सीख लेकर विश्व स्तर पर धार्मिक व राजनैतिक सीमा तथा जटिलताओं को जान-समझकर इनकी जटिलताओं से बचकर तीर्थ बचाओ का कोई ढाँचा, बिना किसी दलगत व धार्मिक, राजनीति के पूरी मानवता, प्रकृति की सुरक्षा और पुनर्जीवन की दिशा में कुछ पहल करने की रूपरेखा बनायी जानी चाहिए? मैं इस दुनिया के सैकड़ों हजारों लोगों को जानता हूँ, जो प्राकृतिक सत्य को ही भगवान मानते हैं, और अहिंसामय तरीके से जीते हैं। यही सभी का सहज धर्म व तीर्थ है। इससे समाज में समता, सादगी, स्वावलंबन श्रमनिष्ठ होती है। यही शोषण मुक्त करके मानवता और प्रकृति के पोषण में सभी को सच्चे काम में लगाता है। यही तीर्थ बनाने और बचाने की प्रक्रिया है। इसी प्रक्रिया को चलाने वालों की बातें इसमें समाहित करने का प्रयास है।
कोविड प्रकृति के साथ समाज के अधार्मिक व्यवहार से जन्मा है। जब भी समाज का अपनी विरासत या तीर्थों से प्रेम खत्म होता है। तभी अधर्म बढ़ता है। यही धर्म संगठन अधार्मिक प्रक्रिया को तेज करते हैं। धार्मिक संगठनों का इतिहास प्रमाणित करता है। धार्मिक संगठन राजसत्ता के साथ जुड़कर सत्ता पाने हेतु सभी अधार्मिक काम समाज से कराते हैं। इन कार्यों से तीर्थपन विरासत और भारतीय ज्ञानतंत्र सभी कुछ नष्ट होता रहता है। आज पूरी दुनिया में यही हो रहा है। इसे रोकना चाहिए। मानव के अपने प्राकृतिक धर्म में आपसी प्रेम सद्भावना बढ़ती है।
धार्मिक संगठन सद्भावना मिटाते हैं। दुनिया के सभी धार्मिक संगठनों का चरित्र एक जैसा ही है। अतः इन पर रोक लगे। संगठन मुक्त धर्म ही चले। वही मानवता और प्रकृति का सनातन रिश्ता बनाता है। धार्मिक संगठन इंसानों के बीच गहरी खाई खोद रहे हैं। संयुक्त राष्ट्र संघ इस दिशा में पहल करे। और पूरी दुनिया के धर्म संगठनों पर रोक लगवाये। धर्म तो निजी प्रेम विश्वास, आस्था, श्रद्धा और भक्ति भाव से धर्म सिद्धांतों की पालना करता है। संगठन धर्म सिद्धांत पालना नहीं कराके विपरीत कार्य करा रहे हैं।
*लेखक जलपुरुष के नाम से विख्यात पर्यावरणविद हैं। प्रस्तुत लेख उनके निजी विचार हैं।