दो टूक: पारा चढ़ने का टूटता रिकॉर्ड
आजकल ज्यों ज्यों गर्मी बढ़ रही है, पारा चढ़ने का रिकॉर्ड टूट रहा है। राजस्थान में 50 डिग्री छू लिया है अब इससे आगे बढ़ें या नीचे उतरें यक्ष प्रश्न सबके सामने है। बढ़ते अंधाधुंध शहरीकरण जनसंख्या विस्फोट और उसी के कारण शहरों में तापमान भी बढ़ रहा तो लोग थोड़ा सोचने को मजबूर हुए हैं कि गर्मी सितम कैसे कर रही है। पारा बढ़ने से सरकार में बैठे जिम्मेदार लोगों की भी चिंताएं बढ़ गई है और वह भी घोषणा और संकल्प कर रहे हैं कि आगामी वर्षाकाल में करोड़ पेड़ लगाए जाएंगे। सरकार को अपना दायित्व पूरा करना चाहिए और ऐसी स्थिति बनाना चाहिए कि पेड़ लगा सके और चल सके। पर वापस पेड़ लगाने की स्थिति बनाना बहुत ही कठिन और खर्चीला कार्य है या यह कहा जाए की युद्ध स्तर पर सरकारें निर्णय करें तो ही संभव लगता है अन्यथा बहुत मुश्किल है।
शहरीकरण में सड़कों को चौड़ा करने से लेकर बड़े बड़े भवन निर्माण, फ्लाईओवर, सीमेंट कंक्रीट डामरीकरण सीमेंट ब्लॉक्स के काम को ही विकास का पर्याय माना जाने लगा है। खेतों, पहाड़ों, नदियों, तालाबों को विकास प्राधिकरणों के हवाले किया जा रहा है बिना जनसंख्या संतुलन के। इसी का परिणाम है कि आईटी हब बैंगलोर जल संकटों से घिरा है। पुणे भी उबल रहा है। कोटा सर्वाधिक प्रदूषण की मार झेल रहा है। चम्बल रिवर फ्रंट पर्यटकों के लिए तरस रहा है।पारा बढ़ने से राज्यों की सीमा झुलस रही है। दिल्ली में पर्यावरणीय आपातकाल लागू हो जाता है।
राजस्थान समेत लगभग सभी राज्यों के शहरों में पेड़ लगाने की परिस्थितियां समाप्त हो गई है। हम तो फिर भी पेड़ तो जगह-जगह लगा देंगे, पर यह बड़े-बड़े पैसे वाले इन्वेस्टर और बिल्डर लोग आए दिन नई-नई कॉलोनीया काटते हैं, लग्जरी अपार्टमेंट बनाते हैं, बड़ी-बड़ी कंपनियां हर शहर और गांव के बाहर लाई जा रही है , जिससे जंगलों का सफाया हो रहा है और खेतों को उच्च दाम पर खरीद कर वहां पर कालोनिया काटी जाती है तो बताओ आम आदमी पेड़ की रक्षा कैसे करें? क्या इसके लिए कोई रोकथाम नहीं है ?
शहरों में तो पेड़ लगाने की जगह न के बराबर है। आने वाली पीढ़ी लाख यत्न करले तो भी पेड़ नहीं लगा सकती ये कड़वी सच्चाई है। पेड़ लगाने से पूर्व सीमेंट कंक्रीट की सड़कों को तोड़ने का साहस कौन करेगा? हरितिमा पट्टियां, पार्क तक अतिक्रमणों के शिकार है। कहीं सामुदायिक भवन तो कहीं धार्मिक स्थल बन गए। मकानों के नक्शे में कोई सेटबैक छोड़ने का प्रवधान ही नहीं रहा। कचरा के डंपिंग यार्ड की संख्या बढ़ती जा रही है और उनमें सुलगती आग शहर के तापमान को भी बढ़ा रही है। शहरी निकायों की हालत ऐसी है कि हर कोई रसूखदार उसका दोहन, शोषण करना चाहता है। सैकड़ो बड़े पद खाली है। गांवों में किसान भी पेड़ नहीं लगा रहा।
सरकार आंखों को बंद करके बैठी है। उसे प्राकृतिक चीजों में हो रहे नुकसान को देखने की कहां फुर्सत है? कितने सारे जंगल आज नष्ट हो चुके हैं विकास के नाम पर! पैसे वाला अमीर आदमी पैसे से पैसा बना रहा है और दिन पर दिन जमीनों के भाव बढ़ रहे हैं, महंगाई बढ़ रही है, अनाज, सब्जी, खाने के संसाधन मुहैया नहीं हो पा रहे क्योंकि जमीन ही कहाँ बची है अब? मकान पर मकान बन रहे हैं पर मानव जीवन और समुचित जीवों का जीवन जीना दुर्भर हो गया है।कितने सारे पशु पक्षी अपना घर खो बैठे हैं उनकी प्रजातियों खत्म और विलुप्त हो गई है। बड़ी-बड़ी कंपनियों से निकलने वाले रासायनिक पदार्थों के कारण हमारे आसपास की नदियों का जल दूषित हो गया है। स्वच्छ पानी नहीं, स्वच्छ हवा नहीं, स्वच्छ जंगल नहीं, पेड़ पौधे नहीं!
जो प्रकृति हमें जीवन दे रही है उसी का हम सत्यानाश कर रहे हैं और बहुत ज्यादा दुरुपयोग.. जमीनों का यह दुरुपयोग बिल्डरों के द्वारा बंद होना चाहिए चाहे वह कितना ही पैसे वाला क्यों ना हो.. सरकार इसके लिए कोई कड़े नियम लाए तो जरूर रोकथाम लग सकती है..
भारत जैसे लोकतांत्रिक देश में कड़े निर्णय करने की हिम्मत शायद ही किसी सरकार में हो। हमने कोरोना काल में कई पाबंदियां लगाई थी। प्रधानमंत्री ने स्वयं आगे आ कर कई मोर्चों पर खुद को झोंक दिया था। उस समय लोग प्रकृति की थोड़ी सी परवाह करने लगे थे पर जैसे ही कोरोना का प्रकोप खत्म हुआ वापस अपने ढर्रे पर आ गए।
जैसे ही पारा थोड़ा नीचे गिरेगा फिर मौज मस्ती के लिए नदियों झरनों और तालाबों के किनारे पिकनिक करने पहुंच जाएंगे। वहां पर प्लास्टिक का कचरा फैला कर आएंगे। वहां भी साफ सफाई का पर्याप्त स्टाफ नहीं है। नई भर्तियां लगभग बंद सी हैं।अपने आसपास का पर्यावरण खत्म कर लोग पर्यटन के लिए पहाड़ों के तीर्थ स्थलों पर घूमने चले जाते हैं और वहां भी गर्मी पैदा कर देते हैं। और फिर चिंता करते हैं कि पर्यावरण बिगड़ने से पारा चढ़ने का रिकॉर्ड टूट रहा है।
धरती का बुखार उतारने का बीड़ा नागरिकों को खुद उठाना पड़ेगा। केवल सरकार के भरोसे नहीं छोड़ा जा सकता इस विषय को। पर्यावरण बचाने की सोच नागरिकों में खुद पैदा करना होगा और सरकारों को इस प्रकार के लोगों की मदद करनी होगी। भविष्यवक्ताओं का कहना है कि समय रहते इस समस्या को गंभीरता से नहीं लिया तो बढ़ता तापमान अनेक प्रकार की महामारियां पैदा कर देगा जिससे निपटना सरकारों के लिए और भी मुश्किल होगा। हमने विकास के बड़े बड़े कीर्तिमान कायम कर रखे हैं।आवश्यकता यह है कि तमाम विकास की परियोजनाओं की समीक्षा की जाए उन परियोजनाओं को ईको फ्रेंडली कैसे बनाया जाए। यही सतत और सनातन विकास होगा अन्यथा विनाश तो मुंह बाए खड़ा ही है।
*स्वतंत्र पत्रकार एवं पर्यावरणविद्।प्रस्तुत लेख उनके निजी विचार हैं।