आज हमारी आस्था और श्रद्धा का प्रतीक, जंगल का इंजीनियर कहें, माली कहें या फिर पारिस्थितिकी तंत्र का असली वास्तुकार कहें, गजराज जिसे हम आम भाषा में हाथी कहते हैं, आज अपने अस्तित्व के संकट से जूझ रहा है।
हकीकत में एक समय देश में चालीस-पैंतालीस हजार से भी अधिक हाथी थे। यह भी कड़वा सच है कि हाथी संरक्षण के नाम पर करोडो़ं खर्च करने के बाद भी देश में आज कुल कितने हाथी हैं, यह आंकड़ा किसी के पास भी नहीं है। अनुमान के अनुसार देश में इनकी तादाद 27 हजार के आसपास बतायी जा रही है लेकिन सरकार इनकी तादाद करीब तीस हजार के करीब बताती है जबकि कुछ जानकार इनकी तादाद 15,887 बताते हैं। उनके अनुसार 2017 में इनकी तादाद 19,825 थी जिसमें अब करीब 20 फीसदी से ज्यादा की कमी आई है। यानी कुल मिलाकर 3938 हाथियों की कमी आई है। उस हालत में जबकि सरकारी सूत्रों की ही मानें तो 2012 में देश में कुल हाथियों की तादाद 31,368 थी । बहरहाल इतना तय है कि हाथियों की तादाद में कमी आई है जो चिंताजनक है। इस बारे में वन्यजीव प्रेमी और पर्यावरणविद बरसों से चेता रहे हैं लेकिन सरकार है कि वह इनकी तादाद में बढ़ोतरी का दावा करते नहीं थकती। जबकि वन प्रभाग के आंकड़ों के मुताबिक यदि देश के उत्तराखण्ड, झारखण्ड, पश्चिम बंगाल और ओडिशा इन चार राज्यों का ही जायजा लें तो साफ हो जाता है 2017 के मुकाबले इन 4 राज्यों में हाथियों की संख्या में करीब चार हजार से ज्यादा की कमी आई है। गौरतलब है उत्तराखंड में 2017 में 1839 हाथी थे जो आज 1792 बचे हैं। ओडिसा में 1976 थे जो अब 912 बचे हैं। जबकि सरकार वहां 2098 हाथी होने का दावा कर रही है। उस हालत में जबकि सरकार के मुताबिक वहां केवल 1,700 हाथियों के लिए ही जगह है। झारखण्ड में 2017 में 670 हाथी थे जो अब 217 ही बचे हैं। पश्चिम बंगाल को लें, वहां 2017 में 194 थे जिनमें से अब केवल 31 बचे हैं। जाहिर है उत्तराखंड में हाथियों की तादाद में 2017 के मुकाबले 2.8 फीसदी, ओडिसा में 54 फीसदी, झारखण्ड में 68 फीसदी और पश्चिम बंगाल में 84 फीसदी की गिरावट आयी है। उस दशा में हाथियों की तादाद में बढ़ोतरी का दावा बेमानी प्रतीत होता है।
दरअसल हाथियों के अस्तित्व से जुड़ा यह मुद्दा इसलिए चर्चा का विषय बना कि बीते पखवाडे़ में दीवाली के त्यौहार के चार दिन पहले 72 घंटे के दौरान मध्य प्रदेश के बांधवगढ़ में दस हाथियों की कथित जहरीले पदार्थ खा लेने और छत्तीसगढ़ के रायगढ़ जिले में तीन हाथियों की करंट लगने से हुयी मौतों और मार टाइगर रिजर्व के करीब टिंगीपुर गांव में एक मृत शावक के मिलने से पूरे देश में तहलका मच गया। असलियत में अचानक 14 हाथियों जिसमें नौ मादा और उसमें भी दो हथिनियां गर्भवती थीं, ने हाथियों के संरक्षण के प्रयासों में लापरवाही पर ढेरों सवाल खडे़ कर दिये। वहीं प्रधानमंत्री कार्यालय ने भी इस पर संज्ञान लेते हुए मध्य प्रदेश सरकार से तुरंत रिपोर्ट देने को कहा। इस मामले में प्रधानमन्त्री कार्यालय की सख्त टिप्पणी और वन्य जीव प्रबंधन पर उठ रहे सवालों को देखते हुए मध्य प्रदेश के मुख्यमंत्री डा० मोहन यादव ने तुरत-फुरत लापरवाही के आरोप में बांधवगढ़ रिजर्व के फील्ड डायरेक्टर गौरव चौधरी और सहायक वन संचालक यानी एसीएफ फतेह सिंह निनामा को निलम्बित कर प्रदेश में राज्य स्तरीय हाथी टास्क फोर्स के गठन और हाथियों के प्रबंधन की कार्ययोजना बनायी जाने की घोषणा कर डाली। जहां तक इस मामले में वन अधिकारियों की लापरवाही का सवाल है, इस बारे में बांधवगढ़ के स्थानीय ग्रामीण कहते हैं कि हमने हाथियों के चिंघाड़ने की आवाज सुनते ही नजदीकी चौकी और उच्च वन अधिकारियों को सूचना दी थी लेकिन घंटों बाद भी अधिकारी घटना स्थल पर नहीं पहुंचे। काफी देर बाद जब वन विभाग के अमले ने उच्चाधिकारियों को वस्तुस्थिति की जानकारी दी तब कहीं जाकर उच्चाधिकारियों ने जाकर हाथियों की सुध ली लेकिन तबतक बहुत देर हो चुकी थी। उमरिया से लौटे उच्च स्तरीय जांच दल की मानें तो हाथियों की मौत के पीछे रिपोर्ट में किसी भी कीटनाशक का होना नहीं पाया गया है जबकि हाथियों की मौत के पीछे कोदो-कुटकी और टाक्सिन बताया गया था। अब जब जांचदल कोदो-कुटकी और टाक्सिन की मौजूदगी को नकार रहा है तो अब सवाल उठता है फिर हाथियों की मौत का कारण क्या रहा, यह सवाल संदेह के घेरे में है। विडम्बना यह है कि इसका जबाव किसी के पास नहीं है।
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सरकार की मानें तो आज से करीब 32 साल पहले 1992 में हाथी संरक्षण योजना की शुरुआत हुयी थी। उस समय देश में कुल 15 हजार के करीब ही हाथी बचे थे। उसके बाद के इन सालों में हाथियों की तादाद बढ़कर दोगुना हो गयी। डब्ल्यू डब्ल्यू एफ इंडिया की ‘क्रिटीकल नीड आफ ऐलीफेंट’ रपट के मुताबिक इस समय दुनिया में तकरीब 50,000 हाथी हैं जिनमें से 60 फीसदी भारत में हैं।
हमारे यहां देश के 14 राज्यों में कुल मिलाकर 34 स्थान हाथियों के लिए संरक्षित हैं। दुखदायी बात यह है कि इनमें हालात अच्छे नहीं हैं। वहां न तो उन्हें पर्याप्त भोजन मिलता है और न पानी ही। कारण वनोपज यानी बांस, घास और महुआ के फल-फूल का तेजी से बढ़ता बेतहाशा दोहन है। कारण बाजार में इनकी तेजी से बढ़ती मांग भी है। हाथी खाने के मामले में बेहद संवेदनशील होता है और गन्ने, मक्का और धान की फसल उनके लिए बेहद पसंदीदा स्वादिष्ट और पौष्टिक होती है। यदि ये उन्हें पर्याप्त मात्रा में मिल जाता है तो उनका पेट भर जाता है। इसके न मिलने पर वे भोजन की तलाश में जंगलों के बाहर निकलते हैं। यही मानव और उनके बीच संघर्ष में बढ़ोतरी का मुख्य कारण है। सच तो यह है कि उनको रोजाना 100 लीटर से ज्यादा पानी और करीब 250 से 300 किलो तक पत्ते, पेड़ की छाल, तने, महुआ व उसके फल आदि खाने को चाहिए। इसके अभाव में ही उनको रोजाना भटकना पड़ता है और जब उन्हें यह नहीं मिलता, तो पेट भरने के लिए जहरीली घास आदि मजबूरी में खाते हैं या फिर वह बस्तियों की ओर रुख करते हैं।
यहां इस तथ्य से इंकार नहीं किया जा सकता कि देश में विकास के नाम पर शहरों के विस्तार, रेल व सड़क मार्ग का निर्माण, बिजली की लाइनों के बिछाने और अवैध कब्जों के कारण जंगल और जलाशय खत्म होते जा रहे हैं। नतीजा हाथियों के प्राकृतिक आवास नष्ट होते जा रहे हैं जिससे हाथियों की आबादी पर असर पड़ रहा है। बीते दस सालों में 1160 से ज्यादा हाथियों की मौत इसका सबूत है। इसमें 186 रेल दुर्घटना से, 64 जहर देने से, 169 शिकार के चलते, इसमें हाथी की तुस्सी और दांतों की बाजार में बढ़ती मांग अहम कारण है, और 741 की मौत बिजली का करंट लगने से हुयी। फिर कोई साल ऐसा नहीं जाता जबकि दक्षिणी राज्यों में 20 से 30 हाथियों की मौत संदिग्ध हालात में न होती हो।
यही नहीं। बीते सात बरसों में मानव और हाथियों के बीच संघर्ष में 461 से ज्यादा लोग मौत के मुंह में चले गये। भारत सरकार का वन एवं पर्यावरण मंत्रालय भी इसकी पुष्टि करता है।
यदि हाथियों की मौत का यही रवैय्या बरकरार रहा तो आने वाले दिनों में हाथी भी किताबों की वस्तु बन जाएंगे। इसके लिए जंगलों का रहना और रेल व सड़क मार्ग के विस्तार के समय हाथियों के मार्ग को अवरुद्ध न किया जाना बेहद जरूरी है। जंगल रहेंगे तो वन्यजीव भी सुरक्षित रहेंगे।
इसमें दो राय नहीं कि धरती पर इंसान का अस्तित्व तभी तक है जब तक जंगल हैं। यह भी कि जंगल में जितने जरूरी बाघ हैं, उतने ही जरूरी हाथी भी हैं। इसलिए बाघ और चीता परियोजना के साथ हाथी जिसके बल पर जंगल हैं, उसके संरक्षण पर विशेष ध्यान देने की जरूरत है। यदि इनके प्रबंधन पर तत्काल ध्यान नहीं दिया गया तो लापरवाही के चलते हुयी बांधवगढ़ जैसी घटनाओं की पुनरावृत्ति होती रहेगी और हाथी के दर्शन दुर्लभ हो जायेंगे।
*लेखक वरिष्ठ पत्रकार एवं पर्यावरणविद हैं।