वेद के एक-एक मंत्र का उपयोग, भिन्न-भिन्न पापों के नाश के लिए होता है, लेकिन अघमर्षण सूक्त सब पापों का क्षालन करता है। ऋग्वेद में अघमर्षण सूक्त के तीन मंत्र हैं। अघमर्षण का अर्थ है, पापनाशक । यह सूक्त संध्योपासना में बोला जाता है। इस मंत्र के जप से पाप-निरसन होता है। इसलिए शंकराचार्य ने इसकी सिफारिश की है- अघमर्षणं कुर्यात्। अघमर्षण सब सूक्तों का राजा है। साधक अघमर्षण सूक्त का जप करें। जिस तरह से पानी से पूर्ण भरा हुआ कुंभ समुद्र में रखते हैं, उसके अंदर-बाहर पानी ही पानी रहता है, उसी तरह अपना मन पूर्ण ब्रह्म में विलीन करें, यह अघमर्षण है। मनु ने भी इसकी सिफारिश करते हुए कहा है कि कुल के कुल पाप दूर करने के लिए अघमर्षण सूक्त का जप किया जाये।
इस सूक्त में पाप-विनाशन का कोई उल्लेख ही नहीं है। सिर्फ इतना ही वर्णन है कि भगवान ने सृष्टि की रचना कैसे की।
परमेश्वर ने आरंभ में जप किया, तो उसे सूझा नहीं कि सृष्टि कैसे बनेगी। फिर उसने तप की ज्वाला जलायी, चिंतन किया। सर्जन के लिए ज्ञानयुक्त तप किया। उसने चिंतन करके ऋत और सत्य, ये दो तत्त्व निकाले। उसके बाद रात्रि पैदा हुई। और फिर अनेक लहरोंवाला समुद्र हुआ। फिर उनमें से दिवस, रात्रि, सूर्य, चंद्र, काल आदि उत्पन्न हुए। पूरे विश्व का जो धाता नायक है, उसने सूर्य-चंद्र जैसे पहले थे, वैसे पैदा किये यथापूर्वमकल्पयत। बीज में से फल पैदा किया। पृथ्वी पैदा की, अंतरिक्ष पैदा किया, स्वर्ग पैदा किया। तो इससे पापमार्जन कैसे होगा?
विशालता के भान से, नम्रता में एक बात यह कही कि सूर्य, चंद्र, भगवान ने ऐसे निर्माण किये जैसे पहले थे। मतलब सृष्टि अनादि, अनंत है और बीच-बीच में प्रलय, उत्पत्ति होते हैं। लेकिन अनादि काल से इस महान विशाल सृष्टि में कितने गोल हैं, मालूम नहीं। कहते हैं कि आकाशगंगा में दो हजार करोड़ सूर्य हैं। और यह जो दूरबीन से दिख रहा है, वह उसका केवल अंदाज है। लेकिन आकाश इतना अनंत है कि उसके किसी एक कोने में भी जो चलता है, उसका भी नाप दूरबीन से नहीं आ सकता। यह सारी नक्षत्रमाला एक कोने में है। जगत का अर्थ गतिमान है। जगत शब्द बड़ा सूचक है। पृथ्वी निरंतर गतिमान है। गतिमान पृथ्वी में हमारे सामने जो नक्षत्रमाला दिखती है, उसकी अनंत गति है। इसमें सृष्टि-रचना का, उसकी विशालता का, उसके में जाकर मूल खोज करने का तत्त्व समझाया है। इसके परिणामस्वरूप चित्त में अहंकार नहीं रहेगा। इस शरीर की क्षुद्रता प्रतिक्षण प्रतीत होगी।
जहां अनंत सूर्य हैं, जहां अनंत गोल हैं, वहां उनमें एक पृथ्वी! और उस पृथ्वी में अनंत प्राणी हैं। एक-एक जलबिंदु में असंख्य-असंख्य जंतु रहते है। उधर अत्यंत अणु और इधर अत्यंत महान! ऐसी विशाल पृथ्वी पर मैं एक मनुष्यप्राणी! उसकी अनेक वासनाएँ और अनेक मोहजाल। जब नक्षत्रमाला का ख्याल करते हैं तब अपनी क्षुद्रता का भान होता है। और मनुष्य नम्र बनता है, तो उसके पापों का क्षालन होता है। पाप अहंकार के कारण होता है। जहां अहंकार शांत होता है और नम्रता का भान होता है, वहां पाप का मार्जन होता है। इस सूक्त के जप से पाप जाता है, इसका मतलब सृष्टि की विशालता का भान होता है और अहंकार जाता है।
अघमर्षण सूक्त में अनादि, अनंत, अपार, निःसीम सृष्टि का वर्णन कर दिया, जिसे पढ़कर मनुष्य को लगता है कि मैं कितना क्षुद्र हूँ। वैसे ही ज्योतिष-शास्त्र का अभ्यास करते हैं, तब लगता है कि पृथ्वी कितनी नाचीज है। सूर्य भी एक छोटा सा बिंदुमात्र है। ये जो सारी तारिकाएं, नीहारिकाएं रात को दिखाई पड़ती हैं, वे अनंत आकाश के एक कोने में पड़ी हुई हैं और अनंत आकाश असीम फैला हुआ है। यह भी कहा जाता है कि, आकाशगंगा में साठ करोड पृथ्वियां हैं। पृथ्वी यानी ग्रह, जिसमें मानव जैसे प्राणी रहते हैं। हम सोचते हैं कि, जहां दो हजार करोड तारे और साठ करोड़ पृथ्वियां हैं, वहां उन सबके बीच हमारी इस छोटी-सी पृथ्वी का क्या स्थान होगा? क्या इसे आकाशगंगा का एक बिंदु माना जायेगा? वह बिंदु में भी नहीं दिख सकेगी। आकाशगंगा का नक्शा बनायें तो उसमें इस पृथ्वी को दिखाना भी मुश्किल हो जायेगा।
आकाशगंगा के सामने जहां पृथ्वी की यह स्थिति है, वहां मानव की क्या स्थिति होगी? इस पृथ्वी पर सात सौ करोड़ मानव हैं। करोड़ों-करोड़ों प्राणियों में एक मानव प्राणी ! उन सात सौ करोड़ मानवों में एक मानव ‘‘मैं’’। इसलिए हमें समझना चाहिए कि इस विशाल जगत में टोटल (संपूर्ण) में जो परिणाम आयेगा, सो आयेगा। उसमें हमारी क्या हस्ती है! अभी मैं रेडियो अस्ट्रानोमी की किताब पढ़ रहा था, तो मेरी आंखों से आंसुओं की धारा बही। उसमें लिखा है कि कुछ ग्रह कोटि- कोटि प्रकाश वर्ष दूर हैं। वहां प्रलय हो रहा है। वह हमारे पास आयेगा, हमको छूयेगा, लेकिन यहां आते-आते कुछ करोड़ वर्ष लग जायेंगे, आदि। अब इतनी विशाल सृष्टि में हमसे क्या बननेवाला है? कुछ थोड़ी नैतिक दृष्टि से लोगों को उन्नति का भान हुआ, तो बहुत हुआ। इससे ज्यादा क्या होनेवाला है? ऐसी हालत में मैं यह सोचूं कि ‘दुनिया में मेरा भी कुछ स्थान है और मैं भी कुछ हूं’, तो मैं मूढ़ात्मा हूँ।
जो इस सृष्टि-रचना को समझेगा, वह सत्यस्वरूप होगा। जो इस पर सोचेगा, उसके ध्यान में आयेगा कि ऊपर-ऊपर कितना है। सोचते-सोचते पीछे- पीछे चले जायें इस भूमि को उसका आधार, उसको उसका आधार, ऐसा करते-करते पीछे-पीछे चले जाते हैं तो परमेश्वर के पास पहुँच जाते हैं।
परमेश्वर अंतर्यामी रूप में विराजमान है। शरीरगत, शरीर को पहचाननेवाला जो तत्त्व है, शरीर से भिन्न, उसे आत्मा कहते हैं। सृष्टि के अंदर रहनेवाला, सृष्टि को पहचाननेवाला, सृष्टि से भिन्न जो एक तत्त्व है, उसे ईश्वर कहते हैं। वहां ईश्वर का अनुग्रह प्राप्त होता है, उसकी कृपा मिलती है। रोजमर्रा हम यह अनुभव करते हैं। अनुभव करते हैं, फिर भी नहीं समझते कि वह ईश्वर की कृपा है। प्रतिक्षण हम श्वास अंदर लेते हैं, खराब वायु बाहर छोडते हैं, बाहर की स्वच्छ, निर्मल वायु अंदर लेते हैं। यह ईश्वर की कृपा है, लेकिन हम इसे वायु-कृपा समझते हैं। शरीर में जलतत्त्व है। वह जरा-सा सूखता है, तो पानी पीते हैं। इसे हम जल-कृपा समझते हैं, परमेश्वर की कृपा नहीं समझते। ऐसी मिसालें बहुत दी जा सकती हैं। हमारा शरीर मांसपेशियों का बना हुआ है। शरीर का वजन जब घटता है, शरीर कमजोर बनता है, तो बाहर एक मांसपेशियों को बढ़ाने वाला सृष्टि का अंश, मक्खन और दूध हम खाते हैं। इसे हम दूध और मक्खन की कृपा समझते हैं, ईश्वर की कृपा नहीं समझते। यानी ब्रह्मांड की कृपा पिंड पर हो रही है, यह नहीं समझते। सूर्य की कृपा आंख पर हो रही है, जल की कृपा शरीरांतर्गत जलतत्त्व पर हो रही है। वायु की कृपा प्राण पर हो रही है। यह सारी सिर्फ ईश्वर- कृपा है।यह सारी सृष्टि की कृपा समझते हैं और कुछ हद तक वह सही है, लेकिन जहां हम फेफड़े मजबूत करने के लिए स्वच्छ वायु की मदद लेते हैं, वहां हम यह भी कर सकते हैं कि अंदर की बौद्धिक और मानसिक दुर्बलता हटाने के लिए, ब्रह्मांड अंतर्गत स्मृति और मन का भी इस्तेमाल करें। यह हम करते भी हैं। मेरी बुद्धि कमजोर है, तो गुरु का बोध मैं लेता हूँ। हम समझते हैं कि गुरु-कृपा मुझ पर हो रही है। हम उसे ईश्वर की कृपा नहीं समझते। जैसे केला खाने से बढ़ा, तो केले की कृपा समझते हैं, वैसे ही गुरु-कृपा हुई, ऐसा समझते हैं। लेकिन एक मौका आता है, जहां न गुरु-कृपा मदद करती है, न वायु-कृपा, न और कोई कृपा। उस वक्त ब्रह्मांड में जो परमेश्वर है, उसकी मदद मांग सकते हैं। जहां आत्मतत्त्व की कमी मालूम हुई, उसकी पूर्ति के लिए परमेश्वर- तत्त्व से मदद मिलती।
प्राचीन काल में हमारे विचारक पंचभूत मानते थे। आज जो मूलतत्त्वों का पता लगा है, वह उन पंचभूतों को काट नहीं सकता। वे पंचभूत दृश्य के पृथक्करण में से निकले हुए नहीं हैं, दर्शन के पृथक्करण में से निकले हैं। जब तक हमारी पांच इंद्रियां हैं, तब तक हमारा दर्शन पंचविध रहेगा। सृष्टि में पंचभूत ही कायम रहेंगे। हम पंचमहाभूतों की गिनती संस्कृति में करते हैं। पंचमहाभूत को हिन्दी में अन्य नामों से भी जानते हैं: भूमि, गगन, वायु, अग्नि, नीर। इनमें से पानी और अन्न (पृथ्वी और जल) को छोड़कर तीनों भूतों (तेज, वायु और आकाश) के साथ ध्यान में संबंध आता है। अन्न और पानी का समावेश कर्मयोग में (अर्थात् सेवा में) होता है। कर्मयोग की साधना में ये दो भूत प्रधान होते हैं और ध्यान योग में शेष तीन भूत।
पश्चिम में प्लेटो, अरिस्टॉटल, साक्रेटिस, कांट, शोपेनहावर, ग्रीन जैसे प्राचीन – अर्वाचीन तत्त्वज्ञानियों ने पंचमहाभूतों की गिनती अध्यात्मविचार में नहीं की है। वे उनको फिजिक्स की चीज मानते हैं। लेकिन हिंदुस्तान की यह विशेषता है कि, यहां फिजिक्स (भौतिक विज्ञान) और मेटाफिजिक्स (तत्त्व विज्ञान) अलग-अलग नहीं माने गये। अपने देह में पंचमहाभूत मुख्य माने गये हैं। और वे ही सृष्टि में हैं। पिंड और ब्रह्मांड एक है, यह विचार भारत का अपना विचार है।
*जलपुरुष के नाम से विख्यात जल संरक्षक