रेवड़ियां देश में राजनैतिक दलों के लिए वरदान बन रही है। वह चाहे हालिया सम्पन्न महाराष्ट्र या झारखंड के चुनाव हों या फिर इससे पहले सम्पन्न हरियाणा के चुनाव हों, तेलंगाना के हों या उससे पहले कर्नाटक के चुनाव हों, राजनैतिक दलों ने चुनाव जीतने के लिए मतदाताओं के सामने मुफ्तखोरी का जो दाना डालना शुरू किया है, वह किसी हद तक कामयाब होता दिख रहा है।
देखा जाये तो दशकों पहले चुनाव जीतने के लिए राजनीतिक दल नये-नये हथकंडे अपनाते थे, धर्म, जाति, भाषा, प्रांतवाद का तड़का तो उसमें लगता ही था, धनबल का भी भरपूर इस्तेमाल होता था और यदि ये हथकंडा भी कारगर नहीं होता था तो आखिरी उपाय के तौर पर बाहुबल का प्रयोग किया जाता था जो अंततः चुनाव में विजयश्री का सेहरा पहनाने में अहम भूमिका निबाहता था।
लेकिन 1980 के दशक से तमिलनाडु और आंध्र प्रदेश से लोकलुभावन वादों और मतदाताओं के सामने राज्य का खजाना खोल देने या यों कहें कि खजाना लुटाने का जो दौर शुरू हुआ, उसके चलते मुफ्तखोरी के चंगुल में मतदाता फंसते चले गये। इसका नतीजा यह हुआ कि चुनावों से मुद्दे गौण हो गये और मतदाता में नाकारेपन कहें या कुछ न करने की प्रवृत्ति घर करती चली गयी।
बीते साल वह चाहे महाराष्ट्र हो, झारखंड हो या उससे पहले हरियाणा के चुनाव हों या फिर मध्य प्रदेश के हों, उनमें सत्ताधारी दल ने सूबे के खजाने का दिल खोलकर इस्तेमाल किया और यह भी सच है कि मतदाताओं ने उसकी रेवडियों के भरोसे सत्ताधारी दल को भरपूर समर्थन देकर दोबारा सत्ता के सिंहासन पर बैठा दिया। हां उसके पहले कर्नाटक, तेलंगाना और राजस्थान इसके अपवाद रहे और वहां विपक्षी दल इस दौड़ में बाजी मार ले गये और वहां सत्ताधारी दल विपक्षी दलों की रेवडी़ की आंधी में धराशायी हो गये।
दरअसल आज से करीब चार-साढे़ चार दशक पूर्व तमिलनाडु से चुनाव में चावल, साड़ी, रेडियो, मोबाइल तो कभी जेवरात बांटे जाने का जो सिलसिला शुरू हुआ, वो अब साईकिल, लैपटॉप, स्कूटर से लेकर सस्ता गैस सिलेंडर, बिजली, पानी और महिलाओं को सम्मान राशि, मुफ्त बस यात्रा और मुहल्ला क्लीनिक तक जा पहुंचा है। लेकिन अब तो वह सीमा भी पार हो गयी है। दिल्ली के चुनाव में आम आदमी पार्टी बिजली, पानी, महिलाओं को मुफ्त बस यात्रा, मुफ्त तीर्थ यात्रा की सुविधा तो पहले से दे ही रही थी, लेकिन पिछले दो चुनाव में किये यमुना की सफाई, 24 घंटे पानी की आपूर्ति और यूरोपियन मानकों के तहत सड़कें न दे पाने के अपने वादे के लिए माफी मांग रही है और इस बार पूरा करने का आश्वासन दे रही है। इसके साथ ही उसने इस चुनाव में महिला सम्मान योजना के तहत महिलाओं को 2100 रुपये प्रतिमाह, किरायेदारों को भी मुफ्त बिजली-पानी, बुजुर्गों के लिए संजीवनी योजना के तहत इलाज का पूरा खर्च देने, आटो चालकों को 10 लाख का बीमा, निजी सुरक्षा गार्डों को वेतन, गलत बिल माफी योजना, छात्रों को बसों में मुफ्त सफर, मैट्रो में किराये में 50 फीसदी रियायत, आंबेडकर सम्मान छात्रवृत्ति योजना के तहत अनुसूचित जाति -जनजाति के छात्रों को विदेश में पढा़ई का खर्च देने, मंदिरों और गुरूद्वारों के पुजारियों-ग्रंथियों को 18,000 प्रतिमाह देने के साथ सफाई कर्मियों को आवास देने की घोषणा की है। बशर्ते केन्द्र जमीन दे।
अब तो इन मुफ्त की रेवडि़यों के साथ केजरीवाल के पूर्वांचली और पंजाबी अस्मिता के कार्ड के इस दांव ने भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) और कांग्रेस दोनों के सियासी गणित को हिलाकर रख दिया है। इसके बाद भाजपा ने भी महिलाओं को महिला समृद्धि योजना के तहत 2500 रुपये प्रतिमाह देने, 70 साल के बुजुर्गों को मुफ्त ओपीडी, डायग्नोस्टिक सेवाएं, 10 लाख का स्वास्थ्य कवर देने, 60 से 70 साल के बुजुर्गों को 2,500 पेंशन, 70 साल से अधिक आयु वाले दिव्यांगों, विधवा व असहाय को 3000 रुपये, गर्भवती महिला को पोषण किट के साथ 21 हजार की राशि, एलपीजी सिलेंडर पर 500 की सब्सिडी व होली-दिवाली पर एक मुफ्त सिलेंडर, आयुष्मान भारत योजना में 10 लाख का मुफ्त इलाज जिसमें 5 लाख राज्य देगा व अटल कैंटीन योजना के तहत झुग्गी बस्तियों में 5 रुपये में पौष्टिक भोजन देने और के जी से पी जी तक मुफ्त शिक्षा देने की घोषणा की है जबकि कांग्रेस शीला दीक्षित सरकार की तरह स्वच्छ प्रशासन, राजधानी का उसी तरह विकास व पहचान देने, प्यारी दीदी योजना के तहत महिलाओं को 2500 की राशि प्रतिमाह, 25 लाख तक का स्वास्थ्य बीमा, बेरोजगारों को युवा उड़ान योजना के तहत 8500 प्रतिमाह देने, मंहगाई से मुक्ति दिलाने हेतु 500 में सिलेंडर, हर महीने राशन किट जिसमें पांच किलो चावल, दो किलो चीनी, एक लीटर खाने का तेल, छह किलो दालें और 250 ग्राम चाय पत्ती व 300 यूनिट बिजली मुफ्त देने का वायदा कर रही है।
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चुनाव में राजनीतिक दलों द्वारा घोषित मुफ्त की रेवडि़यों को देखते हुए ऐसा लग रहा है जैसे चुनाव लडा़ नहीं जा रहा, बल्कि खरीदा जा रहा है। आम जनता को जो जीएसटी और सरकारों को दूसरे टैक्स देती है, मुफ्त की रेवडि़यों का लोभ दिया जा रहा है। जबकि अरबों की राशि की ये मुफ्त की योजनाएं राज्य ही नहीं, देश को खोखला कर रही हैं। सुप्रीम कोर्ट ने भी सवाल किया है कि आखिर कब तक मुफ्त की ये सुविधाएं दी जायेंगीं। क्यों नहीं हम क्षमता निर्माण और रोजगार के लिए काम करते। सुप्रीम कोर्ट ने यह टिप्पणी तब की जबकि उसे बताया गया कि कॉरोना काल से अब तक राष्ट्रीय खाद्य सुरक्षा अधिनियम 2013 के तहत 81 करोड़ लोगों को मुफ्त या रियायती दर पर राशन दिया जा रहा है। इस बार लगता था कि चुनाव यमुना की सफाई, पानी, सीवर,सड़कों पर गड्ढे, कूडा, रोजगार, भ्रष्टाचार और कानून -व्यवस्था और कूड़े के पहाड़ का निस्तारण के मुद्दे पर लडा जायेगा लेकिन जैसे-जैसे चुनाव नजदीक आता गया ये मुद्दे गौण हो गये और पूरा चुनाव मुफ्त की रेवडि़यों के इर्द-गिर्द सिमटकर रह गया। पानी के संकट का मुद्दा तो किनारे हो गया जबकि हकीकत यह है कि पानी की मांग और आपूर्ति में बड़ा अंतर है। ग्रामीण इलाकों की बात छोडि़ए लुटियन जोन भी पानी के संकट से अछूता नहीं है। दिल्ली के लोग दीवाली से पहले करीब चार-पांच महीने और करीब 20 दिन दशहरा से दिवाली बाद पानी के भीषण संकट से जूझते हैं। 1799 में से 160 से ज्यादा कालोनियां ऐसी हैं जहां आज भी पाइप से पानी की आपूर्ति नहीं है। दिल्ली में बढ़ रही आपराधिक घटनाओं के चलते कानून-व्यवस्था बड़ा मुद्दा बनकर उभरा है। भ्रष्टाचार को लेकर सत्ता में आयी आप पार्टी भ्रष्टाचार के गंभीर आरोपों से खुद आकंठ घिरी हुयी है। प्रदूषण चरम पर है जिससे आम आदमी का जीना दूभर हो गया है। सार्वजनिक परिवहन व्यवस्था के तौर पर बसों का नेटवर्क कमजोर है और युवा रोजगार को लेकर गुस्से में है। सीवर के ओवरफ्लो की समस्या है, सड़कें टूटी हैं और कूडा न उठने का मुद्दा आज भी पहले चुनाव की तरह ही ज़िंदा है। जमीनी मुद्दे पर तो सभी दल चुप हैं लेकिन भाजपा जहां दिल्ली की सूरत बदलने का श्रेय केन्द्र को देने के नाम पर भाजपा को जिताने की अपील कर रही है, वहीं कांग्रेस शीला दीक्षित सरकार के कार्य काल को इसका श्रेय दे रही है और आप के भ्रष्टाचार को खत्म करने के लिए कांग्रेस को जिताने की अपील कर रही है। और तो और वह केजरीवाल पर कांग्रेस शासन में जवाहर लाल शहरी नवीनीकरण मिशन के तहत बने 30,303 आवासों को गरीबों को आवंटित नहीं किए जाने का आरोप लगा केजरीवाल को गरीब विरोधी बता रही है। वहीं केजरीवाल दिल्ली की जनता से मुफ्त की योजनाओं को बचाने के लिए आप को वोट देने की अपील कर रहे हैं और भाजपा पर आरोप लगा रहे हैं कि यदि दिल्ली में भाजपा आ गयी तो झुग्गियों पर बुलडोजर चला देगी। वैसे हकीकत यह है कि नेताओं के वायदे कभी पूरे नहीं होते। हां जनता जरूर उनके झांसे में आकर वोट दे देती है और फिर पांच साल ठगी सी मुंह बाये देखते रहती है। केजरीवाल को ही देखिए। यमुना की सफाई के बाबत उन्होंने अपने शुरूआती चुनाव से पहले दिल्ली की जनता से कहा था कि-” मैं यमुना को साफ कर दूंगा और यमुना में खुद नहाउंगा। यदि यमुना साफ न हो तो मुझे वोट मत देना। ” आज यमुना दस साल पहले से ज्यादा बीस गुणा मैली है, रसायनों के झाग से वह बजबजा रही है। उसका जल आचमन की बात तो दीगर है, यदि उसमें डुबकी लगा दी तो जानलेवा बीमारियों के शिकार हो जायेंगे। लेकिन केजरीवाल फिर जनता के पास जाकर वोट मांग रहे हैं। इसे क्या कहेंगे। अब सवाल यह है कि क्या दिल्ली की जनता इन पर विश्वास करेगी?
मुफ्त की योजनाओं पर गौर करें तो पाते हैं कि इनको पूरा करने में ही राज्य का आधा बजट लग जायेगा। दिल्ली का कुल बजट लगभग 75 हजार करोड़ का है। जो भी दल सत्ता में आयेगा, उसे घोषित मुफ्त की योजनाओं हेतु 35 से 40 हजार करोड़ रुपये की जरूरत होगी। उस हालत में सड़क, अस्पताल, स्कूल, आईआईटी, आईआईएम, कालेज,स्टेडियम कैसे बनेंगे और रोजगार, उद्योग आदि विकास के शेष कार्य कैसे पूरे हो पायेंगे। इन रेवडि़यों से दिल्ली का विकास रुक जायेगा। इस दिशा में चुनाव आयोग की पहल सराहनीय थी। उसका प्रयास था कि वह दिल्ली की जनता को राज्य की वित्तीय स्थिति से रुबरु कराना चाहता था ताकि उसे यह मालूम हो सके कि राजनीतिक दल चुनाव में किए गये मुफ्त के वायदे कैसे पूरे कर पायेंगे। इस हेतु आयोग ने चुनाव आचार संहिता में इसे जोड़ने हेतु सुझाव मांगे थे लेकिन किसी भी दल ने इसमें रुचि नहीं दिखाई। इस संदर्भ में वित्तीय प्रभाव को लेकर जो खबर चिंतित करने वाली है, वह यह कि तेलंगाना में पहले टीआर एस और अब कांग्रेस की रेवडि़यों के चलते ही बैंकों का 20,800 करोड़ से अधिक का बकाया राज्य सरकार पर चढ़ गया है। इसका असर यह हो रहा है कि बैंकों के पास नकदी की कमी हो गयी है और बैंकों की बैलेंस शीट डगमगा रही है, साथ ही सबसे दुखदायी यह है कि राज्य के कई प्रोजेक्ट वित्तीय अभाव के कारण अधर में अटके पडे़ हैं। राज्य सरकार की बदहाली का आलम यह है कि वह लोन के भुगतान के रूप में सालाना 66,000 करोड़ रुपये दे रही है। यहां इस सच्चाई को झुठलाया नहीं जा सकता कि ऐसी घोषणाएं करना सत्ता पाने की ख़ातिर राजनैतिक दलों के लिए अब आम हो गया है जबकि उन्हें आर्थिक स्थिति,सीमित संसाधन,बजटीय आवंटन तथा करदाताओं की मेहनत की कमाई से दिये जाने वाले टैक्स को ध्यान में जरूर रखना चाहिए। ऐसी स्थिति में करदाता कह रहा है कि सरकार को कर हम देते हैं लेकिन वे हमारे कर में दिए पैसे को विकास में खर्च न कर ऐसे लोगों को जो कर नहीं देते हैं, उपर लुटा रही हैं। आखिर क्यों? ऐसी घोषणाएं राज्य के विकास में बाधाएं ही बनेंगी। इसलिए राजनैतिक दलों को तेलंगाना से सबक लेने की जरूरत है। अभी फिलहाल भले जनता को इन रेवडि़यों का अस्थायी लाभ मिल जाये, अंततोगत्वा इसका खामियाजा राज्य को और करदाताओं को ही उठाना पड़ेगा। इसमें दो राय नहीं।
*वरिष्ठ पत्रकार एवं पर्यावरणविद।