रविवारीय: थाना का क्या ठिकाना!
थाना का क्या ठिकाना! इसीलिए आवश्यकता है पुलिस थाना में संवेदनशीलता और बदलाव की! इस सन्दर्भ में हाल ही में आगरा के पुलिस आयुक्त ने एक महत्वपूर्ण कदम उठाया। उन्होंने अपने पुलिसकर्मियों, विशेषकर थानेदारों को निर्देश दिए कि वे थाने पर आने वाले हर व्यक्ति के साथ विनम्रता और संवेदनशीलता से पेश आएं। उन्होंने कहा, “थाने पर आने वाले किसी भी व्यक्ति को आपके व्यवहार से चोट नहीं पहुंचनी चाहिए। आपका व्यवहार संयमित, संतुलित, संवेदनशील और शालीन होना चाहिए।” थाने में कॉल करने वाले व्यक्तियों से फोन पर नमस्ते कहकर बात शुरू करने की भी सलाह दी गई।
यह पहल बेहद सराहनीय है, क्योंकि भारतीय पुलिस के व्यवहार को लेकर समाज में एक नकारात्मक धारणा बनी हुई है। आम आदमी थाने पर आने से संकोच करता है।यह सच है कि अपराधियों के साथ कठोरता जरूरी है, लेकिन आम आदमी के साथ संवेदनशीलता और सहानुभूति भी उतनी ही जरूरी है।
इसी बाबत मैं अपना ही एक अनुभव साझा करता हूँ जो सुदूर ऑस्ट्रेलिया के पर्थ शहर का है। यह घटना जुलाई 2024 की है जब मैं अपने परिवार के साथ पर्थ शहर से लगभग 300 किलोमीटर दूर एक खूबसूरत समुद्री इलाके में घूमने गया था। लाइटहाउस देखने के दौरान हमारी गाड़ी के ड्राइवर साइड का शीशा टूट चुका था, और बच्चों के कुछ ज़रूरी कागजात, उनके पहचान पत्र व अन्य जरूरी सामान एक बैग में रखा था जो चोरी हो गया था। यह हमारे लिए बड़ा झटका था। कुछ समझ नहीं आ रहा था, क्या करें! आसपास क्लोज सर्किट टीवी कैमरा भी नहीं था जिसने इस चोरी को रिकॉर्ड किया हो।
हमने तुरंत पुलिस को फोन किया, और उनकी प्रतिक्रिया ने हमें चौंका दिया। उन्होंने न केवल हमारी समस्या को गंभीरता से सुना, बल्कि फोन पर ही प्राथमिकी दर्ज की और एक घंटे के भीतर केस का विवरण मेल कर दिया। हमसे कहा गया कि आप अगर जरूरी समझें तो पर्थ पहुंच कर किसी भी स्थानीय थाने से संपर्क करें। वैसे इसकी ज़रूरत नहीं है।पर, हमारा मन नहीं माना। हमें तो अपने यहां के थाने का हाल मालूम था, जहां अगर आपने दो चार बार जाकर निवेदन नहीं किया तो फिर भगवान ही मालिक।
अगले दिन जब हम थाने पहुंचे, तो वहां का माहौल देखकर सुखद आश्चर्य हुआ। ऑस्ट्रेलिया के थाने में न तो भारी-भरकम मूंछों वाले हथियारबंद पुलिसकर्मी थे, न ही जब्त गाड़ियों की कतार। वहां एक बड़े से हॉल में कुछ काउंटर बने थे, जहां वालंटियर्स आपकी समस्या सुनने और समाधान करने के लिए मौजूद थे। अगर किसी अधिकारी से मिलना हो, तो समय लेकर मिल सकते थे।हमारी समस्या का समाधान काउंटर पर ही हो गया। हमें कहीं और जाने की जरूरत ही नहीं पड़ी।
यह अनुभव भारत के थानों से बिल्कुल अलग था, जहां थाने में जाते ही डर और असहजता का माहौल होता है। अपराधियों पर डंडे बरसते देखना, पुलिसवालों के श्री मुख से तमाम तरह के विशेषणों की बौछार, आम आदमी के सामने उनका अपमानजनक व्यवहार, और हर तरफ तनाव का माहौल एक आम दृश्य है। ये तमाम बातें आपको असहज करने के लिए काफी हैं। यह सब देखकर आम आदमी बस अपनी इज़्ज़त की खैर मनाता है। इसके सिवा उसके पास होता ही क्या है?
पर थाना का क्या ठिकाना? थानेदार या फिर कांस्टेबल के सामने वह बेचारा अपनी इज़्ज़त ही बचाने के लिए प्रयासरत मानों शिकायतकर्त्ता ने ही कोई जुर्म किया हो।
थाना, मेरे व्यक्तिगत विचार से, न्याय की पहली उम्मीद होती है, जो आमतौर पर लोगों के लिए डर और असहजता का प्रतीक बन गया है। अपराधियों से निपटते-निपटते, पुलिसकर्मी अक्सर इस पतली रेखा को लांघ जाते हैं, जो अपराधियों और आम जनता के प्रति व्यवहार में फर्क करती है।
थाने में आने वाला व्यक्ति पहले ही किसी समस्या से जूझ रहा होता है। अगर पुलिसकर्मी उससे संवेदनशीलता और मानवता के साथ पेश आएं, तो उसका आधा तनाव वहीं खत्म हो सकता है। आगरा पुलिस आयुक्त का यह कदम इस दिशा में एक नई शुरुआत है। पुलिस का काम अपराधियों से सख्ती से निपटना है, लेकिन आम आदमी के साथ मानवीय और संवेदनशील व्यवहार करना भी उतना ही जरूरी है। थाने को डर का नहीं, बल्कि विश्वास और सुरक्षा का प्रतीक बनाना होगा।
आखिरकार, हमें और क्या चाहिए? बस इतना कि हमारी बात सुनी जाए और हमें यह महसूस कराया जाए कि हमारा यहां आना सार्थक था। यह पहल अगर हर थाना और हर पुलिस अधिकारी अपनाए, तो समाज में पुलिस के प्रति सम्मान और विश्वास बढ़ेगा।
अंततः, आगरा के पुलिस आयुक्त द्वारा बदलाव की यह पहल सराहनीय है, लेकिन इसे धरातल पर लागू करना और निरंतरता बनाए रखना सबसे जरूरी है।