पुस्तक समीक्षा: मेरे आसान झूठ
कविता संकलन
कवि: द्वारिका उनियाल
प्रकाशक: प्रभात प्रकाशन, नयी दिल्ली
मूल्य: रु 300
पृष्ठ: 208
द्वारिका उनियाल रचित मेरे आसान झूठ, दरअसल एक कविता संकलन से कहीं अधिक एक जीवंत अनुभूति है। एक सौ चौदह रचनाओं के इस पुलिंदे में शायद हर भारतीय की आत्मा बसी है, अंतर्मन बसा है। ये कवितायें सिर्फ़ एक कवि के अनुभव नहीं होकर इस देश के प्रत्येक नागरिक के जीवन की घटनाएं, अनुभव, भावनाएं, विचार, और दृष्टिकोण समेटे हुए हैं। जीवन की बुनियादी बातों को जोड़ते हुए इन कविताओं को पढ़ते समय हर किसी को लगेगा कि शायद ये सब कुछ तो उसके साथ भी हो चुका है।
मेरे आसान झूठ सिर्फ कविताओं का संकलन नहीं, अपितु भावों का एक पुलिंदा है, जिसे पिछले कुछ वर्षों में तिनके-तिनके की तरह जोड़ा है। इसमें वे कविताएँ हैं, जो उन्होंने 2018 से 2023 तक लिखी-कभी सेमिनार हॉल में, कभी फ्लाइट में, कभी रात को अचानक जागकर, कभी फुर्सत के क्षणों में, कभी चाय की चुस्कियों के साथ। ये उनकी जिंदगी के वे लम्हे हैं, जिन्हें कागज पर उकेर कर उन्होंने आज़ाद कर दिया है।
प्रो. द्वारिका उनियाल पेशे से अध्यापक हैं और दिल से कवि। कुछ कविताएँ हैं, जो जूझती हैं कवि के अस्तित्व की जद्दोजहद से, जिनमें शामिल हैं – ‘खो गया हूँ’, ‘काली मिर्च’, ‘उलटे पैर’, ‘मेरे आसान झूठ’, ‘कौन हूँ, मौन हूँ’ आदि। वहीं आत्मचिंतन से भरी कुछ कविताएँ हैं, जैसे ‘मैं कहानियाँ क्यों नहीं लिखता’, ‘आधा-अधूरा’, ‘सलाखों की परछाइयाँ’ इत्यादि। कुछ कविताएँ आज के भौतिक, सामाजिक और राजनीतिक परिदृश्य के प्रति उनकी प्रतिक्रियाएँ हैं, जैसे ‘बँधा हुआ शहर’, ‘दुआओं को वीज़ा’, ‘भेड़िए’, ‘आज कोई नहीं मरा’ आदि।
प्यार और इश्क की कुछ नज्में, कुछ रोज की आपा- धापी से उपजी हुई स्वयं की कहानियाँ और कुछ कविताएँ रूहानी भी हैं।
‘मोह का बुलबुला’ – जीवन की सच्चाई को दिखाती है। इंसान कितना भी ऊँचा उड़ ले, परन्तु मंजिल तो एक वही है। वहीँ पर ‘अम्मा का पल्लू’ – हर एक को अपनी माँ की याद दिला देती है। ‘बंधा हुआ शहर’ – सिर्फ़ दिल्ली नहीं है, आज तो क्या दिल्ली, क्या मुंबई… जयपुर, जौनपुर, और जमशेदपुर भी कुछ उसी राह पर चल पड़े हैं।
‘अप्रवासी’ – अपना शहर छोड़ नयी जगह जाने वले की कहानी क्या खूब बयां करती है। और हेलीकाप्टर से ज़मीन का क्या कहना – ज़मीं पर रह कर ही गुलमोहर के चटकपन का मज़ा लिया जा सकता है। दरवाज़ों पर वार्निश – रिश्तों कि कहानी कहती है, सन्नाटे की भी आवाज़ होती है, रिश्तों में, और जब वादे ही बर्फानी हो जाए तो शायद दीवाली पर उम्मीद जगती है। पंखे, घड़ी, फ्रिज, और तवा भी रिश्तों कि कहानियाँ कह देते हैं।
‘जहां कर्ज़दार है देश तेरा’ – जहाँ वर्दी वालों को समर्पित है, पढने वाले को झकझोर देती है, वहीँ पर ‘उदास आँखें’ और ‘खामोशियाँ’ – अपने अंतर्मन की गहराईयों में डुबकी लगाने को मज़बूर कर देती हैं। ‘लुढ़कती ज़िन्दगी’ – वो हक़ीकत बयान करती है जिसे जानते तो हम सभी हैं, परन्तु शायद उसके बारे में कभी बात नहीं करते। ‘काली नदी’ – शहरीकरण और औद्योगीकरण का काला सच हमारे सामने रखती है, और ‘जिंदा हूँ’ – इंसानी रिश्ता कितना मज़बूत हो सकता है, बस एक सूट के माध्यम से बता जाती है।
‘ये बोनसाई सा शहर’ – महानगरों कि ज़िन्दगी के पहलुओं को कह जाती है बड़े सलीके से और एहसास कराती है कि अब छोटे शहर भी बदे हो रहे हैं। ‘बंजारा’, ‘चंद सिक्के’, ‘झुर्रियां’, ‘पुराना रिश्ता’, ‘शहर’, और ऐसी ही अनगिनत रचनाएँ पाठक को उसके अतीत से बांधे रखती है। पठन, चिंतन, मनन, और अभिव्यक्ति सभी का विशिष्ट मिश्रण है, मेरे आसान झूठ।
कुल मिलाकर यह प्रो. द्वारिका उनियाल की जिंदगी है, उनके खयाल, उनकी सोच और उनकी ज़िद के कुछ पन्ने। ये पाठक के नाम उनके कुछ खत हैं, जिनके लिफाफों को बंद नहीं किया है उन्होंने।
ज़िन्दगी के हर एक पहलू को अपने में समेटे, भिन्न भिन्न दृष्टिकोण रूपी मोतियों को पिरो कर यह कविता संकलन अपने आप में एक अनूठा प्रयास है। द्वारिका उनियाल के लिये शायद ये सभी कुछ आसान झूठ हो सकते हैं, परन्तु मेरे लिये तो ये सारे आसान सच हैं, जिन्हें देखने कि अब सभी को ज़रूरत भी है।
कवि के बारे में…
प्रो. द्वारिका उनियाल का जन्म उत्तराखंड में हुआ और परवरिश राजस्थान में। उनकी प्रारंभिक शिक्षा उदयपुर में हुई और बाद में उन्होंने गुजरात से प्रबंधन में पी.एच.डी. की; पिछले पच्चीस वर्षों से अध्यापन कर रहे हैं। देश-विदेश के प्रबंधन के प्रसिद्ध महाविद्यालयों में पढ़ाया और डीन भी रहे। फिलहाल बेंगलुरु के राष्ट्रीय विद्यालय (आर.वी.) विश्वविद्यालय में प्रो. वाइस चांसलर के पद पर कार्यरत हैं।
द्वारिका ने नौ वर्ष की आयु से कविताएँ लिखना शुरू किया; पिछले कुछ सालों में कवि-सम्मेलनों एवं रेडियो पर कविताओं का पाठ भी किया। उनकी रचनाएँ प्रसिद्ध हिंदी पत्र-पत्रिकाओं में छपती रही हैं। 2022 में उनका पहला कविता संकलन ‘उम्मीदों के पंख’ प्रकाशित हुआ, जो जयपुर साहित्य संगीति द्वारा ‘जयपुर विशिष्ट श्रेष्ठ कृति सम्मान अलंकरण’ के लिए चुना गया।
उनकी रुचि अभिनय व पॉडकास्टिंग में भी है; गत वर्ष उनकी पहली शॉर्ट फिल्म लिफाफे सिंगापुर में प्रदर्शित हुई। एक डॉक्यूमेंट्री पर काम कर रहे हैं। कोलकाता के साहित्यिक संगठन नीलांबर से भी जुड़े हैं।
*प्रवीण नागदा, कल्चर सिनेमा एवं किड्ज सिनेमा फ़िल्म महोत्सव के संस्थापक निदेशक हैं। वह पिछले तीन दशकों से पब्लिक रिलेशन्स एवं कॉर्पोरेट कम्युनिकेशन्स के क्षेत्र में कार्यरत हैं, और इसी विषय पर उनकी एक पुस्तक भी 6 अंतरराष्ट्रीय भाषाओं में प्रकाशित हो चुकी हैं।