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रविवार पर विशेष
रमेश चंद शर्मा*
हमारे पिताजी को भी घर में ऐसे सामान रखने का शौक था जो सार्वजनिक रूप में काम आ सके। इन सामानों में सबसे उपयोगी एवं रोशनी फैलाने वाला पैट्रोमैक्स, गैस लालटेन थी जो घासलेट, मिट्टी के तेल से जलती थी। यह जर्मनी की बनी बताई जाती थी। इसे अध्धा कहते थे, क्योंकि यह कद-काठी में और गैस लालटेनों से आधी थी। इसमें तेल की खपत बहुत ही कम होती थी, जिससे खर्च भी बचता था, और रोशनी भी बहुत अच्छी, ज्यादा होती। दो बड़ी गैस लालटेनों के स्थान पर यह अकेली ही काम करती थी। आस-पड़ोस में ही नहीं बल्कि दूर दूर तक इसकी आवश्यकता महसूस की जाती। इसमें मैंटल लगता था, जो रेशम की जाली जैसा लगता था। इसे गैस के ऊपरी हिस्से में एक निश्चित जाली पर बांधा जाता था जिसमें तेल एक नलकी से होते हुए नोज़ल से ऊपर की ओर बने अंग्रेजी के यूं के आकार से होते हुए जाली के मार्फत गैस के प्रकार में मैंटल तक जाता और रोशनी होती। बीच-बीच में इसकी तेल की टैंकी में लगे पाईप के माध्यम से हवा भरी जाती। एक नोब भी होती थी जिसके प्रयोग से मैंटल को चमकाने का काम किया जाता था। जलने के बाद जब यह मैंटल झड़ जाता तो कुछ बच्चें इसे लेने, खाने के लिए लपकते। कहा जाता था कि यह खांसी की दवा है।
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इसके साथ-साथ दूसरी धमाकेदार चीज थी। चीनी मिट्टी के बने चाय पीने के कप प्लेट। उस समय गांव ग्वाड़ में चाय साधारण चीज नहीं बनी थी। चाय एक विशेष, कभी कभी बनने वाला असाधारण ही पेय माना जाता था। ब्याह शादी, बड़े कार्यक्रमों के समय ही चाय बनने लगी थी। ऐसे मौकों पर हमारे यहां से कप प्लेट ले जाए जाते। जब किसी किसी के यहां विशेष मेहमान आते तब भी कप प्लेट ले जाए जाते। हमारे यहां सौ जोड़ी कप प्लेट थे, जिनको संभालकर रखा जाता था। ले जाने की मात्रा एक ही शर्त्त थी कि इन्हें साफ सुथरे, धो धाकर सुरक्षित वापिस पहुंचा दिया जाए। फिर भी कुछ संख्या तो कम होती जाती थी। इनके साथ साथ में बिछायत के लिए हमारे यहां दरियां भी थी। इनमें गर्म दरी, ऊन से बनी दरी विशेष तौर पर याद आती है लंबी चौड़ी मगर सूती दरियों से यह एकदम भिन्न। याद आता है कि यह ऊंटों के बाल से बनाई गई थी। सर्दी के मौसम में इसकी चाहत बढ़ जाती। विशेषकर सोने, शयन के स्थान पर।
घरों में तो हारी बीमारी में ही दवा के रूप में ही इसका प्रयोग किया जाता था। चायपत्ती भी गांव के गिने-चुने घरों में ही उपलब्ध होती थी। आवश्यकता पड़ने पर जिनके पास होती उनसे आपस में मांग कर काम चलता। अन्यथा नारनौल शहर के बाजार से ही मंगवाना पड़ती।
गांव में तब तक लफंगे रुपए और बाजार को मान्यता नहीं मिली थी। बाजार और पैसे से गांव बड़ी मात्रा में अछूता था, बचा हुआ था। माया महाठगिनी हम जानी, गांव से दूर थी मगर उसका प्रवेश गांव में हो गया था।
शादी का दिन आने पर घर घर से दूध इकठ्ठा होता। पास वाले, मौहल्ले वाले, मित्र तो स्वयं ही लेकर आ जाते। कईयों के यहां से जाकर दूध लाना पड़ता।गांव बस्ती का परस्परावलंबन साफ दिखाई देता। एक दूसरे का साथ, सहयोग, सहकार उपलब्ध रहता। लोग स्वयं आगे बढ़कर काम पूछते। मौके पर उपस्थित रहते।
*लेखक प्रख्यात गाँधी साधक हैं।
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