रविवारीय: कार्यालय पहुँचने की जल्दी!
अभी अभी तो सुबह हुई है और समय भी ज्यादा कहाँ हुआ है पर, सभी को कार्यालय समय पर पहुंचने की जल्दी है। सड़कों पर चिल्लपों मची हुई है। सभी भागते हुए नजर आ रहे हैं। क्या बाइक और मोटर, सभी जल्दी में हैं। कार वाले भी उसी भीड़ का हिस्सा बने हुए हैं। कुछ चारपहिया वाहनों को छोड़कर जिन्हें एस्कोर्ट कराया जाता है। उन्हें भी दफ्तर समय पर पहुंचना है पर, अति विशिष्टता भी कहां अपना दामन छोड़ती है? सभी को मालूम है यह अति विशिष्टता हमेशा के लिए नहीं है पर, मन तो खैर मन ही है!
सभी अपने अपने स्तर पर अपने अपने तरीके से कार्यालय जल्दी पहुंचना चाहते हैं। एक होड़ सी मची है। सार्वजनिक वाहनों पर सवार व्यक्ति हालांकि प्रत्यक्ष तौर पर सड़क जाम का हिस्सा नहीं बनता है पर, सड़क जाम का असर उसपर भी पड़ता है। ड्राइवर को- अरे भाई जरा तेज चलाओ। कहां धीरे धीरे चला रहे हो! पर, बेचारा ड्राइवर उसके लिए तो यह रोज की बात है। वो सबकी सुनते हुए अपने ही अंदाज में गाड़ी चला रहा होता है। सभी समझ रहे होते हैं पर, दिल को तसल्ली और धैर्य कहाँ? आपाधापी मची हुई है।
सभी एक दूसरे से आगे निकलने की होड़ में लगे हैं। धैर्य और संयम शब्द तो उनके शब्दकोष में है ही नहीं। आगे गाडियां का लंबा रेला दिख रहा है। पीछे से गाड़ियों के प्रेशर हॉर्न का कानफाड़ू शोर। कुछ सोचने और समझने की स्थिति नहीं होती है।
सभी ने अपने अपने गाड़ियों में प्रेशर हॉर्न लगा रखा है।
अरे भाई आगे जगह ख़ाली हो तो गाड़ी बढ़ाई जाए। कहां जाएं? क्या उड़ कर आगे चले जाएं? किसी को तनिक भी धैर्य नहीं। कोई भी रूकना नहीं चाहता है। रोज की बातें हैं। भाई अभी हमने इतनी तरक्की नहीं की है कि उड़ कर चले जाएं।
विकसित देशों में आपको गाड़ियों का हॉर्न सुनाई नहीं देता है। अगर किसी ने गलती से भी हॉर्न बजा दिया तो इसका मतलब यह निकाला जाता है कि वो किसी मुसीबत में हैं। आने जाने वाली गाड़ियां रूक जाती हैं। लोगबाग पूछने लगते हैं, क्या हुआ?
मेरा व्यक्तिगत अनुभव है। शहर में इतनी शांति होती है कि हमारे जैसे व्यक्ति सोच में पड़ जाता है आखिर बात क्या है? शहर में इतनी शांति क्यों है भाई? ऐसा लगता है कि वहां की गाड़ियों में हार्न होता ही नहीं है। उसे तो शायद फैक्ट्री में ही निकाल लिया जाता हो।
पर, हमारे यहां तो बात ही कुछ और है। हमें तो पता ही नहीं चलता है कि आसपास स्कूल है या फिर अस्पताल। हमें तो बस हॉर्न बजाने से मतलब है। हमें मालूम भी नहीं है कि 60 डेसीबल के शोर के बीच रहने से हम अस्थाई बहरेपन का शिकार हो सकते हैं। 100 डेसीबल के शोर के बीच रहने से हम पूर्ण रूप से बहरे हो सकते हैं। हम तो बिल्कुल ही नादान और अंजान हैं।
हमें इतने भोले हैं कि हमें कहां मालूम है कि अस्पताल के मरीजों पर इस तरह के शोर का क्या असर पड़ता है।
ऐसा नहीं है कि विकसित देशों में कानून है और हमारे यहां नहीं है। कानून हमारे यहां भी है। पर, जानता कौन है। उन बेचारों को तो पता भी नहीं कि वो क्या कर रहे हैं। शादियों में जब तक बारात के साथ बड़े बड़े स्पीकर लगे म्यूजिक सिस्टम के साथ अगर आर्केस्ट्रा नहीं बजा तो फिर बारात में शामिल लोग डांस कैसे करेंगे? अगर डांस नहीं हुआ तो बारात कैसे दरवाजे पर आएगी? भले ही उस कानफाड़ू शोर से किसी के घर का शीशा टूटता है तो टूट जाए। क्या फर्क पड़ता है? मंगरू के जीवन की हृदय गति रुक जाए। रूक जाए तो रूक जाए अपनी बला से। क्या फर्क पड़ता है, अगर मंगरू के बच्चे अनाथ हो गए, पत्नी विधवा हो गई। सब प्रारब्ध है। अपने पूर्व जन्म के कर्मों का फल है। हम बड़ी जल्दी ही अपने दिल को समझा लेते हैं।
कुछ नहीं हो सकता है?
सोचिए, जरूर सोचिए। आखिर सोचने की ही तो बात है। हम कितने नादान है। हम जानते भी नहीं है कि हम क्या कर रहे हैं। नई गाड़ी हम खरीदते हैं और सबसे पहले जितनी बड़ी गाड़ी उतना ही जोरदार आवाज वाला प्रेशर हॉर्न लगवाते हैं। क्या कर रहे हो भाई?
बांग्लादेश की राजधानी ढाका में भी ट्रेफिक का कुछ ऐसा ही हाल है। पर, अब वहां लोगों के बीच जागरूकता आने लगी है। सुबह के दस बजते ही पुरा का पुरा ढाका एक मिनट के लिए साइलेंट मोड में चला जाता है। किसी भी प्रकार की कोई आवाज नहीं। ना मस्जिद से अजान की आवाज आती और ना ही मंदिर की घंटियां बजती है। हालांकि, एक मिनट से क्या होने वाला है। पर, लोगों को जागरूक करने के लिए इस तरह की मुहिम का होना बहुत जरूरी है। कुछ पल के लिए ही सही लोगों ने एक पहल तो किया। अच्छे काम के लिए बढ़ाया गया एक क़दम आगे चलकर एक पूरे काफिले का शक्ल अख्तियार कर लेता है। कौन कहता है आसमां में सुराख नहीं होता! हौसले से एक पत्थर तो उछालो यारों!
इस भागम भाग से भरे जिंदगी का बिलकुल सही चित्रण । जियो तो बिंदास जियो ।