रविवारीय: हैसियत
अब शादियों में या फिर इसी तरह के पारिवारिक आयोजनों में लोग-बाग एक दूसरे का परिचय हैसियत के अनुसार करवाने लगे हैं। सम्मान भी कहीं न कहीं हैसियत को तवज्जो दे रहा है। पारिवारिक आयोजनों या समारोह को लोग अपनी प्रतिष्ठा से जोड़ कर देखने लगे हैं। रिश्तों की गहराई, गर्माहट और अहमियत खत्म हो रही है। इनका स्थान हैसियत ने ले लिया है। हर मामले में हम आंखें मूंदकर बाज़ारवाद की ओर बढ़ रहे हैं।
जब हम और आप संयुक्त परिवार में रहते थे, तो एक लिहाज था रिश्तों के प्रति। रिश्तेदारों की आर्थिक स्थिति, उनकी संपन्नता और उनका रूतबे को कोई खास तवज्जो नहीं दी जाती थी। शादियों में दरवाजे पर बारातियों के आने पर दोनों पक्षों के रिश्तेदारों का एक दूसरे से परिचय कराया जाता था। वहां हैसियत और रूतबा नहीं, बल्कि संबंधों की हायरार्की देखी जाती थी। इस तरह के पारिवारिक आयोजनों में सगे संबंधियों और एक दूसरे से मिलने-जुलने का मजा ही कुछ और होता था। रिश्तों में गहराई का पता चलता था। परस्पर रिश्ते विकसित भी होते थे। कोई कहां सो रहा, कहां और क्या खा रहा है। बच्चे किसके साथ खेल रहे हैं। इन सभी बातों से परे दुनिया हुआ करती थी। सब कुछ भुला कर खुशियां मनाने का वक्त हुआ करता था। एक उत्सव जैसा माहौल हुआ करता था। सबके चले जाने के बाद अपना घर बड़ा ही बेगाना सा लगता था। ऐसा लगता था कि इस घर में कोई रहता ही नहीं है।
वह एक ऐसा समय था जब शादी समारोह या अन्य किसी भी पारिवारिक समारोहों में आमंत्रित लोगों का आना, समारोह में परिवार समेत शिरकत करना, एक दूसरे से मिलने-जुलने की एक स्वाभाविक प्रक्रिया होती थी। एक दूसरे से मिलने जुलने से संबंधों में एक गहराई तो आती ही थी साथ ही साथ रिश्तों में आत्मीयता भी बढ़ती थी। ये जो शादी समारोह और इस तरह के पारिवारिक आयोजन होते थे यह आपको एक मौका देता था दूर-दराज से आए सगे संबंधियों से मिलने का। वरना काम-धंधे की तलाश में अपनी अपनी जगहों से, अपनी जड़ों से एक बार हट जाने के बाद फिर कहां मौका मिलता है भला? घर-गृहस्थी की उलझनें, बच्चों की परवरिश, उनकी पढ़ाई, उनके स्कूल की छुट्टियां और परदेश में तमाम तरह की मुश्किलें, सब मिलकर एक ऐसा माहौल बनाती हैं जो आपको बिलकुल भी दम लेने नहीं देती हैं।
संयुक्त परिवार तो कब का टूट चुका पर पारिवारिक दायित्वों और उसके दवाब से उत्पन्न तनावों को दूर करने में संयुक्त परिवार एक शॉक आब्जर्वर की भूमिका निभाता था। सभी लोग मिलकर एक दूसरे का दुःख तकलीफ, बांट लिया करते थे। तमाम मुश्किलों के बावजूद संयुक्त परिवार में रिश्तों की डोर हमेशा मजबूत हुआ करती थीं। बड़े से बड़े तूफान को सभी मिल जुलकर झेल लेते थे।
पर, अब तो काफी बदलाव आ गया है। एक तो पारिवारिक आयोजनों में लोगों का आना-जाना कम हो गया है। कुछ व्यावहारिक वजहें भी हैं। बहुत हुआ और अगर किसी करीबी की शादी है या कोई पारिवारिक आयोजन जहां आपकी उपस्थिति अनिवार्य है वरना समाज से, परिवार से बाहर होने का खतरा हो वैसी परिस्थिति में परिवार का कोई एक व्यक्ति एक अच्छे से बहाने के साथ महज़ खानापूर्ति के लिए उपस्थित हो जाता है। अब लोग-बाग अपनी अपनी सुविधा और अहमियत के अनुसार एक दूसरे के यहां जाते हैं।
वो मजा और वो उत्साह अब बीते दिनों की बातें हो गई हैं। रिश्तों पर भी असर पड़ा है। रिश्तों की गहराई और गर्माहट कम सी हो गई है। सोशल मीडिया ने कहने को तो दुनिया बड़ी ही छोटी कर दी है। दुनिया आपकी मुट्ठी में समा गई है। पर, साथ ही साथ यह दुनिया सच्चाई से काफी दूर, एक आभासी दुनिया हो गई है। रिश्तों में वो गहराई, वो गर्माहट, वो भरोसा कहीं दूर जा चुका है। हम कुछ ज्यादा ही व्यावहारिक हो चले हैं। संवेदनाएं हमसे कहीं दूर जा चुकी है।
वक्त तो ऐसा लगता है मानो पंख लगाकर उड़ रहा हो। जब इस भाग दौड़ भरी जिंदगी से थोड़ी मोहलत पाते हैं, बहुत कुछ छूट चुका होता है। बच्चे अपनी अपनी जगह पकड़ लेते हैं। हम जीवन की दूसरी अवस्था से अब तीसरी अवस्था में आने को होते हैं। ऐसा लगता है मानो हम जहां से चले थे वहीं पहुंच गए पर, बहुत कुछ छोड़कर।
समय के साथ-साथ बदलावों के बीच संयुक्त परिवार का बिखरना और एकल परिवार का आना शुरुआत में तो ठीक लगा, पर आज संयुक्त परिवार की कमी बड़ी शिद्दत से महसूस हो रही है। बालू की भीत की तरह वक्त आपके हाथों से निकलता जा रहा है और हम बस उसे निकलते हुए देख भर पा रहे हैं। कर कुछ नहीं सकते हैं। कहां से चले थे और कहां पहुंच गए।आज नहीं तो कल इसका खामियाजा हमें ही भुगतना है।
अब तो खैर! जब बातें रिश्ते नातों, संयुक्त परिवार और शादी ब्याह की हो रही हों तो कभी कभी हम फ़्लैश बैक में चले जाते हैं। मन को थोड़ा सुकून मिलता है बस।
Amazing
आज के सामाजिक जीवन की एक क्रूर सच्चाई