रविवारीय: कोरोना और जीवन- दर्शन
– मनीश वर्मा ‘मनु’
जिस तरह से कोरोना ने हमें झकझोरा था हम आज़ भी याद कर सिहर उठते हैं। ऐसा नहीं है कि हमने कोरोना को पिंजरे में डालकर क़ैद कर दिया है। हां हमने इसे थोड़ा पालतू जरूर बना दिया है। अब यह अभयारण्य में रहने वाला टाईगर हो गया है। पर, आप और हम सचेत रहें। टाईगर अभी जिंदा है। ऐसा नहीं कि अभयारण्य में रहने की वज़ह से उसकी मारक क्षमता में कमी आ गई है।
आज आपको जीवन के कुछ संजीदा पहलुओं से रू-ब-रू कराने की कोशिश है, जहां अमूमन लोगों का ध्यान नहीं जाता है। लोग उस राह से गुजरते जरूर है। उनका सामना भी होता है, पर किसी कारणवश उनकी दृष्टि वहां नहीं टिकती है।
कोविड-19 कहने को तो बात 2019 की है पर प्रत्यक्ष रूप से इसका प्रकोप 2020 में दिखाई दिया। उस वक्त शायद किसी ने भी इस की विभीषिका और भयावहता को उस स्तर पर अहसास नहीं किया जितनी 2021 में कोविड-19 की दूसरी लहर ने अपनी विभीषिका और भयावहता का अहसास कराया। कोई मुरव्वत नहीं ।किसी को भी नहीं छोड़ा इसने।
पहली लहर में तो इसने बीमार व्यक्ति या फिर एक तय उम्र सीमा पार कर गए लोगों को अपना शिकार बनाया। जिस किसी परिवार ने अपनों को खोया बस बात वहीं तक सीमित रही। उस वक्त उसकी तपिश उतनी नहीं महसूस की गई थी। पर, इस दूसरी लहर ने तो वाकई कहर बरपा दिया। शायद ही कोई घर छूटा हो। शायद ही कोई ऐसा व्यक्ति हो जिसने किसी अपनों को नहीं खोया हो । सारे अनुमान, सारे मिथक, सारे आयाम किसी काम ना आए। प्रयोगों का दौर जारी था। चले गए तो खैर कहानी ही ख़त्म और किसी तरह बच गए तो बस सिर्फ और सिर्फ भगवान।
मेरा तो मानना है जो लोग पूरे के पूरे नास्तिक थे, जो भगवान के अस्तित्व पर तार्किक होकर बहस करते थे, उन्होंने भी अपने आप को भगवान की शरण में छोड़ दिया था। वैसे, ऐसा नहीं है कि इसका प्रकोप खत्म हो गया है। पर, एक बात तो माननी होगी इसने जीवन जीने का नज़रिया ही बदल दिया है। आपके जीवन- दर्शन को इसने एक नया आयाम दिया है। एक नई परिभाषा गढ़ी है।
कोविड-19 की भयावहता का अहसास आप इसी बात से लगा सकते हैं कि जिस शहर में आपका जन्म हुआ, आप पले बढ़े, आपका स्कूल और कॉलेज जाना हुआ, वह शहर अब कुछ बेगाना सा दिखता है। एक अजीब सी उदासी ने शहर में अपना घर बना लिया है।फिजां कुछ बदली बदली सी नज़र आ रही है। हमेशा एक कमी का अहसास होता है। जो खलती भी है।
हर तरफ एक खौफ, एक घबराहट सा माहौल है। अच्छी फीलिंग नहीं हो रही है। मन हमेशा एक अजीब सी आशंका से ग्रसित रहने लगा है। जिस शहर में पढ़ाई के बाद आप नौकरी कर रहे हैं। नौकरी करते हुए लगभग 25 साल हो गए उस शहर में आपको सोचना पड़ रहा है कि किनके साथ समय बिताया जाए, आज की शाम कहां व्यतीत की जाए। आज शाम की चाय या कॉफी का दौर किनके साथ हो। एक अजीब सी समस्या आ खड़ी हुई है।
कोरोना ने शायद ही कोई घर ऐसा छोड़ा हो, जहां लोगों ने किसी अपने को नहीं खोया है। हर व्यक्ति, हर परिवार हलकान है इस विभीषिका से सब कोई डरा और सहमा सा है।
दोस्त, मुहिम, आपके साथ पढ़ने वाले, आपके साथ खेलने वाले, अपने काम धंधे और नौकरी की तलाश में पहले ही आपके शहर से दूर जा चुके थे। कुछ के बच्चे अगर शहर से बाहर पढ़ रहे हैं तो वह भी अपने सुविधानुसार बच्चों के साथ हैं। जो कुछ लोग बचे हुए थे, उनमें से अधिकांश को कोरोनावायरस ने अपनी चपेट में ले लिया है । बहुत अफसोस के साथ कहना पड़ रहा है कि जाएं, तो जाएं कहां। कोविड के पहले के दिनों को अगर हम याद करें तो छुट्टियों का दिन हो, शनिवार और इतवार हो, सप्ताहांत हो , कब और कैसे, कहां और किनके साथ मनाना है यह पहले ही तय हो जाता था।
लोगों के साथ दिन कब और कैसे कट जाता था पता ही नहीं चलता था। एक कहने वाली बात थी। किसी को फोन किया और अपनी तरफ से बिना सामने वाले की स्वीकृति लिए बड़ी बेतकल्लुफी से कहा आ रहे हैं। आपके साथ एक कप चाय पिएंगे। उधर से भी बड़े उत्साह के साथ जवाब आता था, हां आइए ना। अब तो गुरू कोरोना ने वह कहर ढाया है कि अब तो सोचना पड़ रहा है की छुट्टियां किन के साथ बितायी जाए । चाय की चुस्कियों के साथ कौन ऐसा व्यक्ति है, जो बड़े ही बेतकल्लुफ़ अंदाज में आपके साथ अपनी बातों को, अपनी सोच को, आपके साथ शेयर करेगा।
बहुत ही मुश्किल वक़्त है। दुनिया वैसे ही आभासी हो चली है और हम सभी उसके स्वरूप को कहीं न कहीं अंगिकार कर चुके हैं। रही सही कसर कोरोना ने पुरी कर दी। मानवता का एक वीभत्स चेहरा इस दौरान देखने को मिला। पता चला कितने अमानवीय हो गए हैं हम। मानवता हमसे कहीं दूर जाती दिखाई दे रही है। बहुत सारे मिथक टूटते नजर आए। बस लोगों में जान बचाने की आपाधापी मची थी। किसी भी तरह, किसी भी कीमत पर।
अब भी वक्त है,शायद हम पर कोई फर्क पड़े। समाज का निर्माण ही मानवता के बुनियाद पर हुआ था। झुंड में रहते थे हम सभी। ना कोई रिश्ता और ना ही कोई नाता। सभी एक दूसरे के साथ थे। दुःख सुख बांट लिया करते थे।
बिलकुल सही बात। वाकई कोरोना कल की याद से ही दिल सिहर उठता है। बावजूद इसके हम बिलकुल लापरवाह है कहीं कोई एहतियात नजर नहीं आता है। खैर तुमने अपनी कलाम से आवाज उठाई है आगे भी तुम इसी तरह अपनी बात कहते रहो। अल्लाह तुम्हें तरक्की दे और कामयाबी आया फरमाये। आमीन
Thank you