– ज्ञानेन्द्र रावत*
पर्यावरण के सवाल पर राजनीतिक दलों की चुप्पी है। किसी ने भी 5 राज्यों के आसन्न विधान सभा चुनावों में पर्यावरण के सवाल को अपना मुद्दा नहीं बनाया।कारण बिल्कुल साफ है कि यह मदु्दा चुनावों में न तो उनकी जीत का आधार बनता है और न इससे उनका वोट बैंक मजबूत होता है। उनकी नजर में यह बेकार का सवाल है। जबकि पर्यावरण के बिना जीवन असंभव है। दुनिया के वैज्ञानिक और जीव विज्ञानियों का मानना है कि अब दुनिया को पर्यावरण की रक्षा के लिए तुरंत जरूरी कदम उठाने होंगे। इसको हमें आर्थिक लाभ से परे उठकर अपने दिमाग और दिल को जीवन के मूल्य और सिद्धांतों से जोड़ कर न केवल देखना होगा बल्कि पर्यावरण की रक्षा के उच्च आदर्शों का भी पालन करना होगा तभी कामयाबी मिल सकेगी। देश के राजनीतिक दल आज इस पर भले ध्यान न दें लेकिन इस सच्चाई को नकार नहीं सकते कि मानवीय स्वार्थ के चलते हुए तापमान में बदलाव का दुष्परिणाम जहां सूखा, ग्लेशियरों के पिघलने, खाद्य संकट, पानी की कमी, फसलों की बर्बादी, मलेरिया, संक्रामक और यौन रोगों में वृद्धि के रूप में सामने आया, वहीं इसकी मार से क्या शहर, गांव, धनाढ्य-गरीब ,शहरी-उच्च-निम्न वर्ग या प्राकृतिक संसाधनों पर सदियों से आश्रित आदिवासी-कमजोर वर्ग कोई भी नहीं बचेगा और बिजली -पानी के लिए त्राहि-त्राहि करते लोग जानलेवा बीमारियों के शिकार होकर मौत के मुंह में जाने को विवश होगा। वैज्ञानिकों ने भी इसकी पुष्टि कर दी है। असल में तापमान में वृद्धि पर्यावरण प्रदूषण का ही परिणाम है। देश के भाग्यविधाताओं ने आजादी के बाद तजे विकास को ही सबसे बड़ी जरूरत माना। वह हुआ भी लेकिन इसमें सबसे बड़ा नुकसान हमारे जीवन का आधार पर्यावरण का हुआ जिसे मानवीय स्वार्थ ने विनाश के कगार पर पहुंचा दिया है। जबकि कारेोना काल ने पर्यावरण की महत्ता को साबित कर दिया है, दुख है कि उसके बाद भी हम नहीं चेते हैं।
हमारे यहां सबसे बड़ी विडम्बना है कि सरकारें पर्यावरण संरक्षण के बारे में ढिंढोरा तो बहुत पीटती हैं लेकिन इस पर वे कभी गंभीर नहीं रहतीं। इतिहास इसका जीवंत प्रमाण है। सरकार की नाकामी का इससे बड़ा सबूत और क्या होगा कि आज से दो बरस पहले हमारे पर्यावरण मंत्री तक ने कहा है कि अधिकारी इस बाबत हमारी सुनते ही नहीं हैं। सरकारों की बेरुखी इसका सबूत है कि 2019 के लोकसभा चुनावों में देश के राजनीतिक दलों के लिए पर्यावरण के मुद्दे की कोई अहमियत ही नहीं रही। दुख है कि आजादी के बाद से आज तक किसी भी राजनीतिक दल ने पर्यावरण को कभी भी चुनावी मुद्दा बनाया ही नहीं। हां 2019 में स्वास्थ्य का मुद्दा जो हर बार हाशिए पर रहता था, लोकसभा चुनाव में भारतीय जनता पार्टी (भाजपा), कांग्रेस समेत अधिकतर राजनीतिक दलों के घोषणा पत्रों में जरूर अहम् रहा। इससे पहले के चुनावों में राजनीतिक दलों के घोषणापत्रों में स्वास्थ्य का मुद्दा तो एक तरह से नगण्य ही रहता था। वह बात दीगर है कि प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी के पहले कार्यकाल के आखिरी दो सालों में बदलाव जरूर देखने को मिला।पहले देश भर के डेढ़ लाख हेल्थ एंड केयर वेलनेस सेटंर खोलने की घोषणा और फिर प्रधानमंत्री जन आरोग्य योजना शुरू होने से स्वास्थ्य अचानक एक राजनीतिक मुद्दा बन गया। इसका असर 2018 के अंत में हुए पांच राज्यों के विधान सभा चुनावों में देखने को मिला, जहां पांच राज्यों में से चार राज्यों के घोषणा पत्रों में स्वास्थ्य को प्रमुखता से स्थान दिया गया था। 2014 के आम चुनावों में कांग्रेस के घोषणा पत्र में नए वादों से अधिक यूपीए शासन की उपलब्धियों का ब्योरा दिया गया था। उसमें कांग्रेस ने स्वास्थ्य पर खर्च बढ़ाकर जीडीपी का 3 फीसदी करने का वायदा जरूर किया था। लेकिन इस बाबत कोई रोडमैप नहीं सुझाया था।वहीं भाजपा ने मोदी सरकार की महत्वाकांक्षी योजना – प्रधानमंत्री जनआरोग्य योजना – के भरोसे जनता का विश्वास जीतने का प्रयास करने में कामयाबी जरूर पायी।
आज पर्यावरण क्षरण की भयावहता का सवाल समूचे विश्व के लिए गंभीर चिंता का विषय है। इस चुनौती से निपटना आसान नहीं है। समूचे विश्व में इस चुनौती का मुकाबला करने की दिशा में हर संभव कोशिशें जारी हैं । पेरिस, कोपेनहेगन, दोहा, वारसा, कानकुन, काटोवाइस और ग्लासगो आदि अंतरराष्ट्रीय सम्मेलनों के बावजूद सफलता कोसों दूर है।
संयुक्त राष्ट्र महासचिव एंटोनियो गुटररेस की चिंता का अहम् कारण यही है।जहां तक हमारे देश का सवाल है,हमारे यहां आज आम जन पर्यावरण के प्रति सजग तो हुआ है, लेकिन उसका प्रतिशत बहुत कम है। वह बात दीगर है कि पर्यावरण संरक्षण हेतु बच्चे सड़कों पर उतर रहे हैं। वे ग्लोबल डे ऑफ़ स्टूडेटं प्रोटेस्ट मनाकर पर्यावरण की सुरक्षा और जलवायु परिवतर्न के खिलाफ सरकारों को कड़े कदम उठाने का संदेश दे रहे हैं। 2019 में दुनिया के 105 देशों के हजारों बच्चों ने पर्यावरण बचाने को लेकर कक्षाओं को छोड़कर हड़ताल की।लदंन में १००० स्कूली छात्रों ने सडक़ों पर पोस्टर लेकर हड़ताल की। हमारे यहां भी हजारों स्कूली बच्चों ने दिल्ली, कोलकता, गुरुग्राम आदि अनेक नगरों -महानगरों में स्वच्छ हवा की मांग के साथ प्रदूषण पर अंकुश लगाने के लिए वैश्विक मुहीम के तहत प्रदर्शन किया। बच्चों ने प्रदर्शन के दौरान डांस, भाषण और गीतों के माध्यम से पर्यावरण के प्रति लोगों को जागरूक किया। छात्रों ने प्रदर्शन में पोस्टर, प्ले कार्ड की मदद से पर्यावरण पर पड़ रहे प्रभावों को बताया और कहा कि जलवायु परिवर्तन के चरम सीमा में पहुँचने में अब केवल 12 साल ही बचे हैं। इसलिए यदि धरती को बचाना है तो जलवायु परिवर्तन से होने वाले दुष्प्रभावों को रोकने की दिशा में सख्ती से कदम उठाने होंगे। बच्चों के इस प्रयास की हमारे तत्कालीन पर्यावरण सचिव ने भूरि-भूरि प्रशंसा की और एक वीडियो जारी कर कहा भी कि हम आपसे सहमत हैं। इस दिशा में सामूहिक कार्यवाही से ही कुछ नया हो सकता है, बदलाव हो सकता है। गौरतलब है कि दुनिया में भारत सहित दक्षिण कोरिया, आस्ट्रे्लिया और फ्रांस ही ऐसे देश हैं जहां के बच्चे पहले ही जलवायु परिवर्तन से होने वाले दुष्प्रभावों से जनता को जागरूक कर रहे हैं।
प्राचीन काल से हमारे जीवन में परम्पराओं – मान्यताओं का बहुत महत्व है।हमारे पूर्वजों ने धर्म के माध्यम से पर्यावरण चेतना को जिस प्रकार हमारे जन-जीवन में बांधा, उसे संरक्षण प्रदान किया, वह उनकी गहन व व्यापक दृष्टि का परिचायक है। हमारी संस्कृति वनप्रधानरहीहै।उपनिषदों की रचना वनों से ही हुई है।हिमालय,उसकी कन्दरायें योगी-मुनियों की तपस्थली रहे हैं जहां उन्होंने गहन साधना कर न केवल जीवन दर्शन के महत्व को बतलाया बल्कि यह भी कि वन हमारे जीवन की आत्मा हैं। वृक्ष पूजन की परपंरा पर्यावरण संरक्षण का ही प्रयास है। वट, पीपल, खेजड़ी, तुलसी आदि की उपादयेता-उपयोगिता इसका जीवंत प्रमाण है। देव पूजन में तुलसी पत्र का उपयोग आवश्यक कर उसको प्रतिष्ठा प्रदान करना पर्यावरण को स्वच्छ एवं सुभाषित रखने के उद्धेश्य से प्रेरित एवं सौंदर्यबोध का परिचायक है। वनस्पति की महत्ता को आदिकाल से पर्यावरण चेतना के अभिन्न अंश के रूप में प्रमुखता दी गई। जीवों को हमने देवी-देवताओं के वाहन के रूप में स्वीकार किया। इनकी महत्ता न केवल पूजा-अर्चना में बल्कि पर्यावरण संतुलन में भी अहम् है। जल देवता के रूप में प्रतिष्ठित और नदियां देवी के रूप में पूजनीय हैं। इनको यथासंभव शुद्ध रखने की मान्यता और परपंरा है। पूर्व में लोग आसमान देख आने वाले मौसम, भूमि को देख भूजल स्रोत और पक्षी, मिट्टी एवं वनस्पति के अवलोकन मात्र से भूगर्भीय स्थिति और वहां मौजूद पदार्थों के बारे में बता दिया करते थे। यह सब उनकी पर्यावरणीय चेतना के कारण ही संभव था। यह प्रमाण है कि पर्यावरण के प्रति संवेदनशीलता हमारी परम्पराओं- मान्यताओं का अभिन्न अंग था। लेकिन आज हम उससे कोसों दूर हैं।
असलियत में जलवायु परिवर्तन ने इसे बढ़ाने में अहम् भूमिका निबाही है। दुनिया में इस बारे में किये गए अध्ययन, शोध इसके जीवंत प्रमाण हैं। आज सरकारों का ध्यान आर्थिक विकास पर ही केन्द्रित है, उनकी प्राथमिकता सूची में न जंगल हैं, न नदी, न जल, न जमीन और न हवा है। देश के नीति-नियंताओं का पूरा ध्यान तो इनके दोहन पर ही केद्रित रहता है। उसी के दुष्परिणाम स्वरूप पर्यावरण पर प्रदूषण के बादल मंडरा रहे हैं।पर्यावरण स्वच्छता में देश की राजधानी दिल्ली का प्रदर्शन बीमारू राज्यों से भी बदतर है।प्रदूषण के मामले में तो राष्ट्रीय राजधानी क्षेत्र कीर्तिमान स्थापित किया है। देश में आज पर्यटन विकास के नाम हज़ारों-लाखों हरे भरे पेड़ों की बलि दी जा रही है।वह बात दीगर है कि सरकारें देश में हरित संपदा की बढ़ोतरी का दावा करते नहीं थकतीं।पर्यावरण संरक्षण की कोशिशों में बहुराष्ट्रीय कंपनियों के हित की जगह जन-भागीदारी को अहमियत दिये जाने की ओर किसी का ध्यान नहीं है। यदि हम समय रहते कुछ कर पाने में नाकाम रहे तो वह दिन दरू नहीं जब मानव सभ्यता का अस्तित्व ही समाप्त हो जायेगा।
*वरिष्ठ पत्रकार, लेखक एवं पर्यावरणविद्।