– प्रशांत सिन्हा
संयुक्त राष्ट्र की तरफ़ से इसी सोमवार को जलवायु परिवर्तन रिपोर्ट में कहा गया कि वातावरण लगातार गर्म हो रहा है। रिपोर्ट में यह भी कहा गया कि हालात बहुत खराब होने वाले हैं। भागने और छिपने के लिए जगह नहीं बचेगी। रिपोर्ट कहती है कि यह जलवायु परिवर्तन मनुष्यों की गतिविधियों का नतीजा है।
अपने बचपन की अवस्था में बढ़ती जनसंख्या के विषय मे सुना और पढ़ा करता था। लेकिन शताब्दी के आखिरी दशक में प्रवेश करने के पश्चात इस पर चर्चाएं लगभग बंद हो गईं थीं। शायद जातिवाद एवं धार्मिक चर्चा के शोरगुल में यह समस्या दब गई। उसके बाद आई टी क्रान्ति भूमंडलीकरण एवं उदारवाद आर्थिक नीति के कारण अर्थ व्यवस्था में जबर्दस्त उछाल ने तो बढ़ती जनसंख्या को संसाधन के रूप में देखने लगे।
किसी भी मंच से इसकी चर्चा नही होती थी। लेकिन 2019 के स्वतंत्रता दिवस के दिन अपने भाषण में प्रधान मंत्री नरेंद्र मोदी ” जनसंख्या विस्फोट ” कह कर ध्यानाकर्षण का काम किया। उसके बाद राजनैतिक स्तर पर बुद्धिजीवियों के बीच एवं मीडिया में इसकी चर्चाएं शुरू हो गईं। असम सरकार और उसके बाद उत्तर प्रदेश में जनसंख्या नियंत्रण कानून लाने की घोषणा ने इस बहस को नए आयाम पर पहुंचा दिया। जनसंख्या नियंत्रण कानून के पक्ष और विपक्ष मे बहस और चर्चा शहर के नुक्कड़ तक में होने लगीं।
“जनसंख्या विस्फोट” भारत के पर्यावरण और प्राकृतिक संसाधनों को प्रभावित कर रहा हैं और आने वाली पीढ़ी की प्रगति को सीमित कर देगा। भारत की जनसंख्या तेज गति से बढ़ रहीं है और कुछ वर्षों में चीन को पीछे छोड़ देगा। संयुक्त राष्ट्र के आर्थिक और सामाजिक मामलों के विभाग के अनुमान के अनुसार भारत की जनसंख्या 2030 तक 150 करोड़ और 2050 मे 164 करोड़ तक पहुंच जायेगी।
तेज गति से बढ़ती हुई जनसंख्या से जल, वायु, ध्वनि, एवं दूसरे प्रदूषण बढ़ रहा है। आज भारत के महानगरों में जैसे दिल्ली, कोलकाता, मुंबई, चेन्नई, बंगलुरु, अहमदाबाद जैसे शहरों मे झोपड़ पट्टियों का विस्तार होता जा रहा है। जनसंख्या वृद्धि से वाहनों की वृद्धि हो रही है और वाहनों से निकलने वाले धुएं से वातावरण खराब हो रहा है और हमारे स्वास्थ्य पर इसका दुष्प्रभाव पड़ रहा है। नदियों, तालाबों का जल प्रमोद के बजाए जीवन लीलने वाला बन गया है।
यह बात तो सर्वविदित है कि प्राकृतिक साधन सीमित है। एक न एक दिन ये सभी समाप्त हो जायेंगे। निरंतर बढ़ती जनसंख्या के कारण मनुष्य की आवश्यकताएं भी बढ़ रही है और उनकी पूर्ति के लिए किए जाने वाले सारे प्रयास निरर्थक होते जा रहे हैं। जनसंख्या वृद्धि से पर्यावरण संतुलन बिगड़ रहा है और संतुलित पर्यावरण सुखी और सुरक्षित जीवन का एक मात्र विकल्प है।
गाँवों में भी बढ़ती जनसंख्या के कारण खेती के लिए उपलब्ध भूमि सिमटी जा रही है। गांव के परंपरागत झोपड़ियों के स्थान पर ईंट के पक्के मकान बन रहे हैं। जंगलों का सफाया भी निरंतर तेज़ी से हो रहे हैं । इन परिस्थितियों मे अतिरिक्त चारा, ऊर्जा, इमारती लकड़ी आदि की आवश्यकता बढ़ जाती है। ग्रामीण इसकी पूर्ति के लिए चारागाह की भूमि को अपनी निजी संपत्ति समझ कर उसका दोहन अत्याधिक रूप से करने लगे हैं। जो भूमि चारागाह तथा सामान्य उपयोग के लिए भूमि आवंटित था, उस पर जनसंख्या वृद्धि के कारण व्यक्तिगत उपयोग के लिए उस भूमि का उपयोग करना शुरू कर दिया।
इस प्रकार वन विकास के स्थान पर वन विनाश हुआ। साथ ही प्राकृतिक संतुलन और पर्यावरण संतुलन भी अस्त व्यस्त हो गया। बढ़ती जनसंख्या को अपनी जरूरतों को पूरी करने के लिए भारी मात्रा मे लकड़ियों की आवश्यकता होती है। लकड़ियों की आवश्यकताओं को पूरी करने के लिए पेड़ों को काटना पड़ता है। फलतः जलवायु मे परिवर्तन होने लगा। वृक्षों को काटने से भूमि का कटाव होना आरंभ हो जाता है। भूमि कटाव से भूमि का उर्वरा शक्ति नष्ट हो जाती है। पेड़ पौधे और हरियाली वर्षा को निमंत्रण देती है और वर्षों तक अच्छी फसल होती है।
बढ़ती हुई जनसंख्या के लिए अधिक अन्नोत्पादन के लिए नए नए तरीके, रसायनिक खाद, कीटनाशक दवाओं का अधिक प्रयोग किए जाने से फसल तो बढ़ती है परन्तु इसके बार बार प्रयोग किए जाने के कारण। प्रदूषण भी बढ़ता है।
पर्यावरण, जनसंख्या एवं आर्थिक विकास एक दूसरे से घनिष्ठ रूप से सम्बन्धित है और एक दूसरे पर निर्भर भी है। जनसंख्या वृद्धि पर्यावरण को किस प्रकार प्रभावित करते हैं यह जनसंख्या के आकार पर भूमि की उपलब्धता पर निर्भर करता है। हम यह कह सकते हैं कि जनसंख्या वृद्धि किसी देश के लिए लाभदायक है अथवा हानिकारक यह उस देश के प्राकृतिक संसाधनों की उपलब्धता पर निर्भर करती है।