– रमेश चंद शर्मा*
पूर्वी पाकिस्तान में बंगला भाषा को लेकर आन्दोलन हुआ। पूरे क्षेत्र में खलबली मच गई। भाषा के नाम पर सभी लोग एक साथ खड़े हो गए। इसके सामने पाकिस्तान सरकार, पुलिस, प्रशासन, सेना हताश, निराश हो गई। उनका कोई जोर नहीं चल पाया।
जब जनता जागती है तो उसके सामने बड़ी से बड़ी सत्ता बेकार, नकारा साबित हो जाती है। उसकी सत्ता लोगों के दिलों से गायब हो जाती है। अपने ही लोगों, नागरिकों पर अत्याचार, दबाव, शोषण, कत्ल, हिंसा, जेल में डालने का खेल शुरू हुआ।
चुनाव में श्री शेख मुजीबुर्रहमान के दल को जीत हासिल हुई। पाकिस्तान की सत्ता को यह पसंद नहीं आया। उसने सत्ता के नशे में दबाव, अत्याचार, सेना के दम पर इसको मानने से इंकार किया। पूरा क्षेत्र विद्रोह की चपेट में आ गया। बड़ी संख्या में लोगों का भारत की ओर आना शुरू हो गया। शरणार्थियों की संख्या दिन पर दिन बढती जा रही थी। ऐसे में भारत के लोग शांत कैसे बैठ सकते थे।
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श्री जयप्रकाश नारायण ने शांति दूत के रूप में बंगला देश के समर्थन में अनेक देश का दौरा किया। विज्ञानं भवन में बंगला देश के लिए सम्मेलन का आयोजन किया। जिसमें अनेक देश के प्रतिनिधियों ने भाग लिया। श्री जयप्रकाश नारायणजी के नेतृत्व, मार्गदर्शन में गांधी शांति प्रतिष्ठान, सर्व सेवा संघ की इस आयोजन में बड़ी भूमिका रही। भारत सरकार का भी पूरा समर्थन मिला। पूरी पूरी रात साईकलोस्टाईल का काम चलता। स्टेन्सिल कटते, रातों रात लेख, दस्तावेज, भाषण साईकलोस्टाईल होते, सैट तैयार किये जाते।
कार्यक्रम में अनेक देश के नेताओं की भागीदारी हुई। बंगलादेश के चुने हुए नेताओं की रिहाई, शांति एवं मानव अधिकारों की सुरक्षा को लेकर प्रस्ताव पास किए गए। इनके समर्थन में आवाज बुलंद की गई। इससे देश और दुनिया में बंगलादेश के अनुकूल माहौल बना।
इस अवसर पर एक बहुत ही प्रभावकारी नाटक की प्रस्तुति ने सभी की आँखे नम कर दी। आज भी उसकी याद आती है तो रोंगटे खड़े हो जाते है। हमारी युवा टीम ने इसमें अच्छी भूमिका निभाई, इसका बहुत संतोष मन में है। इस पूरी प्रक्रिया से सीखने, जानने को भी बहुत ही मिला। विभिन्न लोगों से संपर्क संवाद बना। बंगलादेश के युवाओं से अच्छी दोस्ती बनी। जिसका उपयोग, सहयोग भी हुआ।
मुक्ति वाहिनी के लोग क्षेत्र में पूरी तरह से सक्रिय थे। हर प्रकार का विरोध जारी था। आन्दोलन तेजी पर था, सेना उसे कुचलने के लिए हर प्रकार के हथकंडे अपना रही थी।अत्याचार की सीमाएं लांघी जा रही थी। दुश्मन से भी ज्यादा बुरा व्यवहार अपने ही लोगों, नागरिकों पर किया जा रहा था। विभिन्न कारणों से भारत पर बोझ बढ़ रहा था। सीमा पर भारी दबाब महसूस किया जा रहा था। लोगों का भारत में आना जारी था। शरणार्थी शिविरों में सरकार, संस्थाएं, लोग सभी के सहयोग से काम हो रहा था। संख्या इतनी ज्यादा थी कि जितना काम किया जा रहा था, वह सब कम ही पड़ रहा था। गांधी को मानने वाले साथी, संगठन विशेषकर सक्रिय थे। सब अपनी अपनी जिम्मेदारी उठाकर लोगों को राहत, सुविधा पहुँचाने का प्रयास कर रहे थे।
मुक्ति वाहिनी को प्रशिक्षण देने का काम भी चल रहा था। सेना अपने स्तर पर सावधान, सतर्क, सक्रिय थी। शरणार्थी शिविर में अपना योगदान, कुछ समय देने के लिए अपन भी पहुंचे। श्री क्षितिजदा, क्षितिज राय चौधरी की पूरी टीम इस काम में लगी हुए थी। बंगलादेश सम्मेलन में उपस्थित रहने के कारण अपनी इस कार्य में और अधिक रूचि बढ़ गई थी। मुक्ति वाहिनी के साथियों से मिलने का मौका मिला था। वह यहां भी काम आया, साथ ही नए लोगों से मिलने का मौका मिला।
जनरल श्री एस एस उबान के परिचय का लाभ मिला। जिनके कारण लेफ्टीनेंट जनरल श्री जगजीत सिंह अरोड़ा जी से भी सम्पर्क बना। जिनके समक्ष हथियार डाले गए, एक बड़ा समर्पण हुआ। मुक्ति वाहिनी के साथी दिल्ली भी आए थे, उनको मदद करने का अवसर मिला। इनके साथ सीमा पर कुछ गतिविधियाँ देखना दिल को दहला देता। अब जो माहौल बन गया है, उसमें आज तो उसकी कल्पना भी नहीं कर सकते। मुक्ति वाहिनी किसी भी त्याग के लिए तैयार थी।
अंत में भारत की सेना को पूरी तरह युद्ध में जाना पड़ा। पाकिस्तान की सेना इतनी बड़ी संख्या में हथियार डालकर आत्म समर्पण को मजबूर हुई। एक नया इतिहास रचा गया। एक नया देश बना। भाषा की विविधता का सम्मान नहीं करने का परिणाम पाकिस्तान को भुगतना पड़ा। विविधता का सम्मान बहुत आवश्यक है, एकता, अखंडता, साझापन के लिए। अपने देश भारत के लिए तो यह बहुत ही महत्वपूर्ण, उपयोगी, सार्थक है। इससे यह भी सबक मिला कि सत्ता की राजनीति बहुत ही भयंकर नशा, भूख, बिगाड़ खाता, सत्यानाश करती है।
बाद में इन लोगों के साथ शांति, सदभाव, मानव अधिकार, सर्व धर्म समभाव के काम में खूब सहयोग मिला, किया। अरोड़ा साहेब जेपी द्वारा स्थापित सीएफ़डी, जनतंत्र समाज के काम में रूचि लेते थे। उबान साहब ने तो एसीआरपी, एशियन कांफ्रेंस आँन रिलिजन एंड पीस, डब्लूसीआरपी, वर्ल्ड कांफ्रेंस आँन रिलिजन एंड पीस में बहुत काम किया।
ऐसे मौकों ने जीवन को जानने, विचारने, सीखने, समझने-बूझने का बड़ा अनुभव दिया। व्यक्ति, समूह, समाज, देश, राष्ट्र, विश्व, मानवता, विविधता, अहिंसा, शांति, सदभावना, सौह्रार्द, साझापन, समन्वय के महत्व, आवश्यकता, उपयोगिता, सार्थकता की समझ बढ़ी। नासमझ, अहंकारी, अपने नशे में चूर, असहनशील सत्ता का क्या हश्र होता है। देश, समाज, दुनिया को कितना भुगतना पड़ता है। यह सब देखने जानने को मिला। हिंसा नहीं, कभी नहीं, कहीं नहीं। हिंसा से किसी मसले का हल नहीं होता। हिंसा तोड़ती है, जोड़ती नहीं। इस भावना को बल मिला।
*लेखक प्रख्यात गाँधी साधक हैं।
आभार धन्यवाद शुक्रिया आशीर्वाद