मारगला हिल्स
संस्मरण
– डॉ. राजेंद्र सिंह*
पाकिस्तान में पहाड़ों का नंगापन देखकर तो आंसू आ गये
पाकिस्तान भारत का पड़ोसी देश है। लेकिन यहाँ कुदरत की हिफाज़त करने की चिंता भारत जैसी दिखाई नहीं देती। इस देश में भी कमोबेश चीन जैसी स्थिति नजर आती है। आजादी के बाद यहाँ भी भौतिक व आर्थिक विकास तो नजर आता है, जिसके कारण प्रकृति (कुदरत) में बिगाड़ बहुत तेज़ी से नजर आ रहा है। मैंने अपनी यात्राओं के दौरान इस देश में जलवायु परिवर्तन का बहुत बिगाड़ देखा है।
पाकिस्तान की राजधानी इस्लामाबाद को छोड़कर सभी भू-पारिस्थितिकी, जलवायु, मौसमीय परिवर्तन की कहानियाँ , यहाँ के पर्यावरणविदों से बहुत सुनी है। मैं उनकी बातें सुनकर फिर स्वयं उन्हीं स्थानों पर देखने गया। मैंने पाकिस्तान का थार मरुस्थल भी देखा और अन्य कई स्थानों पर गया। भारत की पर्यावरण आस्था को भले ही भारत के विकास के लालच ने लील लिया हो, लेकिन पाकिस्तान की वैसी प्राकृतिक आस्था जो पुराने जमाने में रही होगी, उसका अब दर्शन नहीं होता। हमें प्रकृति के बेहिसाब शोषण का नजारा पाकिस्तान के अवैज्ञानिक खनन व उद्योग में स्पष्ट नजर आता है। यहाँ प्राकृतिक पर्यावरण की चिंता करने वाले चंद लोग ही मौजूद है, परन्तु इनकी कोई सुनवाई नहीं है।
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यहाँ की नदियां भारत से भी ज्यादा भयंकर रूप से प्रदूषित हैं । अब नई प्रौद्योगिकी ने भू-जल के भंडारों को शोषित कर दिया है। यहाँ का खेती में रुझान कम है। उद्योग प्रदूषणकारी है और वातावरण की कार्बन को शोषित करते हैं। जंगल घट गए है। खेत की हरियाली भी घट गई है। परिणाम स्वरूप यहाँ बे-मौसम के कारण बाढ़-सुखाड़ का चलन बढ़ गया है।
यहाँ के लोगों का मानना है कि कुदरत की हिफाजत, पैगम्बर का प्रिय काम है। वह व्यवहार प्रत्यक्ष पाकिस्तान में दृष्टि गत नहीं हो रहा है। इसलिए पाकिस्तान का पर्यावरण संकट अब लोगों को विस्थापित होने के लिए मजबूर कर रहा है। यह सबसे ज्यादा स्वीडन जाना पसंद करते है। वहाँ जितने भी पाकिस्तानी है, वे भारतीय होटलों में सेवा व भोजन बनाने का काम कर रहे। अफ्रीका के पुनर्वास शिविरों व स्वीडन पुनर्वास शिविरों में विस्थापित पाकिस्तानी मिल जाते है। फ्रांस, नीदरलैंड, भी इनके प्रिय देश है। लेकिन अभी तक मेरी यात्राओं के दौरान मुझे सबसे ज्यादा विस्थापित पाकिस्तानी स्वीडन, फ्रांस, यूके, नीदरलैंड में ही मिले है। वहाँ ये कम खर्च करके, अपना जीवन अच्छे से बिता रहे हैं।
अब पाकिस्तान में विस्थापन दर तेज़ी से बढ़ रही है। उन्हें यूरोप में भी ठीक से पुनर्वास का अवसर प्राप्त नहीं हो पा रहा है। मुझे बहुत से विस्थापित पाकिस्तानियों ने कहा कि, अब हमें शरणार्थी घोषित करानें में ही तीन चार साल लग जाते है, जब तक शरणार्थी घोषित नहीं हो जाते, तब तक विधिवत् सेवा करने का अवसर नहीं मिलता। 5-6 अलग देश के पाकिस्तानियों ने कहा कि जब हम पाकिस्तानी कहते है, तो बोल-चाल की भाषा में यूरोपवासी जलवायु परिवर्तन शरणार्थी कह कर बुलाते है। यदि हम अपने को भारतीय बोलते हैं तभी आर्थिक शरणार्थी कहते है। देखने में भारतीयों और पाकिस्तानियों में अंतर नहीं है। यह अंतर तो हमारे कागज़ देखने पर ही पता चलता है, इसलिए जहाँ कागज़ नहीं दिखाने होते, वहाँ हम बोल-चाल में भारतीय कहना पसंद करते है।
पाकिस्तान की राजधानी ऊपर से देखने में हरी-भरी लगती है, और वहाँ से निकलें तो नंगे कटे उजड़े पहाड़ दिखते हैं। पेशावर रोड पर मरग लाहिल, जो कुछ दिन पहले तक हरे-भरे जंगलों से घिरी थी, उन पहाड़ियों के पुराने चित्रों के पोस्टर पांचवी अंन्तर्राष्ट्रीय कांफ्रेंस के सब विदेशियों को दिये गये। इन पहाड़ियों का भी अरावली पर्वत मालाओं जैसा समृद्ध इतिहास था। आज यहाँ बेशुमार खनन किया जा रहा है। पूरे के पूरे पहाड़ गायब होते जा रहे हैं। यहाँ की कुछ संस्थायें जैसे एसडीपीआई मारगला हिल्स, नेशनलपार्क सोसायटी, आईयूसीएन शिरगत माध तथा पत्रकारों ने इन पहाड़ियों को बचाने की बहुत कोशिश की थी। लेकिन यहाँ की खदानें आज भी चालू हैं। यह पूरा क्षेत्र वन क्षेत्र के रूप में घोषित है। फिर भी खदानों का काम चलते रहना समझ नहीं आता।
इस क्षेत्र की खदानों ने केवल पहाड़ियों को बर्बाद नहीं किया बल्कि नीचे की तरफ खेती की जमीन में गहरा कटाव व जमाव शुरू होने से यहाँ पैदावार भी घटने लगी है। यहॉ भी कुओं का जल स्तर नीचे जा रहा है। बहुत से कुएँ पूरी तरह से सूख गये हैं। मेरे लिए आक्सफेम ने पाकिस्तान में जन सभा आयोजित की थी। इसमें चूलिस्तान (पाकिस्तान का रेगिस्तान) और थार से कुछ किसान तथा सरकार के इंजीनियर यहाँ आये थे। इन्होंने वहाँ के पानी का जो संकट बताया वह बहुत ही खतरनाक है। इस क्षेत्र में पानी की कमी के कारण लोग लाचार-बेकार बीमार, बेघर हो रहे हैं। सरकार केवल कुछ पीने के पानी की व्यवस्था करने मे जुटी है। पाकिस्तान में राहत कमिश्नर कह रहे थे कि यहाँ अकाल राहत का काम केवल सत्ता को राहत पहुँचाने के लिए ही होता है। मैं सरकरी आदमी हूं इसलिए अधिक नही बोल सकता।
नूमान नकवी, प्रसिद्ध पर्यावरणविद् बोले हमारे यहाँ गरीब की भलाई के नाम पर हम केवल उसे दबाते हैं। यहाँ उसकी जरूरत का अहसास किसी को नहीं है। उसे कोई हक नहीं देना चाहता। हमारे पड़ौसी भारत देश की तरह हमें बोलने, नेता चुनने, कुछ करने, करवाने के लिए सत्ता पर दबाब बनाने का हक यहाँ नहीं है। कम से कम वैसा भी हमारे देश में हो जाये तो हम तरक्की कर सकते हैं। अन्यथा हम, हमारे खेत, पहाड़, पानी, जंगल सब कुछ लुटते रहेंगे। एक दिन फिर सब याद कर के पछतायेंगे।
शहमस उल मुल्क उस समय पाकिस्तान में स्थित पंजाब राज्य के सिंचाई और ऊर्जा मंत्री थे। उन्होंने कहा कि हमने पानी का बहुत काम किया है, लेकिन बढ़ती जनसंख्या के कारण सब तरह की समस्यायें बढ रही हैं। जनता को जो चाहिए वह सब हम कर रहे हैं। ये मंत्री जी दोनों सम्मेलनों में बराबर बने रहे। बस सरकार की उपलब्धियां बताते रहे। इन्हीं के सामने सांघी संगठन के मुस्ताक भाई इन्हीं की सब कमियां बताने की कोशिश करते रहे। इंडस ट्रीटी का इन्होंने बहुत बार जिक्र किया। नदियों के पानी के निजीकरण की चिन्ता यहां बहुत उभरी थी। कई साथियों ने कहा कि ये मंत्री ही जल का निजीकरण करने वाले हैं।
आरोप-प्रत्यारोप तो बहुत से लोग पाकिस्तान के मूक होकर, छुपकर लगाते हैं। लेकिन यहाँ पर्यावरण की बर्बादी रोकने का वास्तविक प्रयास दिखाई नहीं दिया। पर्यावरण के यहाँ होने वाले दुष्प्रभाव हमें भी प्रभावित करेंगे। हमारे देश के प्रतिनिधियों ने अन्तर्राष्ट्रीय समस्याओं का शोधकर्मी की तरह ही प्रस्तुतीकरण किया।
मैंने देखा कि हमारे देश की अधिकतर महिलायें इस कार्यशाला में गई थीं। ये महिलाएं सबलीकरण या सती प्रथा की बातें ही कर रही थीं। यह कार्यशाला एशिया में टिकाऊ विकास को लेकर थी। लेकिन टिकाऊ विकास की चर्चा बहुत कम हो रही थी। सुखाड़ – बाढ़ पर चर्चा ज्यादा चल रही थी। इससे बचने के उपाय बहुत बताये गये। पाकिस्तान की एक कार्यकर्ता ने बैठक में कहा कि ’’अभी सरकारों के मसले छोड़कर कुछ समाज के मसलों पर चर्चा करना शुरूआत करें। चूलिस्तान और राजस्थान एक जैसे प्रदेश हैं। हम अपनी भूमि पर पानी बचाने का काम कर रहे हैं। आप भी ऐसा ही काम शुरू करें। कुछ लोगों ने शुरू करने की हाँ भरी। मुल्तान मेहमारे जैसा काम खालिद हुसैन और जुवैदा ने शुरू करने का वादा किया। चूलिस्तान में नदी महल दर कुछ काम शुरू करने की तैयारी में जुटेंगे। संयुक्त राष्ट्र संघ के विकास कार्य के सहायक प्रतिनिधि मोहम्मद जफर इकबाल ने भी जल संरक्षण व जल चेतना का कार्यक्रम चलाने का वादा किया।
मारगला हिल्स को बचाने व उसमें जंगल को बढ़ाने की कोई बात ही करने को तैयार नहीं था क्योंकि यहां चल रही खदाने सत्ता धारियों की थीं। इनके बारे में तो अब पता ही नहीं होता। आन्दोलनकारी भी शान्त हो रहे हैं। इन पहाड़ियों पर कुछ नहीं बचा है। फिर भी अफगानिस्तान से आईटुम्बा (मांसाहारी भेड़) इन्हें रांध रही हैं। अब यहाँ कि भेड़-बकरी के साथ-साथ अफगानिस्तान की बकरी-भेड़ें अधिक दिखाई देती हैं।
मैं, अभी तक अपने यहाँ हिमालय, अरावली, विन्ध्य की खदानों को देखकर और प्रकृति के साथ हो रहे शोषण को देखकर दुखी होता रहता था। अरावली का खनन तो बंद ही करा दिया है। यह भारत में करना ही संभव है। पाकिस्तान में पहाड़ों का नंगापन देखकर तो आंसू आ गये। दुख तब हुआ जब यहाँ के नामी पर्यावरणविद् भी कुछ नहीं करने के लिए लाचार और दुखी दिखे। इस विषय पर बात शुरू होते ही वे दूर हटने लगे। यह सब देखकर अपने देश के उच्चतम न्यायालय को गौरव बढ़ाने का अवसर मिला। हमारे न्यायालय ने सचमुच बहुत ही अच्छे निर्णय पहाड़ों को बचाने हेतु लिये हैं। पाकिस्तान में यह भी सम्भव नहीं है। यहाँ की सरकार-सेना के ऐजेंडा में पर्यावरण नहीं दिखता। सोने का अंडा पाने की होड़ में यहाँ मुर्गी का पेट जल्दी ही चीरा जा रहा है। कोई समझाने वाला भी नजर नहीं आता है। यहाँ जन सामान्य अलग है और सियासत बिलकुल अलग है।
लोग भले हैं, लेकिन सत्ता और सेना का दबाव अधिक है। सोचने वाला कुछ भी करने को मजबूर है। यहाँ जल, जंगल, जंगली जीव बचाने की कोई मजबूत आवाज खड़ी होगी, तभी पाकिस्तान का पर्यावरण बचेगा और हम सबका साझा भविष्य सुधरेगा। हम भी पाकिस्तान की घटनाओं को अपने भविष्य के साथ जुड़ा मानें। जैसे पहाड़ का कटाव नीचे की जमीन पर जमाव करके उसे बर्बाद करता है या हवा के साथ आने वाली धूल किसी की आंख को बर्बाद कर देती है, वैसे ही हमारा साझा परिवेश और पर्यावरण हमारा भी नुकसान करता है। हमें जागरूकता व समझदारी से इसे सुधारना चाहिए। पर हमें कुदरत का प्यार सम्मान पाकिस्तान में जगाना कठिन लगता है।
*लेखक जलपुरुष के नाम से विख्यात पर्यावरणविद हैं। प्रकाशित लेख उनके निजी विचार हैं।