संस्मरण
-डॉ. राजेंद्र सिंह*
चीन ने तो जल को तेल और सोने की तरह पूँजी मानकर सुरक्षित-संरक्षित कर लिया है
भारत अपनी प्रकृति रक्षा की आस्था से शांति कायम करने की दिशा पकड़ सकता है। लेकिन अब वर्तमान में इस दिशा में आगे बढ़ने की संभावना नहीं है। क्योंकि जिस अच्छे संस्कार हेतु हम दुनिया में जाने जाते थे उन्हें अब अपना नहीं रहे हैं। चीन अपनी पूँजी बढ़ाने वाला देश व दुनिया का नेता बनना चाहता है। इसलिए यहाँ का भौतिक विकास बहुत तेजी से बढ़ा है। इनसे यहाँ का प्राकृतिक विनाश बहुत किया है। परिणाम स्वरुप इसी देश से कोविड़-19 महामारी फैलनी शुरू हुई है। यहीं से वर्ष 2002 में भी ऐसा ही वायरस ने कनाड़ा, अमेरिका आदि देशों में कहर मचाया था।
चीन अतिक्रमण राष्ट्र है। अफ्रीका, मध्य-पश्चिम एशिया के बहुत से देशों के भू-जल भंडारों पर जल समझौता के तहत या लीज लेकर अपने जल बाजार हेतु कब्जा कर रहा है। इस देश ने भविष्य में जल व्यापार की नीति बनाकर जल को तेल और सोने की तरह पूँजी मानकर सुरक्षित-संरक्षित कर लिया है। भारत में आने वाली ब्रह्मपुत्र नदी की कई सहायक एवं उप-नदियों पर बाँध बनाकर जल के बड़े भंडार बना लिए है। इन भंडारों को युद्ध और व्यापार व उद्योगों में काम लेने का पूरा मन बना लिया हैं । भारत के लिए ये हाईड्रोजन बम की तरह उपयोग किये जा सकते हैं ।
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विकास और पूँजी का लालची राष्ट्र दुनिया का सामरिक, व्यापारिक, आर्थिक सभी रूप में अगुवा बनने की चाह रखता है। इसीलिए वायरस की महामारी पैदा कर रहा है। यह विकास मॉडल अच्छा और टिकाऊ नहीं है। फिर भी भारत जैसे विकासशील देश विकसित बनने हेतु चीन विकास, मॉडल को ही सर्वश्रेष्ठ मानते हैं । खैर मैंने भी भारत से अपनी यात्रा अपने पड़ोसी देश चीन से ही आरंभ की।
कोविड़-19 के कारण शांति केवल ऊपर से दिखाई देती है। यह एक विशेष महामारी का भय है। जीने की चाह हेतु जलवायु को स्वास्थ्य रखना जब समझ आयेगा तभी से ग्रस्त इंसान भी लड़ने की तैयारी कर लेगा। वहीं क्षण ‘‘मरता सब कुछ करता’’ बना देता है। यही शोषित और शोषक के बीच युद्ध करवाता है। तीसरा विश्व युद्ध इसीलिए शुरू होगा। इससे बचने की पहल भारत ने ही शुरू की है। यह विश्व युद्ध अभी तक के युद्धों से बिल्कुल भिन्न है। इसलिए इसे रोकने हेतु छोटी-छोटी पहल करने की जरूरत है।
मैं, 9 अप्रैल 2015 को ही डॉ. एस. ए. सुब्बाराव तथा देश भर के गांधीवादी और विविध सामाजिक कार्यकर्ताओं के साथ गांधी शांति प्रतिष्ठान में विश्व शांति के लिए जल हेतु सद्भावना बनाने के विषय पर बातचीत करके शंघाई -चीन हेतु प्रस्थान किया ।
अगले दिन प्रातः 8 बजे शंघाई पहुँचे। यहाँ साउथ-नोर्थ नदी के अनुभवों को जानने के लिए कुछ लोगों से बातचीत करके शंघाई शहर में घूमे। इस शहर को देखकर लगा कि, यहाँ किसी को प्रकृति की चिंता नहीं है। साझे भविष्य को लेकर लोगों में चिन्तन दिखाई नहीं दिया। सिर्फ़ व सिर्फ़ पूँजी के लिए काम होता है। लाभ की विश्व प्रतियोगिता में यह देश सबसे आगे निकलकर विश्व नेता बनने का ही इनका लक्ष्य है।
अब सब जगह साम्यवादी और पूंजीवादी ही दिखाई देते हैं। समाजवाद अर्थात साझी सुरक्षा, जिसे भारतीय भाषा में शुभ कहते हैं; पहले उसके लिए ही काम करते थे। पहले सभी की भलाई हेतु विचारते और काम करते थे, अब इनके जीवन में साझी सुरक्षा की चिंता नहीं है। अब केवल लाभ प्रतियोगिता के जाल में फँसे हुए हैं।
लाभ कमाने में चीन दुनिया में सबसे आगे निकलना चाहता है। अब चीन पूरी दुनिया के भू-जल भंडार खरीद रहा है। जमीन खरीद रहा है। यह भौतिक जगत में रावण की तरह चीन को ‘‘सोने की लंका‘‘ बनाने के स्वप्न देख रहा है। कोरोना वायरस ने इसकी पोल खोल दी है।
एयरपोर्ट पर उतरते हुए लॉन व पार्कों में केवल सरसों के फूल दिखाई दिये। जब हमने यह पूछा कि यहाँ इसको ही क्यों पैदा करते हैं, तो कहा कि ये देखने में सुन्दर लगते हैं और इसके तेल का भी उपयोग करते हैं। यहाँ हर वस्तु के उत्पादन में केवल लाभ की ही गणना करते हैं। इसलिए यहाँ सभी काम केवल लाभ के लिए होते हैं। मैंने यह बात कई लोगों से सुनी।
यहाँ का विकास दुनिया के दूसरे शहरों के विकास से थोड़ा अलग है। यहाँ के नदी-नालों में सफाई दिखती है! लेकिन वातावरण में साँस लेने में कठिनाई हो रही थी। ये प्राकृतिक सौन्दर्य में भी केवल कमाई ही देखते हैं। यहाँ के औद्योगिक क्षेत्रों में हरियाली दिखाई देती है। देखने में भोजन और पीने में पानी स्वादिष्ट ही लगा।
पूरा दिन शंघाई के होटल में मैनेजर, कार्यकर्ताओं व शहर बाजार व विकास में लगे इंजीनियरों के साथ बातचीत करने में ही बीता। यदि संक्षेप में कहूँ तो यहाँ प्रकृति के प्रति कोई आस्था या पर्यावरण के रक्षण का विचार दिखाई नहीं दिया।
*लेखक जलपुरुष के नाम से विख्यात पर्यावरणविद हैं। प्रकाशित लेख उनके निजी विचार हैं।