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विशेष आलेख
भाषा की महत्ता का सवाल
– डा. रामजीलाल जांगिड*
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मातृभाषा के प्रति लगाव का प्रमाण मुझे अपने जीवन में एक नहीं, बहुत बार या यों कहें कि बार-बार मिला। मुंबई के मंत्रालय में श्री बनवारी लाल पुरोहित से भेंट में जो भाषा से लगाव का परिचय मिला वह तो अभूतपूर्व था। उसी कड़ी में यह उदाहरण भी भाषा के प्रति लगाव की पुष्टि में अनूठे ही कहे जायेंगे। इस मामले में मेरा मानना है कि अरबपति और सड़क पर ठेला लगाकर सब्जी बेचने वालों का दृष्टिकोण एक सा ही है। इस सच्चाई को नकार नहीं जा सकता।
सबसे पहले अरबपति पर आता हूं। हिन्दुस्तान टाइम्स समूह की मालकिन हैं श्रीमती शोभना भरतिया। वह देश के विख्यात उद्योगपति पिलानी निवासी स्वर्गीय कृष्ण कुमार बिड़ला की बेटी हैं। उनका विवाह मेरे गृहनगर फतेहपुर शेखावाटी में हमारी हेली (हवेली या मकान कहें) के पास स्थित ज्वाला प्रसाद भरतिया अस्पताल के निकट हुआ है। वहां उनके ससुर श्री मोतीलाल भरतिया की बड़ी सुंदर हवेली अब भी मौजूद है। एक बार की बात है कि शोभना को भारत सरकार के सूचना व प्रसारण मंत्रालय ने भारतीय जनसंचार संस्थान की कार्यसमिति में शामिल कर लिया। कुछ प्राध्यापक मित्र कार्यसमिति की बैठक में अपने वेतनों को लेकर कोई मुद्दा उठवाना चाहते थे। इसलिए वे शोभना भरतिया से मिलने हिन्दुस्तान टाइम्स हाउस आए। वे लोग मुझे भी साथ वहां ले गए। भेंट के दौरान वे लोग उनको अपनी बात समझा कर कमरे के बाहर चले गए। तब मैंने राजस्थानी भाषा में कहा – ‘शोभना! तू तो म्हारे म्होलै की बींदणी है’ (तुम तो मेरे मोहल्ले की पुत्रवधू हो)। शोभना ने पूछा- ‘कैंया’ (कैसे) ?। मैंने कहा – ‘श्याम जी (शोभना के पति) की खानदानी हेली महारी हेली के कनै ही है (हमारी हवेली के पास ही है)’। शोभना ने खुश होकर कहा – ‘ल्यो बताओ। या तो घर को ही मामलो होगो। आज रात घर पर आ ज्याओ। श्याम जी भी राजी (खुश) हो जावैगा।’ मैं भाषा के बल पर एक मिनट में शोभना के परिवार का सदस्य बन गया। मैंने उसको बताया कि मेरी पत्नी दिल्ली विश्वविद्यालय के कालिन्दी कालेज में अर्थशास्त्र पढ़ाती है। उस हर रात अगले दिन के लिए भाषण तैयार करने पड़ते हैं, इसलिए मैं शाम 7 बजे के बाद घर के बाहर कहीं नहीं जाता। मेरे छात्र ही भारत के प्रमुख समाचार चैनल चलाते हैं, मगर मैं कभी उनके बुलावे पर भी शाम 7 बजे के बाद उनके स्टूडियो भी नहीं गया। जाते समय उसने अपना विजिटिंग कार्ड दिया और कहा- ‘कभी कोई भी काम हो तो बिना किसी झिझक के बोल दीजिएगा।’ मैंने मन में कहा-शोभना! सच्चा पत्रकार वही हो सकता है, जिसे कोई चाह न हो। हर चाह अदृश्य बंधनो में बंधी रहती है। कोई सरकारी पद चाहिए, कोई पुरस्कार चाहिए, कोई पदवी चाहिए, सब के लिए कीमत देनी पड़ती है। पहले कीमत है- लिखने की आज़ादी, सोचने की स्वतंत्रता। फिर आप पत्रकार न रहकर पक्षकार बन जाते हैं। कलम गिरवी रख दी जाती है। आपके दिल में जो होता है, कई बार भूल से वह जबान पर आ जाता है। और आप स्वयं की पहचान भूलकर हजारों दर्शकों के सामने अंजना मंगेश की जगह अंजना मोदी बोल जाते हैं।”
शोभना से मैं जिंदगी में पहली बार मिला था। मगर भाषा के पुल से हम लोग तुरंत ही जुड़ गए।
दूसरी घटना है टाइम्स आफ इंडिया समूह के मालिक रहे चिड़ावा निवासी स्वर्गीय राम कृष्ण डालमिया के सुपुत्र श्री संजय डालमिया की। भारतीय जनसंचार संस्थान के मेरे कुछ छात्रों ने एक बार कहा- “सर! कोई अच्छा सा खाना हमें खिलवा दीजिए एक दिन।” मैं संजय से कभी मिला नहीं था। मैंने संजय का टेलीफोन नम्बर ढूंढा और राजस्थानी भाषा में कहा- “भाई जी! ये कुछ युवा हिन्दी पत्रकार जीमना चाहते हैं।” संजय ने कहा- “कोई बात नहीं। इन्हें कल लंच पर सुंदर नगर में मेरे गेस्ट हाउस पर ले आइए। अभी मैं भरतपुर अपनी डेयरी को बोल देता हूं- वे बढ़िया मक्खन, दूध – दही ले आएंगे।’ हम लोग अगले दिन स्वादिष्ट जीमण करके सुंदर नगर से वापस आ गए।
तीसरी घटना है – इंडियन एक्सप्रेस समूह के मंडावा निवासी संस्थापक सेठ रामनाथ गोयनका की। मैंने दिल्ली विश्वविद्यालय के टैगोर हाल, आर्ट्स फैकल्टी बिल्डिंग, उत्तरी परिसर में एक अखिल भारतीय भाषा पत्रकारिता सम्मेलन बुलाया था। मुझे इसमें भाग लेने वालों को लंच कराना था। मैंने राजस्थानी भाषा में गोयनका जी को अपनी जरूरत बताई। हम लोग पहले कभी मिले नहीं थे, मगर राजस्थानी भाषा का कमाल देखिए कि एक मिनट में ही फोन पर दोनों को। निकट ला दिया। उन्होंने आदमी भेज दिए और लंच का इंतजाम बखूबी सुन्दर हो गया।
अब आता हूं गरीबों की मातृभाषा प्रेम पर ।उस समय हम लोग 1967 से 1985 तक कालिन्दी कालेज के पास के बस स्टैंड (प्रसाद नगर) के सामने सतनगर में रहते थे। वह करोल बाग का हिस्सा है। यह इलाका पंजाबी भाषी शरणार्थियों के लिए बसाया गया था। लेकिन उसके आसपास रामेश्वरी नेहरु नगर, टैंक रोड, देव नगर और रैगड़पुरा में राजस्थानी भाषी दलितों की बहुत अच्छी आबादी है। हरियाणा और पश्चिमी उत्तर प्रदेश में पत्थरों से बनी भव्य इमारतें नहीं है। इसलिए बड़े बड़े किले बनाने वाले राजस्थानी शिल्पी कनाट सरकस, संसद भवन, राष्ट्रपति भवन आदि इमारतें बनाने के लिए लाए गए थे। उनकी मदद के लिए आए भूमिहीन खेतिहर दलित मजदूर। वे सब करोलबाग में बसाए गए। इन इलाकों में सब्जी बेचने वाले सारे इन्ही मजदूरों के वंशज थे। वे केवल राजस्थानी बोलते थे। मेरी भोजपुरी भाषी पत्नी उनसे पूछती- आलू क्या भाव है? तो जवाब मिलता – 10 रुपये किलो। मैं राजस्थानी में पूछता। तो मुझे जवाब मिलता- 5 रुपये किलो। एक दिन मैंने सब्जी वाले से पूछा- ऐसा क्यों क रते हो भाई ? उसने कहा- आप तो हमारे बड़े भाई हैं। फायदा तो हम दिन भर पंजाबियों से कमा लेंगे। मगर आपको खरीद के ही भाव देंगे। यहां मेरा कहना है कि हम एक-दूसरे का नाम तक नहीं जानते मगर हम एक भाषा की डोर से बंधे हैं। इसे कहते हैं भाषा की महत्ता। यह समझ और सोच का सवाल है। लेकिन आज के माहौल में यह भी मुश्किल हो गया है।
*लेखक प्रख्यात शिक्षाविद एवं समाज विज्ञानी हैं।
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