भारत सरकार को नदी जोड़ पर एक बार और विचार करके देखना चाहिए। नदी-जोड़ बड़े बांधों के बिना नहीं हो सकती है। बड़े बांधों का इतिहास हमारे सामने है। भारत में ऐसी कोशिशें सतलुज, व्यास का पूरा ढांचा तैयार होने के बाद भी पानी कहां मिला? विवाद की ये सब घटनाएं हमें सिखाती हैं कि भारत की बदलती हुई राजनीति में नदी जोड़ एक बहुत बड़ा खतरा है। ऐसे खतरे को कौन आगे बढ़ा रहा है? मोटे तौर पर अन्तर्राष्ट्रीय संस्थाएं, अर्थ संगठन व बहुराष्ट्रीय कम्पनियां ही इसके पीछे दिखती हैं। ऐसी परिस्थिति में हमें नदी जोड़ जैसी परियोजना को जानना-समझना बहुत जरूरी है। हमें इस परियोजना के जो भी लाभ बताये जा रहे हैं, वे सब किसी भी तरह व्यवहार में हासिल होने वाले नहीं हैं।
पूर्व में केन – बेतवा लिंक परियोजना (नदी जोड़ ) पर पीएसआई, तरुण भारत संघ और अन्य कई संस्थानों ने गहन अध्ययन किया था। इस लिंक परियोजना को सरकार द्वारा बाढ़ -सुखाड़ की मुक्ति के तौर पर बताया जा रहा है लेकिन यह बात व्यावहारिक नहीं है ; क्योंकि अभी तक किसी भी बड़े प्रोजेक्ट में से 30% भी क्लेम सिंचाई के पूरे नहीं हुए।
भारत में नदी जोड़ के बजाए नदियों से लोगों को जोड़ना बाढ़ -सुखाड़ मुक्ति की युक्ति बन सकता है। नदी जोड़ बाढ़ -सुखाड़ मुक्ति की युक्ति बिल्कुल नहीं है।
प्रधान मंत्री नरेंद्र मोदी ने आज खजुराहो में केन-बेतवा लिंक प्रोजेक्ट और उसके तहत दौधन बांध का शिलान्यास किया तो वहां उन्होंने दावा किया कि केन-बेतवा लिंक प्रोजेक्ट से बुंदेलखंड क्षेत्र में समृद्धि और खुशहाली के नए द्वार खुलेंगे। इस बांध से सैकड़ों किलोमीटर लंबी नहर निकलेगी। बांध का पानी करीब 11 लाख हेक्टेयर भूमि तक पहुंचेगा। यहां जो लिंक नहर बनाई जाएगी, उसमें पन्ना टाइगर रिजर्व के जीवों का भी ध्यान रखा गया है। छतरपुर, टीकमगढ़, निवाड़ी, पन्ना, दमोह और सागर सहित मध्यप्रदेश के 10 जिलों को सिंचाई सुविधा का लाभ मिलेगा। साथ ही उत्तरप्रदेश में जो बुंदेलखंड का हिस्सा है, उसके भी बांदा, महोबा, ललितपुर और झांसी जिलों को फायदा होगा।
हालांकि विश्व में अभी तक जहां भी नदी- जोड़ हुए हैं, कहीं लाभ नहीं हुआ है।
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यदि सही मायने में देखा जाये तो भारत की नदी-जोड़ परियोजना नदी जोड़, इससे पैदा होने वाले विवाद, पानी की लूट, समाज, संस्कृति की टूटन और विकल्प के सभी पहलुओं, पर्यावरणीय खतरे व आर्थिक असमानता को बढ़ाने तथा अन्तर्राष्ट्रीय सत्ताधारी संस्थाओं का प्रभुत्व स्थापित करने की विश्व-सत्ता की कोशिश का ही एक नाम है।
दरअसल भारतीय जलनीति-2002 में ही पानी निजी कम्पनियों को सौंपने की सरकारी मंशा जाहिर हो गई थी। पानी के लिए निर्माण, मालिकाना, संचालन, पट्टेदारी तथा परिवहन को निजी व व्यापारी हाथों को सौंपना पानी के मालिकाने हक का निजीकरण ही था।
हालांकि अतीत में भारत के राजनेताओं की मंशा ऐसी नहीं थी। पूर्व में तो सबसे पहले उदारीकरण को बढ़ावा देने वाली अगुवा सरकार का प्रधानमंत्री भी पानी को व्यापार की वस्तु बनाने का विरोधी था। 1992 में तत्कालीन प्रधानमंत्री पी.वी. नरसिंहाराव ने रियो डि जेनेरियो के पृथ्वी शिखर सम्मेलन में पानी का व्यापार खोलने का विरोध किया था। 1997 में मोरक्को में आयोजित होने वाले पहले विश्व जल सम्मेलन तथा 2000 में नीदरलैण्ड में होने वाले दूसरे विश्व जल सम्मेलन में भी भारत सरकार ने पानी के निजीकरण को सहमति नहीं दी थी, लेकिन तीसरे विश्व जल सम्मेलन (क्यूटो जापान, 2003) में पानी के निजीकरण की बात जोरों से स्वीकृत हुई। भारतीय प्रधानमंत्री के प्रतिनिधि ने आगे बढ़कर मंजूरी दी। यह स्वीकृति ही नदी जोड़ के काम को तेज करने का रास्ता बनी।
आज प्रधान मंत्री ने यह भी आरोप लगाया कि अटल बिहारी वाजपेयी की सरकार की पानी से जुड़ी चुनौतियों को हल करने के लिए गंभीरता से शुरू किये गए उन सारी योजनाओं को 2004 के बाद कांग्रेस की सरकार ने आते ही ठंडे बस्ते में डाल दिया। उन्होंने कहा कि अब आज उनकी सरकार देश भर में नदियों को जोड़ने के अभियान को गति दे रही है। केन-बेतवा लिंक प्रोजेक्ट का सपना भी अब साकार होने वाला है। साथ ही उन्होंने यह भी ध्यान दिलाया कि मध्यप्रदेश देश का पहला राज्य बना है, जहां नदियों को जोड़ने के महाअभियान के तहत दो परियोजनाएं शुरू हो गई है, और कुछ दिन पहले जब वे राजस्थान में थे तो वहां पार्वती-कालीसिंध-चम्बल और केन-बेतवा लिंक परियोजनाओं के माध्यम से कई नदियों का जुड़ना तय हुआ था।
मैं अभी कुछ साल पहले केन-बेतवा नदी जोड़ योजना के प्रस्तावित रास्ते की पूरी यात्रा करके लौटा था। यात्रा के दौरान कुछ समय नदी जोड़ योजना के मुख्य अभियन्ता तथा अधीक्षण अभियन्ता भी मेरे साथ रहे। मैंने जब भी उनसे इस योजना का आधार जानना चाहा तो वे हमें पानी का समान बंटवारा करने, बाढ़ और सुखाड़ से निपटने, परिवहन को बढ़ावा देने और नये रोजगार देने वाला बताकर चुप हो जाते थे। जब मैं नदी जोड़ के पक्षधरों के समक्ष अरवरी नदी के पुनर्जीवन का उदाहरण देकर बात करता हूँ तो वे कहते हैं कि यह तरीका ठीक है, लेकिन उस तरीके से पानी का स्थानान्तरण नहीं किया जा सकता। नदी जोड़ पानी के स्थानान्तरण का काम है।
मैं जब भारत सरकार की नदी-जोड़ परियोजना विशेषज्ञ कमेटी का भी सदस्य था, कमेटी की पहली बैठक से लेकर अब तक कहीं भी मुझे सरकारी तौर पर बोलने का मौका मिला… मैं इसकी खामियां बताता रहा हूँ और पानी की समस्या के दूसरे और बेहतर विकल्प सुझाता रहा हूँ। नदी जोड़ किसी भी तरह से जल संरक्षण का जनोन्मुखी और विकेन्द्रीकृत विकल्प नहीं है। भारत में सबको पानी पिलाने और खेती व उद्योग की जरूरत पूरी करने का काम जल व भू-जल के संरक्षण, अनुशासित उपयोग एवं न्यायपूर्व बंटवारे से ही संभव है। इसी तरीके से भारत के जल पर समान हक कायम होगा; सबकी जरूरतें बराबरी से पूरी होंगी।
अतः हमारे तालाब हमारी जरूरत व स्वावलंबन की कसौटी पर समय- सिद्ध व खरी संरचनाएं हैं। इन्हें ही अपनाकर भारत को जल संकट व जल-युद्ध से बचाने की तैयारी करनी चाहिए।
*जल पुरुष के नाम से विख्यात जल संरक्षक। प्रस्तुत लेख उनके निजी विचार हैं।